आर्ति प्रबंधं – २८

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आर्ति प्रबंधं

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उपक्षेप

नेक और ज्ञान संबन्धित कार्यो में व्यस्त रहने पर भी परमपद की रुचि या इच्छा मणवाळ मामुनि के मन में श्री रामानुज के अनुग्रह से ही उत्पन्न हुई।  श्री रामानुज के इस अत्यंत कृपा को मणवाळ मामुनि इस पासुरम में प्रशंसा करते हैं।  

पासुरम

पण्डु पलवायिरम पारुलगोरुय्य
परिवुडने सेय्दरुळुम पल्कलैगळ तम्मै
कण्डदेल्लाम एळुदि अवै कट्रिरुंदुम पिरर्क्कु
कादलुडन करपित्तुम कालत्तै कळित्तेन
पुणडरीगै केळ्वनुरै पोन्नुलगु तन्निल
पोग निनैवु ओन्रुमिन्रि पोरुन्दि इंगे इरुन्देन
एण्डिसैयुम एत्तुम एतिरासन अरुळाले
एळिल विसुम्बेयन्रि इप्पोदेन मनम एण्णादे

शब्दार्थ

पण्डु –  पिछले काल में
कालत्तै कळित्तेन – मैंने जीवन बिताई
कादलुडन – प्रेम से
कर्पित्तुम – प्रचार कर/ सिखा कर
पिरर्क्कु  – दूसरों को
अवै कट्रिरुंदुम – अपने आचार्य से जो मैंने सीखा
कणडदेल्लाम – मेरे दृश्य में आने वाले ग्रंथों में उपस्थित सारा ज्ञान
एळुदि – जो सीखा उस्के विषय में लिखा
पल्कलैगळ तम्मै – अनेकों ग्रंथों
सेय्दरुळुम – अनुग्रह किये गए है
पलवायिरम – “आत्मा की प्रगति एवं उन्नति” की विषय में हमेशा ध्यान देने वाले आचार्यो से
परिवुडने – कृपा से चेतनों को दिए, इसलिए
पारुलगोरुय्य – कि चेतनों को साँसारिक बंधनों से मुक्ति मिले
पोरुन्दि इंगे इरुन्देन – मैं इस विभूति में संतुष्ट था
पोग निनैवु ओन्रुमिन्रि – यहाँ से निकलने का सोच के बिना
पोन्नुलगु तन्निल – “नित्य विभूति” जो परमपद हैं, वहाँ
उरै – जो निवास हैं
पुण्डरीगै केळ्वन – कमल पर विराजमान पेरिय पिराट्टि के दिव्य पति
इप्पोदेन मनम एण्णादे – (किंतु अब) मेरा ह्रदय अन्य कोई विषय पर ध्यान न देगा
एळिल विसुम्बेयन्रि – तेजोमय परमपद से अन्य कोई
एतिरासन अरुळाले – (इसका कारण हैं)  एम्पेरुमानार के आशीर्वाद
एण्डिसैयुम एत्तुम – अष्ट दिशाओं में लोग इन्हीं के श्रेय की प्रशंसा करतें हैं

सरल अनुवाद

पूर्व काल में अपने जीवन बिताने के तरीखे की मामुनि प्रस्ताव करते हैं।  आचार्यो के कृपा से लोक में प्राप्त हुयी ग्रंथों को वे पढ़ते थे। खुद पढ़े तथा उन्के विशेष अर्थों से अपरिचित जनों को सिखायें। पूर्वतः मामुनि को परमपद में कोई इच्छा न थी। एम्पेरुमानार जिन्के आशीर्वाद से ही, अनेकों भगवतो और  पिराट्टियों समेत श्रीमन नारायण के निवास स्थान परमपद  में रूचि, मणवाळ मामुनि में उत्पन्न हुई।  इसलिए वें एम्पेरुमानार के आशीर्वाद की उत्सव मनाते हैं।

स्पष्टीकरण

मामुनि कहते हैं , “अपने पूर्व काल में, चेतनों के उन्नति के हेतु , महान पूर्वाचार्यो से लिखे गए अनेकों ग्रंथों की मैंने पाठ किये। अनेकों आचार्यो से लिखित यें एक कंठी जैसे एक सोच ही प्रकट करते हैं। चेतनों के प्रति अत्यंत कृपा से आचार्यो से प्राप्त इन ग्रंथों को हम पढ़े । (नान्मुगन तिरुवन्दादि ६३),”तेरित्तु एळुदि” के अनुसार, अपने आचार्यो से भी ढंग से सीखें । इन विषयों से अज्ञानियों के आत्मा की उन्नति केलिए इन ग्रंथों के गहरे अर्थों को पढ़ाये और यही हमारी व्यवहार भी थी। साँसारिक भोग्य में मग्न हमें , (मुदल तिरुवन्दादि ६७) “तामरैयाळ केळ्वन” से वर्णित पिराट्टि समेत श्रीमन नारायण के निवास स्थान परमपद में रुचि न थीं। अष्ट दिशाओं में भी माने जाने वाले श्री रामानुज के आशीर्वाद के कारण हमें परमपद में रुचि उत्पन्न हुई और उन्के आशीर्वाद के विशेष से ही अब मेरा ह्रदय अन्य कोई विषय को सोचे बिना, परमपद पर ही विचार कर रहा हैं। “अरुळाले” शब्दान्त के  “ले” से उनके आशीर्वाद के प्रभाव पर विशेष ध्यान दिया गया हैं।  यह व्याकरण में  “तेट्रत्तु ऐकारम” कहा जाता हैं।

पादटीका

“अरुळाले” शब्द में पिळ्ळैलोकम जीयर “तेट्रत्तु ऐकारम” की प्रस्ताव करतें हैं। तमिळ व्याकरण में दो “ऐकारम” हैं। “तेट्रत्तु ऐकारम”, “उरुदी” याने “निश्चय” तथा “सर्वसम्मत” को प्रकट करता है। तिरुप्पावै में आण्डाळ, “नारायणने” के ऐकारम से यह प्रकट करतीं हैं कि नारायण से अन्य कोई “परै” (लाभ, परमपद) न दे सकते। इस्से निश्चित रूप में मोक्ष दायक की पहचान स्थापित की गयी हैं। दूसरा है “पिरिनिलै ऐकारम” जिसका उधाहरण देखते हैं। तिरुप्पावै के उसी पासुरम में आण्डाळ, “नमक्के” में  ऐकारम की प्रयोग करती हैं।  अर्थात, नारायण हम जैसे नीच, पापी, अज्ञानियों को भी परै अनुग्रह करेंगें। इस पासुरम में “एण्णादे” में “तेट्रत्तु ऐकारम” की प्रयोग की गयी हैं।

अडियेन प्रीती रामानुज दासी

आधार :  http://divyaprabandham.koyil.org/index.php/2016/10/arththi-prabandham-28/

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