उपदेश रत्तिनमालै  – सरल व्याख्या – पासुरम् ५०

। ।श्री: श्रीमते शठकोपाय नम: श्रीमते रामानुजाय नम: श्रीमत् वरवरमुनये नमः। ।

उपदेश रत्तिनमालै

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पासुरम् ५०

पचासवां पासुरम्। इस प्रकार ईडु भाष्य की महानता को समझाने के बाद, श्रीवरवरमुनि स्वामी श्रीवचनभूषण की महानता का वर्णन करने का निर्णय लेते हैं, जो कि तिरुवाय्मोऴि का वास्तविक अर्थ है। प्रारंभ में बताते हैं कि नम्पिळ्ळै (स्वामी कलिवैरि दास) को लोकाचार्य का प्रतिष्ठित दिव्य नाम कैसे मिला। चूँकि पिळ्ळै लोकाचार्य (श्री लोकाचार्य स्वामीजी) को नम्पिळ्ळै का‌ विशिष्ट नाम लोकाचार्य रखा गया, श्रीवरवरमुनि स्वामी इसका वृत्तांत करते हैं। इस पाशुरम् में, वे अपने दिव्य हृदय को उन चंद व्यक्तियों का आनंदोत्सव मनाने को कहते हैं, जिन्हें उच्च सम्मान दिया जाता था और जिनके नाम के आगे ‘नम्’ (अपनापन दिखानेवाला शब्द) शब्द का उपसर्ग होता था। 

नम्पेरुमाळ् नम्माऴ्वार् नन्जीयर् नम्पिळ्ळै
ऎन्बर् अवरवर् तम् एट्रत्ताल् – अन्बुडैयोर् 
सात्तु तिरु नामङ्गळ् तान् ऎन्ऱु नन्नेञ्जे 
एत्तदनैच् चोल्लु नी इन्ऱु
 

हे हृदय! नम्पेरुमाळ्, नम्माऴ्वार्, नन्जीयर् और नम्पिळ्ळै को विशिष्ट सम्मान के साथ संदर्भित किया जाता था। इसका कारण उनकी श्रेष्ठता है। तुम भी इन दिव्य नामों का स्मरण करो और इनका उत्सव मनाओ।

अऴगिय मणवाळप्पेरुमाळ् (श्रीरंगम में श्रीरंगनाथ जी का उत्सव विग्रह) के श्रीरंगम से क‌ई वर्षों तक दूर रहकर वापस लौटने के पश्चात, इस विग्रह के लिए एक तिरुमंञ्जनम् (अभिषेक) सेवा किया गया। अभिषेक के बाद जब एक वृद्ध श्रीवैष्णव धोबी ने गीले वस्त्रों से दिव्य जल का प्रसाद स्वीकारा, प्रेम से “ये नम्पेरुमाळ् हैं” (ये हमारे भगवान हैं) कहा; और इस प्रकार श्रीरंगनाथ जी के लिए नम्पेरुमाळ् नाम दृढ़ता से स्थापित हो गया। क्योंकि नम्पेरुमाळ् ने स्वयं ही नम्माऴ्वार् (श्री शठकोप स्वामी) को नम् आऴ्वार् (हमारे आऴ्वार्) और नम् शठकोपन् (हमारे शठकोप) कहकर संबोधित किया, नम्माऴ्वार् नाम प्रतिष्ठित हो गया। तिरुनारायणपुरम् को त्यागकर श्रीरंगम् को स्वीकार कर जब वेदान्ती जीयर् श्रीरंगम आ पोहुंचे, तब पराशर भट्टर् ने स्नेह से स्वागत करते हुए कहा, “वारुम्, नम् सीयरे!” (आइए, हमारे जीयर्!); इसलिए, वे नन्जीयर् पुकारे जाते थे। जब नम्बूर् वरदर् ने नन्जीयर् द्वारा रचित ओन्बदिनायिरप्पडि (सहस्त्रगीति का ९००० पद भाष्य/व्याख्या) का अति सुन्दर रूप से पांडुलिपि बनाया, तब वे नन्जीयर् द्वारा स्नेह से नम् पिळ्ळै (हमारे प्रिय पुत्र) पुकारे ग‌ए; तब से उनके लिए नम्पिळ्ळै नाम स्थापित हो गया। 

अडियेन् दीपिका रामानुज दासी

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