ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) २७

श्री:
श्रीमते शठकोपाय नम:
श्रीमते रामानुजाय नम:
श्रीमत् वरवरमुनये नम:

ज्ञान सारं

ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) २६                                                           ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) २८

पासुर – २७

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नेरि अरियादारूम अरिन्दवर पार सेन्रु
सेरिदल सेय्यात ती मनत्तर तामुम् इरै उरैयैत
तेरादवरुम तिरुमडन्दै कोन उलगत्तु
एरार इडर अलुन्दुवार

प्रस्तावना: इस पाशुर में श्री देवराज मुनि स्वामीजी तीन प्रकार के व्यक्ति के बारें में कहते हैं। वह कहते हैं कि यह तीन श्रेणी के लोग कभी भी भगवान श्रीमन्नारायण के परमपद को प्राप्त नहीं कर सकते और वें अपने आप को संसार बन्धन के पीड़ा जो कि जन्म मरण हैं उसी में रहते हैं।

अर्थ: अरियादारूम – जिन्हें मालुम नहीं हैं | नेरि – यानि | अरिन्दवर पार सेन्रु– जो आचार्य के पास जाते हैं जिन्हें उसका मतलब मालुम हैं परन्तु | सेरिदल सेय्यात – अपने आचार्य को उनकी आज्ञा पालन न करके उनको प्रसन्न नहीं करता और उनके तक हीं कैंकर्य करता हैं और ती मनत्तर तामुम् – जिसके हृदय में कपट हो और | इरै उरैयैत तेरादवरुम – जिसे भगवान श्री कृष्ण द्वारा भगवद गीता में “शरणागति” शास्त्र को समझाया उस पर विश्वास नहीं हैं; वह लोग | एरार – नहीं पहुंचेंगे | उलगत्तु – परमपद जहाँ राजा और कोई नहीं | तिरुमडन्दै कोन – वह हैं जो श्रीमहालक्ष्मीजी के राजा हैं; ऐसे लोग | अलुन्दुवार उसमे डूब जायेंगे इडर – यह संसार समुद्र जो सभी पीड़ा का मूल हैं।

स्पष्टीकरण: नेरि अरियादारूम:  यहाँ कुछ लोग ऐसे हैं जिन्हें यह नहीं पता जन्म मरण के जंजीरों कि राह कैसे तोड़ते हैं जो कि पुन: पुन: आती हैं। उन्हें इस फंदे से बाहर आने का रास्ता हीं नहीं मिलता हैं वें इसी चक्र में सदैव के लिए फंसे रहते हैं। इन व्यक्तियों को यहाँ दर्शाया गया हैं। अरिन्दवर पार सेन्रु सेरिदल सेय्यात ती मनत्तर तामुम्: यह उन व्यक्तियों को दर्शाया गया हैं जो इस जन्म मरण के संसार बन्धन से किस तरह छुटकारा दिलाना पता होता हैं ऐसे आचार्य कि शरण नहीं लेते हैं, उसे जो इस पद में बताया गया हैं “मारि मारि पला पिरप्पुम पिरन्धु”। यह लोग आचार्य के चरण कमलों को नहीं स्वीकारते। अगर वें अपने अपने आचार्य के चरणों में नहीं जाते हैं तो उनका भगवान के प्रति सही आचरण नहीं होगा। हालकि आचार्य इन्हें इस संसार के जन्म मरण के बन्धन से निकाल ने के लिये तैय्यार हैं परन्तु इनका आचरण देखकर उन्हें यह रहस्य उन्हें बताने से निषेद करता हैं। कारण यह हैं कि वह अपने आचार्य के कृपा को न स्वीकारते हैं और वही कार्य करते हैं जो उन्हें खुद को प्रसन्न करें। वह अपने आचार्य से इस संसार बन्धन से छुटने के लिए नम्रता पूर्वक प्रार्थना नहीं करते हैं। वह अपने आचार्य का बताया हुआ कोई भी कार्य नहीं करते हैं। आचार्य से कभी भी बात नहीं करते। वह अपने आचार्य को एक दूसरे व्यक्ति के जैसे हीं देखते हैं और उनमे अनगिनत गलतियाँ ढुँढते हैं जैसे कि एक साधारण व्यक्ति में गलतियाँ ढुँढता हैं। ऐसे लोगों के बारें यहाँ समझाया गया हैं।
इरै उरैयैत तेरादवरुम: एक और समूह के लोग हैं जिन्हें शरणागति शास्त्र (पूर्णत: भगवान श्रीमन्नारायण के चरण कमलों के शरण होना) में विश्वास नहीं हैं। शरणागति का उपदेश तो अर्जुन को भगवान कृष्ण ने अपने “भगवद् गीता” में दिया था। हालकि भगवान ने अर्जुन से बात कि परन्तु अपने आप को जरिया बनाया। उनका मूल उद्देश तो हम जैसे लोग थे इसलिये उन्होंने अर्जुन को अपना हमारे लिए प्रतिनिधि चुना।

तिरुमडन्दै कोन उलगत्तु एरार: ऐसे लोग कभी भी “श्रीवैकुण्ठ” या “परमपद” नहीं जायेंगे जो भगवान कि तिरुमाली हैं और जो पिराट्टी के स्वामी हैं। इडर अलुन्दुवार: ऐसे लोग हमेशा के लिए इस शोकमय दु:खी सन्सार में डुब जायेंगे और पुन: जन्म लेते रहेंगे। वह सब पीड़ा का अनुभव करते हैं और कभी भी भगवान के परम धाम परमपद नहीं पहुँचते। स्वामीजी श्री देवराज मुनि कहते हैं ये हमेशा के लिए अत्यन्त दु:ख प्राप्त करेंगे।

हिन्दी अनुवादक – केशव रामानुज दासन्

Source: http://divyaprabandham.koyil.org/index.php/2015/02/gyana-saram-27-neri-ariyadharum/
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