तिरुवाय्मोळि नूत्तन्दादि – सरल व्याख्या – पाशुरम  61 – 70

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः‌ श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्री वानाचलमहामुनये नमः

श्रृंखला

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इकसठवां पाशुरम्– (उण्णिल…) इस पाशुरम् में, श्रीवरवरमुनी स्वामीजी उग्र इंद्रियों से डरने वाले आऴ्वार् के पाशुरों का अनुसरण कर रहे हैं और इसे दयापूर्वक समझा रहे हैं।

उण्णिला ऐवरुडन् इरुत्ति इव्वुलगिल्
एण्णिला मायन् ऎनै नलिय ऎण्णुगिन्ऱान्
ऎन्ऱु निनैन्दु ओलमिट्ट इन् पुगऴ् सेर् माऱन् ऎन
कुन्ऱि विडुमे पवक् कन्गुल्

 मीठी महिमा वाले आऴ्वार्, यह सोचकर विलाप करते हैं कि सर्वेश्वर जिनकी असीमित अद्भुत लीलाएँ हैं, वे हमें पाँच इंद्रियों के साथ, जो हमारे शत्रु हैं और हमारे अंदर ही हैं, इस संसार में रहने के लिए विवश करते हैं, और मुझे पीड़ा देने की सोच रहे हैं। ऐसे आऴ्वार् के बारे में सोचने मात्र से संसार की अंधेरी रात मिट जाएगी।

बासठवां पाशुरम् – (कन्गुल्…) इस पाशुरम् में, श्रीवरवरमुनी स्वामीजी आऴ्वार् के दुःख में रोने के पाशुरों का पालन कर रहे हैं और दयापूर्वक इसे समझा रहे हैं।

कन्गुल् पगलरति कैविञ्जि मोगमुऱ
अङ्गदनैक् कण्डोर् अरङ्गरैप् पार्त्तु – इङ्गिवळ्पाल्
ऎन् सॆय नीर् ऎण्णुगिन्ऱदॆन्नुम् निलै सेर् माऱन्
अन्जॊलुऱ नॆञ्जु वॆळ्ळैयाम् 

पराङ्कुश नायिका रात और दिन में बढ़ते दु:ख के साथ मूर्छित हो गई। वहाँ उनकी स्थिति देखकर, पराङ्कुश नायिका की माँ की अवस्था में पहुँचे आऴ्वार् ने श्रीरंगनाथ से पूछा, “आप यहाँ उनके विषय में क्या करने की सोच रहे हैं?” जैसे-जैसे दिव्य वचनों का ध्यान होगा, हृदय [ध्यान करने वाले का] पवित्र हो जाएगा।

तिरसठवां पाशुरम् – (वॆळ्ळियनामम्….) इस पाशुरम् में, श्रीवरवरमुनि आऴ्वार् के उन पाशुरों का अनुसरण कर रहे हैं जब तॆन्तिरुप्पेर् में वे अपने हृदय खो चुके हैं, और दयापूर्वक समझा रहे हैं।

वॆळ्ळिय नामम् केट्टु विट्टगन्ऱ पिन् मोगम्
तॆळ्ळिय माल् तॆन्तिरुप्पेर् सेन्ऱु पुग – उळ्ळम् अङ्गे
पट्रि निन्ऱ तन्मै पगरुम् सठकोपाऱ्-कु
अट्रवर्गळ् ताम् आऴियार्

आऴ्वार् ने, माँ से भगवान के मधुर, दिव्य नामों को सुनकर जागृत होने पर, दयापूर्वक अपने दिव्य हृदय तिरुप्पेर्नगर् में दृढ़ता से ध्यान केंद्रित करने के बारे में बताया, जहाँ बुद्धिमान सर्वेश्वर दया से उपस्थित हैं, और वहाँ जाने और प्रवेश करने के लिए निकल पड़े। जो ऐसे आऴ्वार् के लिए अनन्यार्ह बन गए हैं, वे गहरे हृदय वाले हैं। 

चौसठवाँ पाशुरम्– (आऴि वण्णन्) इस पाशुरम में, श्रीवरवरमुनी स्वामीजी आऴ्वार् के पाशुरों का पालन कर रहे हैं और भगवान की विजय श्रृंखला के पासुरों को दयापूर्वक समझा रहे हैं।

आऴिवण्णन् तन् विसयम् आनवै मुट्रुम् काट्टि
वाऴ् इदनाल् एन्ऱु मगिऴ्न्दु निऱ्-क – ऊऴिल् अवै
तन्नै इन्ऱु पोल् कण्डु तान् उरैत्त माऱन् सॊल्
पन्नुवरे नल्लदु कऱ्-पार् ने

