तिरुवाय्मोऴि नूत्तन्दादि – सरल व्याख्या – पासुरम्  71 – 80

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्री वानाचलमहामुनये नमः

श्रृंखला

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इकहत्तरवाँ पाशुरम् – (देवन्…) इस पाशुरम् में, श्रीवरवरमुनी स्वामीजी आऴ्वार् के पाशुरों का अनुसरण कर रहे हैं, जिनमें वे भगवान के गुणों और वास्तविक प्रकृति पर अनावश्यक रूप से संदेह करते हैं और वे संदेह दूर हो जाते हैं, और दयापूर्वक इसे समझा रहे हैं।

देवन् उऱै पदियिल् सेरप् पॆऱामैयाल्
मेवुम् अडियार् वचनाम् मॆय्न्निलैयुम् – यावैयुम् तान्
आनिलैयुम् संगित्तु अवै तॆळिन्द माऱन्पाल्
मानिलत्तीर्! नङ्गळ् मनम्

हे विराट जगत के वासियों! भगवान निवास कर रहे तिरुवाऱन्विळै के दिव्य धाम में उनकी सेवा करने में असमर्थ होकर आऴ्वार् ने अनावश्यक रूप से, भगवान के भक्तों के प्रति अधीनता की स्थिति और चेतन और अचेतन के साथ पहचाने जाने की स्थिति के विषय में, अनावश्यक रूप से संदेह किया, और उनकी शंकाओं को दूर होते‌ देखा। हमारा हृदय ऐसे आऴ्वार् के प्रति लगा रहेगा।

बहत्तरवाँ पाशुर – (नङ्गरुत्तै…) इस पाशुरम में, श्रीवरवरमुनी स्वामीजी आऴ्वार् के पाशुरों का पालन करते हुए आत्मा और आत्मा के सामान में अलगाव की घोषणा कर रहे हैं और दयापूर्वक इसकी व्याख्या कर रहे हैं।

नङ्गरुत्तै नन्ऱाग नाडि निऱ्-कुम मालरिय
इङ्गिवट्रिल् आसै ऎमक्कुळदॆन् सङ्गैयिनाल्
तन्नुयिरिल् मट्रिल् नसै तान् ऒऴिन्द माऱन् तान्
अन्निलैयै आयन्दुरैत्तान् अङ्गु

एम्पेरुमान को सूचित करने के लिए, जो सदैव आऴ्वार् के हृदय की भली-भांति विश्लेषण करते रहते हैं,‌ आऴ्वार् ने इस संसार में आसक्ति न‌‌ होने‌ का अनावश्यक संदेह के साथ, जिसे भगवान जानते हैं, स्वयं की प्रकृति और स्वयं की संपत्ति का विश्लेषण किया, उनसे अलग होने की अनुभूति हुई, और दयापूर्वक उसके बारे में जानकर बात की।

तिहत्तरवाँ पाशुरम् – (अङ्गमरर्…) इस पाशुरम् में, श्रीवरवरमुनी स्वामीजी आऴ्वार् के पाशुरम् का पालन कर रहे हैं, इस बात से चिंतित होने के लिए कि एम्पेरुमान की देखभाल करने वाला कोई नहीं है और एम्पेरुमान आऴ्वार् को सांत्वना दे रहे हैं कि वे हैं जो उनकी देखभाल करते हैं, और दयापूर्वक इसे समझा रहे हैं।

अङ्गमरर् पेण अवर् नडुवे वाऴ् तिरुमाऱ्-कु
इङ्गोर् परिवरिलै ऎन्ऱञ्ज – ऎङ्गुम्
परिवर् उळर् ऎन्नप् पयम् तीर्न्द माऱन्
वरिकऴल् ताळ् सेर्न्दवर् वाऴ्वार्

आऴ्वार् को डर था कि श्रियःपति के लिए जो परमपदधाम में उन नित्यसूरियों के बीच रह रहे हैं जो उनका मंगलाशासन कर रहे हैं, इस संसार में मंगलाशासन करने वाला कोई नहीं है। जैसे ही एम्पेरुमान ने कहा, “मेरी परवाह करनेवाले हर जगह में उपस्थित हैं”, आऴ्वार् का डर दूर हो गया। जो लोग आऴ्वार् के धारीदार नूपुर से सुशोभित दिव्य चरणों तक पहुँचते हैं, उनका उत्थान होगा।

