उपदेश रत्तिनमालै – सरल व्याख्या – पासुरम् ४८ – ४९

। ।श्री: श्रीमते शठकोपाय नम: श्रीमते रामानुजाय नम: श्रीमत् वरवरमुनये नमः। ।

उपदेश रत्तिनमालै

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पासुरम् ४८ 

अड़तालीसवाँ पाशुरम्। इस तरह [अन्य दिव्य प्रबंधों के लिए लिखे गए] व्याख्यानों की व्याख्या करने के बाद, श्री वरवरमुनि स्वामी कृपापूर्वक अगले दो पासुरम् के माध्यम से नम्पिळ्ळै की प्रख्यात टीका ‘ईडु’ की व्याख्या के बारे में बताते हैं। 

सीरार् वडक्कुत् तिरुवीधीप् पिळ्ळै ऎऴुदु
एरार् तमिऴ् वेदत्तु ईडु तनै – तारुम् ऎन 
वांङ्गि मुन् नम्पिळ्ळै ईयुण्णि माधवर्क्कुत्
ताम् कॊडुत्तार् पिन् अदनैत्तान् 

वडक्कुत् तिरुवीधीप्पिळ्ळै को अपने आचर्य की कृपा से संपूर्ण ज्ञान प्राप्त करने की महानता प्राप्त हुई थी। ईडु महाव्याख्यानम्, जिसकी महानता यह है कि वह तिरुवाय्मोऴि के सभी अर्थों का सुविस्तार व्याख्या देती है, नम्पिळ्ळै द्वारा वडक्कुत् तिरुवीधीप्पिळ्ळै से ले लिया गया, यह कहते हुए, “यह इस व्याख्यान के

को प्रकाशित करने का उचित समय नहीं है। कुछ वर्षों बाद, व्यापक प्रचार-प्रसार के माध्यम से एक महान आचार्य के द्वारा अपनी महिमा की ऊँचाइयों तक पहुँच जाएगा। अतः ‌अब इसे मुझे सौंप दो।” इस प्रकार, पहले ही वडक्कुत् तिरुवीधीप्पिळ्ळै से लेकर, बाद में, उन्होंने अपने प्रिय शिष्य, ईयुण्णि माधवन् (माध्वाचार्य) को सौंप दिया। उन्होंने कहा कि इसे गुप्त रूप से, एक आचार्य से मात्र एक शिष्य को प्रकट किए जानेवाले पद्धति से इसको पढ़ाया जाए। 

आगे‌ जाकर, मणवाळ मामुनिगळ् (श्री‌ वरवरमुनि स्वामी) ने इस ईडु व्याख्यानम् को अपने आचार्य, तिरुवाय्मोऴिप्पिळ्ळै (श्री शैलेश स्वामी) से सीखा और इसे सारे संसार में प्रकाशित किया। 

इसके पश्चात उन्होंने श्रीरङ्गम् में एक वर्ष के लिए इसका प्रवचन दिया। बाद में उन्होंने नम्पेरुमाळ् की दिव्य सूचना पर सहमति व्यक्त करते हुए, श्रीरङ्गम् में एक वर्ष तक प्रवचन दिया, जिसे नम्पेरुमाळ् ने अपने अनुयायियों के साथ सुना और उसका आनंद लिया। नम्पेरुमाळ् ने श्रीवरवरमुनि को अपने आचार्य के रूप में मान्यता देकर उन्होंने “श्रीशैलेश दयापात्रम्” से आरंभ होनेवाला एक मंगलाचरण श्लोक (तनियन्) भी समर्पित कर श्रीवरवरमुनि को गौरवान्वित किया और निर्धारित किया कि यह तनियन् सेवाकाल क्रमम् (अरुळिच्चॆयल् के पाठ करना का क्रम) के आरंभ और अंत में इसका पाठ किया जाना चाहिए। यह घटना विश्व प्रसिद्ध है। 

पाशुरम् ४९

उन्चासवां पासुरम्। श्रीवरवरमुनि स्वामी समझाते कैसे ईडु व्याख्यानम् उनके आचार्य तिरुवाय्मोऴिप्पिळ्ळै (श्रीशैलेश स्वामी) तक पहुंचा। 

आङ्गु अवर्पाल् पॆट्र सिऱियाऴ्वान् अप्पिळ्ळै 
ताम् कॊडुत्तार् तम् मगनार् तम् कैयिल् – पाङ्गुडने 
नालूर्प्पिळ्ळैक्कु अवर् ताम् नल्ल मगनार्क्कु अवर् ताम् 
मेलोर्क्कु ईन्दार् अवरे मिक्कु 

ईयुण्णि माधवप्पॆरुमाळ् जो सिऱियाऴ्वान् अप्पिळ्ळै नाम से भी जाने जाते हैं, जिन्हें ईडु व्याख्यानम् आचार्य नम्पिळ्ळै से मिला था अपने पुत्र ईयुण्णि पद्मनाभप्पेरुमाळ् को अच्छी तरह से सिखाया। जब ईयुण्णि पद्मनाभप्पेरुमाळ् कांचिपुरम् में निवास कर रहे थे, जिसे पेरुमाळ् कोयिल् भी कहा जाता है, तब नालूर् पिळ्ळै ने उनकी क‌ई सेवाएं की, जिसे ईयुण्णि पद्मनाभप्पेरुमाळ् ने स्वीकारा और उन्हें ईडु व्याख्यानम् सिखाया। बाद में नालूर् पिळ्ळै ने अपने पुत्र नालूराच्चान् पिळ्ळै को ईडु व्याख्यानम् सिखाया। 

तिरुवाय्मोऴि पिळ्ळै, जिन्होंने दिव्य निवास आऴ्वार् तिरुनगरी का सुधार कार्य किया, वहाँ पोलिन्दु निन्ऱ पिरान् (एम्पेरुमान्/भगवान श्रीमन्नारायण) और नम्माऴ्वार् की सन्निधि (गर्भगृह) का पुनर्निर्माण किया, और भविष्दाचार्य (एम्पेरुमानार्) के लिए मंदिर की स्थापना की, वे ईडु व्याख्यानम् सीखने की इच्छा से कांचीपुरम् गए। स्वयं देवप्पेरुमाळ् के आदेशानुसार, नालूराच्चान् पिळ्ळै ने तिरुनारायणपुरम् में तिरुवाय्मोऴि पिळ्ळै, तिरुवाय्मोऴि आच्चान और आई जनन्याचार्य को इडु व्याख्यानम् सिखाया। तिरुवाय्मोऴि पिळ्ळै जिन्होंने इस प्रकार ईडु सीखा, इसे मणवाळ मामुनिगळ् (श्रीवरवरमुनि स्वामी) को एक महान संपत्ति के रूप में प्रदान किया।

अडियेन् दीपिका रामानुज दासी

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