समुद्र के समान रंग वाले ऎम्पॆरुमान् ने अपनी जीत की श्रृंखला को पूरी तरह से प्रकट किया, आऴ्वार् से कहा “इनके साथ स्वयं को बनाए रखो” और आनंदित रहे। आऴ्वार्, ऐतिहासिक घटनाओं को देखने के बाद जैसे कि वे अब हो रहे हैं, दयापूर्वक ऐसे अनुभव की अभिव्यक्ति के पात्र के रूप में बोले। जो लोग ऐसे आऴ्वार् के दिव्य वचनों का पाठ करते हैं, उन्हें विशिष्ट शब्दों का पाठ करने वाला माना जाता है।

पैंसठवाँ पाशुर् – (कट्रोर्…) इस पाशुरम् में, श्रीवरवरमुनी स्वामीजी आऴ्वार् के वेदनापूर्ण पाशुरों का अनुसरण करते हुए सोच रहे हैं “क्यों लोगों को एम्पेरुमान के अवतारों के प्रति लगाव नहीं है जो उनकी जीत के कारण हैं?” और कृपा करके समझा रहा है।

कट्रोर् करुदुम् विसयङ्गळुक्कॆल्लाम्
पट्राम् विभव गुणप् पण्बुगळै – उट्रुणरन्दु
मण्णिल् उळ्ळोर् तम् इऴवै वाय्न्दुरैत्त माऱन् सॊल्
पण्णिल् इनिदान तमिऴ्प पा 

दशरथ, वसुदेव और अन्य जिन्होंने सभी शास्त्रों के सार को सीखा है, ने विभवावतार के गुणों की प्रकृति पर आधारित जीत की श्रृंखला के प्रति स्नेह दिखाया। आऴ्वार् ने इसका विश्लेषण किया और इसे जानते हुए दयालुता से एक उपयुक्त तरीके से समझाया किस प्रकार जग के निवासी भगवत अनुभव को खो रहे हैं। ऐसे आऴ्वार् के दिव्य शब्द जो ताल में अति मधुर लगते हैं, तमिऴ् के आध्यात्मिक साहित्य में महान हैं।

छियासठवां पाशुरम् – (पामरुवु…) इस पाशुरम् में, श्रीवरवरमुनी स्वामीजी आऴ्वार् के पाशुरम् का अनुसरण कर रहे हैं जिसमें भगवान को उनके गुणों के साथ पुकारा जाता है, और दयापूर्वक समझा रहे हैं। 

पामरुवु वेदम् पगरामल् गुणङ्गळुडन्
आमऴगु वेण्डर्पाडाम् अवट्रैत् – तूमनत्ताल्
नण्णियवनैक् काण नन्गुरुगिक् कूप्पिट्ट
अण्णलै नण्णार् एऴैयर् 

आऴ्वार्, शारीरिक रूप से उन तक पहुँचने और उन्हें देखने की इच्छा रखते हैं, जिन्हें यहाँ समझाया गया है, अच्छी तरह से पिघलते हुए, एम्पेरुमान के विनम्र, शुभ गुणों के साथ-साथ, जो सभी वेदों में प्रकट होते हैं, उनकी उत्तम सुंदरता और वर्चस्व को आऴ्वार् के शुद्ध हृदय से इस दृश्य प्राप्त कर और उनका आनंद लेने के बाद, “ओ” कहकर पुकारे। जो लोग ऐसे आऴ्वार्, स्वामी (भगवान) के पास नहीं जाते, वे गरीब/अज्ञानी हैं।

सड़सठवां पाशुरम् – (एऴैयर्गळ्…) इस पाशुरम् में, श्रीवरमुनि स्वामीजी आऴ्वार् के पाशुरम् का अनुसरण कर रहे हैं, जिसमें एम्पेरुमान के चेहरे की सुंदरता एक-केंद्रित तरीके से पीड़ा दे रही है और दयापूर्वक इसे समझा रहे हैं।

एऴैयर्गळ् नॆञ्जे इळगुविक्कुम् मालऴगु
सूऴ वन्दु तोन्ऱित् तुयर् विळैक्क – आऴुमनम्
तन्नुडने अव्वऴगैत् तान् उरैत्त माऱन्पाल्
मन्नुमवर तीविनै पोम् माय्न्दु

अपने हृदय के साथ एम्पेरुमान की चारों ओर से घेरी हुई और हर जगह देखी जाने वाली सुंदरता के कारण दुःख के सागर में डूबा हुआ था। आऴ्वार् ने ऐसी सुंदरता का आनंद लिया और दयापूर्वक एम्पेरुमान की ऐसी सुंदरता के बारे में बात की। जो लोग ऐसे आऴ्वार् से जुड़े रहते हैं, उनके पाप नष्ट हो जाते हैं। 