चौहत्तरवाँ पाशुरम् – (वारामल्…) इस पाशुरम् में, श्रीवरमुनि स्वामीजी आऴ्वार् के पाशुरों का अनुसरण कर रहे हैं, जिसमें एम्पेरुमान् की वीरता, शौर्य आदि जैसे गुणों और उन लोगों के साथ जो श्राप/आशीर्वाद दे सकते हैं उनके साथ एम्पेरुमान् की एकजुटता, जैसा कि स्वयं एम्पेरुमान ने दिखाया, और उसके कारण आऴ्वार् निर्भय बने रहे, और इसे दयापूर्वक समझा रहे हैं ।

वारामल् अच्चम् इनि माल् तन् वलियिनैयुम्
सीरार् परिवरुडन् सेर्त्तियैयुम् – पारुम् ऎनत्
तान् उगन्द माऱन् ताळ् सार नॆञ्जे! सारायेल्
मानिडवरैच् चार्न्दु माय्

आऴ्वार् के भय को दूर करने के लिए, सर्वेश्वरन ने अपना पराक्रम आदि दिखाया और महान भक्तों के साथ अपनी एकजुटता, “इसे देखें” कहकर दिखाई, और आऴ्वार् यह देखकर प्रसन्न हो गए। हे हृदय! ऐसे आऴ्वार् के दिव्य चरणों के पास आओ; यदि तुम नहीं आए, तो भौतिकवादी लोगों के पास जाकर बुझ जाओ |

पचहत्तरवाँ पाशुर – (मायन्…) इस पाशुरम् में, श्रीवरवरमुनी स्वामीजी, भगवान की शारीरिक सुंदरता का आनंद लेने में असमर्थता से आऴ्वार् के अत्यधिक दु:ख के पाशुरों का अनुसरण कर रहे हैं, और दयापूर्वक इसे समझा रहे हैं।

मायन् वडिवऴगैक् काणाद वल्विडाय्
आय् अदऱ विंञ्जि अऴुदलट्रुम् – तूय पुगऴ्
उट्र सटकोपनै नाम् ऒन्ऱि निऱ्-कुम्बोदु पगल्
अट्र पॊऴुदानादॆल्लियाम्

सर्वेश्वर के दिव्य रूप की सुंदरता को न देख पाने के कारण आऴ्वार् का बड़ा दुःख बहुत बढ़ गया और वे रोए और असंगत रूप से पुकारे। जब हम ऐसे आऴ्वार् के पास रहते हैं जिनकी बहुत ही शुद्ध महिमा है और उनका आनंद लेते हैं, तो वह [उज्ज्वल] दिन होगा और जब उस अनुभव में विराम देते ही वह अंधेरी रात होगी।

छहत्तरवाँ पाशुर – (ऎल्लिपगल्…) इस पाशुरम में, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी आऴ्वार् के पाशुरों का अनुसरण कर रहे हैं, जिसमें आऴ्वार् के कष्टों को दूर करने के लिए एम्पेरुमान् निकट आ रहे हैं, और बाद में एकजुट हो रहे हैं, और दयापूर्वक इसे समझा रहे हैं।

ऎल्लि पगल् नडन्द इन्द विडाय् तीरुगैक्कु
मॆल्ल वन्दु तान् कलक्क वेणुमॆन – नल्लवर्गळ्
मन्नु कडित्तानत्ते माल् इरुक्क माऱन् कण्डु
इन्निलैयैच् चॊन्नान् इरुन्दु

आऴ्वार् के दुःख को दूर करने के बारे में सोचते हुए सर्वेश्वरन तिरुक्कडित्तानम् में, जहाँ अनेक महनीय वैदिक निवास करते हैं, धीरे-धीरे आकर, आऴ्वार् का आनंद लेते हुए, कई रात और दिन ठहरे। इसे देखकर
आऴ्वार् स्थिर हो गए और दयालुता से [भगवान के] प्रकृति के बारे में बात की।

सतहत्तरवां पाशुरम – (इरुन्दवन्…) इस पाशुरम में, श्रीवरवरमुनि आऴ्वार् के पाशुरों का अनुसरण कर रहे हैं जिसमें आऴ्वार् कहते हैं कैसे भगवान आऴ्वार् के विचारों का अनुसरण कर रहे हैं और उनके साथ एकजुट हो रहे हैं, और दयापूर्वक इसे समझा रहे हैं।

