तिरुप्पावै – सरल व्यख्या

श्रीः  श्रीमते शठकोपाय  नमः   श्रीमते रामानुजाय  नमः   श्रीमत् वरवरमुनये नमः

मुदलायिरम्

श्री मणवाळ मामुनिगळ् अपने उपदेश रत्त्नमालैः के २२ वे पाशुर में, बहुत ही सुन्दर ढंग से  देवी आण्डाळ् की महानता का वर्णन करते है।

इन्ऱो तिरुवाडिप्पूरम् एमक्काग
अन्ऱो इन्गु आण्डाळ् अवदरित्ताळ् – कुन्ऱाद
वाळ्वान वैगुन्द वान् बोगम् तन्नै इगळ्न्दु
आळ्वार् तिरुमगळाराय् ।

क्या आज तिरुवाडिप्पूरम् (द्रविड़ आदि माह (उत्तर भारतीय आषाढ़ माह ) का पूर्व फाल्गुनी नक्षत्र है ?

जैसे एक माता कुएं में गिरे अपने बच्चे को बचाने के लिये, कुएं में कूद जाती है, वैसे ही

श्री भूदेवी, श्री वैकुण्ठ के असीमित,आनंदमय अनुभव को छोड़कर

पेरियाळ्वार की पुत्री के रूप में श्रीविल्लिपुत्तूर में अवतरित हुयी ।

भगवान वराह अवतार में श्री भूदेवी के उद्धार के समय देवीसे  कहा था, “जीवात्मा मन से मेरा ध्यान करते हुये, पुष्पों से पूजा, आरधना करते, मनसे प्रार्थना करे, तो मुझे प्राप्त कर सकता है । ” कितनी कृपा और आश्चर्य की बात है।

आण्डाळ् ने स्वयं को ग्वालिन, श्रीविल्लिपुत्तूर को श्री गोकुल, उसकी सहेलियोंको ग्वालिनें, श्रीविल्लिपुत्तूर के वटपत्रशायि मन्दिर में विराजित भगवान वटपत्रशायि को कृष्ण (कान्हा ), और मन्दिर को नन्दगोप का घर माना।

अपनी अपार करुणा से आण्डाळ् ने भगवान को पाने के उपाय में, तमिल भाषा में,  सरलता से समझ में आने वाली पाशुर रचे, जिसे तिरुप्पावै कहते है।

यह भी बतलाया की एम्पेरुमान को पाने के लिये, एम्पेरुमान ही उपेय (साधन् है। एम्पेरुमान की प्रसन्नता के लिये उनका कैंकर्य ही काफी है। भागवतों के माध्यम से  और  नैप्पीनै पिराट्टि के पुरुषकार (सिफारिश्) से ही  एम्पेरुमान की प्राप्त्ति  हो सकती है.| यह हर जीवात्माका स्वरुप ( मूल गुण ) है 

सम्प्रदाय में आचार्यो पूर्वाचार्यों ने तिरुप्पावै को वेदों का सार माना है।

इसमें भगवद प्राप्ति का रहस्योद्घाटन भी है।

वेद यह कहते है की वेदज्ञ की सहायता से भगवान के, दिव्य श्रीचरणों की प्राप्ति हो सकती है। 

ऐसे ही तिरुप्पावै  कहता है कि  भगवद प्राप्त्ति के लिये, भागवतों के साथ भगवान की सेवा करना, केवल भगवानकी प्रसन्नता के लिये, सेवा जरुरी है।

इस रहस्य को हम तिरुप्पावै में पूरी तरह जान उसका आनन्दानुभव कर सकते है।

भगवद रामानुज स्वामीजी के अनेक नामों में एक नाम तिरुप्पावै जीयर भी था, यह उनके सदा तिरुप्पावै के अनुसन्धान के कारण पड़ा।  

इस प्रबंध की एक और विशेषता है कि, सिर्फ यही एक ऐसा प्रबंध है, जिसे बच्चो से लेकर बड़ों तक बहुत ही आनंद और उत्साह से गायन कर सकते है।

इस तिरुप्पावै का यह सरल भावार्थ पूर्वाचार्यों (उपदेशक) के व्याख्यानों पर आधारित है।

अडियेन श्याम सुन्दर रामानुज दास

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