अड़सठवें पाशुरम् – (मायामल्…) इस पाशुरम् में, श्रीवरवरमुनी स्वामीजी भगवान द्वारा प्रकट किए गए विविध सार्वभौमिक रूपों का आनंद लेने के बाद विस्मय में आऴ्वार् के दिव्य पाशुरों का अनुसरण कर रहे हैं और इसे दयापूर्वक  समझा रहे हैं।

मायामल् तन्नै वैत्त वैसित्तिरियाले
तीया विसित्तिरमाच् चेर् पॊरुळोडायामल्
वाय्न्दु निऱ्-कुम् मायन् वळमुरैत्त माऱनै नाम्
एय्न्दुरैत्तु वाऴु नाळ् एन्ऱु 

आऴ्वार् के शेष स्वरूप को संरक्षित करते हुए, उनके दोषों के विश्लेषण किए बिना, सर्वेश्वरन, अपनी विविध स्थिति के साथ, सभी के साथ एकजुट हुए सभी क) आग से आरंभ होने वाले पाँच महान तत्वों के साथ, जिनके अलग-अलग प्रभाव  और इसलिए अलग-अलग रूप हैं और ख) चेतनाओं के साथ (भावनात्मक संस्थाएँ) जो विभिन्न रूपों में हैं, इन विविध रूपों के साथ। आऴ्वार् ने दयापूर्वक सर्वेश्वरन के सम्पदा की विशालता को बताया। हम कब उनके पास [आऴ्वार्] पहुँचेंगे और उनके दिव्य नामों का जाप करते हुए उनके साथ रहेंगे?

उनहत्तरवें पाशुरम् – (ऎन्ऱनै…) इस पाशुरम् में, श्रीवरवरमुनी स्वामीजी आऴ्वार के एम्पेरुमान में अंतर्लीन होने के पाशुरों का अनुसरण कर रहे हैं, आऴ्वार् से तिरुवाय्मॊऴि का गान कराने के उनके कृत्य के बारे में सोच रहे हैं और दयापूर्वक समझा रहे हैं।

ऎन्ऱनै नी इङ्गु वैत्तदु एदक्कॆन मालुम्
ऎन्ऱनक्कुम् ऎन् तमर्क्कुम इन्बमदाम् – नन्ऱु कवि
पाड ऎनक् कैम्माऱिलामै पगर माऱन्
पाडणैवार्क्कु उण्डाम् इन्बम् 

जैसा कि आऴ्वार् ने एम्पेरुमान से यह प्रश्न किया था “आपने मुझे इस संसार में, जो इस संसार में उपयुक्त नहीं है, क्यों रखा?” एम्पेरुमान ने उत्तर दिया “मुझे और मेरे भक्तों को आनंदित करने के लिए सुंदर कविताएँ गाने के लिए”। आऴ्वार् ने दयापूर्वक कहा कि भगवान द्वारा किए गए उपकार के बदले में देने के लिए उनके पास कुछ भी नहीं है। जो लोग ऐसे आऴ्वार् के पास पहुँचते हैं वे आनंदित हो जाते हैं।

सत्तरवां पाशुरम् – (इन्बक्कवि…) इस पासुरम् में, श्रीवरवरमुनी स्वामीजी तिरुवाय्मॊऴि गाकर सेवा करने की लालसा के आऴ्वार् के दिव्य पाशुरों का अनुसरण कर रहे हैं और इसे  दयापूर्वक समझा रहे हैं।

इन्बक् कवि पाडुवित्तोनै इंदिरैयोडु
अन्बु वाऴ् तिरुवाऱन्विळैयिल् तुन्बमऱक्
कण्डडिमै सेय्यक् करुदिय माऱन् कऴले
तिण्डिऱलोर् यावर्क्कुम देवु

आऴ्वार् ने एम्पेरुमान, जिन्होंने आऴ्वार् से मधुर तिरुवाय्मॊऴि गंवाया, पेरिय पिराट्टियार के साथ तिरुवाऱन्विळै में आनंदपूर्वक रहते हुए देखकर, अपने दुखों को दूर किया और वहाँ दिव्य दम्पति के लिए कैंङ्कर्य करने की इच्छा व्यक्त की। दृढ़ विश्वास रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिए ऐसे आऴ्वार् के दिव्य चरण ही एकमात्र परम प्रभु हैं।

अडियेन् रोमेश चंदर रामानुज दासन

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