इरुन्दवन् तान् वन्दु इङ्गिवर् ऎण्णम् ऎल्लाम्
तिरुन्द इवर् तम् तिऱत्ते सॆय्दु पॊरुन्दक्
कलन्दु इनियनाय् इरुक्कक् कण्ड सटकोपर्
कलन्द नॆऱि कट्टुरैत्तार् कण्डु

सर्वेश्वर, जो तिरुक्कडित्तानम् में उपस्थित थे, यहाँ पहुँचे [जहाँ आऴ्वार् हैं] और आऴ्वार् की सभी इच्छाओं को पूर्ण किया, अपनी दया दिखाई, और आऴ्वार् के साथ निर्बाध रूप से एकजुट हो गए। इस तरह के मिलन के बाद एम्पेरुमान कैसे आनंदित रहे, इसका वर्णन आऴ्वार् ने किया।

अठहत्तरवां पाशुरम – (कण्णिरैया…) इस पाशुरम् में, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी आऴ्वार् के पाशुरों का पालन कर रहे हैं जिसमें आत्मा के वास्तविक स्वरूप की महानता के रूप में भगवान द्वारा दिखाए जाने के बाद उनके द्वारा देखे जाने के बाद आऴ्वार् ने उसका वर्णन किया और दयापूर्वक इसे समझा रहे हैं।

कण् निऱैय वन्दु कलन्द माल् इक्कलवि
तण्णिलैया वेणुम् ऎनच् चिन्दित्तुत् – तण्णिदॆनुम्
आरुयिरिन् एट्रम् अदु काट्ट आय्न्दुरैत्तान्
कारिमाऱन् तन् करुत्तु

एम्पेरुमान, जो आऴ्वार् के साथ एक हुए, आऴ्वार् की आँखों को भरते हुए, इस मिलन को दृढ़ता से बनाए रखने के लिए सोचते हुए, दयापूर्वक प्यारे आत्मा की महानता को दिखाया जो सूक्ष्म रूप से जाना जाता है। आऴ्वार् ने उसका विश्लेषण किया और दयापूर्वक उन विचारों को कहा जो उनके दिव्य हृदय में थे।

उनहत्तरवें पाशुर – (करुमाल्…) इस पाशुर में, श्रीवरवरमुनी स्वामीजी आऴ्वार् के आत्मा के अन्यशेषत्व निवृति (भगवान के अलावा किसी के अधीन नहीं होना) के पाशुरों का पालन कर रहे हैं और दयापूर्वक इसे समझा रहे हैं।

करुमाल् तिऱत्तिल् ऒरु कन्निगैयाम् माऱन्
ऒरुमा कलवि उरैप्पाल् – तिरमाग
अन्नियरुक्कु आगादु अवन् तनक्के आगुम् उयिर्
इन्निलैयै ओर् नॆडिदा

आऴ्वार्, जिन्होंने कृष्ण के प्रति एक लड़की का भाव प्राप्त किया, अपनी सहेली के शब्दों के माध्यम से अद्वितीय, महान मिलन के प्रतीकों के बारे में दयापूर्वक बोलने लगीं। इसके साथ, वह गहराई से विश्लेषण करती हैं कि आत्मा केवल भगवान के अधीन है, आत्मा की दृढ़ दासता के रूप में, जो केवल उपयुक्त भगवान के लिए देखी जाती है और किसी और के लिए नहीं।

अस्सीवाँ पाशुरम् – (नॆडुमाल् …) इस पाशुरम् में, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी आऴ्वार् के भागवत शेषत्वम (भक्तों के प्रति अधीनता) के पाशुरों का अनुसरण कर रहे हैं, जो कि अनन्यार्ह शेषत्वम (भगवान के प्रति अनन्य अधीनता) की अंतिम स्थिति है और दयापूर्वक इसे समझा रहे हैं।

नॆडुमाल् अऴगु तनिल् नीळ् गुणत्तिल् ईडु
पडुमा निलै उडैय पत्तर्क्कु – अडिमै तनिल्
ऎल्लै निलम् तानाग ऎण्णिनान् माऱन् अदु
कॊल्लै निलमान निलै कोण्डु

आऴ्वार् की भागवतों के प्रति अधीनता थी, जिनमें सर्वेश्वरन की शारीरिक सुंदरता और दयालुता के महान गुण में संलग्न होने का महान गुण है। इतना ही नहीं, वे स्वयं को ऐसी अधीनता की अंतिम स्थिति मानते थे, क्योंकि भागवतों के प्रति ऐसी अधीनता ही अंतिम लक्ष्य है।

अडियेन् रोमेश चंदर रामानुज दासन

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