श्री: श्रीमते शठकोपाय नम: श्रीमते रामानुजाय नम: श्रीमद्वरवरमुनये नम:
उपक्षेप
एक सच्चे शिष्य और अटल सेवक को दो विषयों की ज्ञान होनी चाहिए
१) उस्के लाभार्थ मात्र आचार्य ने कृपा से किये सारे विषय
२) भविष्य में आचार्य से मिलने वाली विषयों में दिलचस्पी
इन दोनों में से पहले विषय कि यह पासुरम विवरण हैं। मामुनि ,श्री रामानुज से मिले सारे लाभार्थ और उन्के मिलने कि कारण जो श्री रामानुज के कृपा हैं, दोनों का गुण-गान करतें हैं।
पासुरम ५५
तेन्नरंगर सीर अरुळुक्कु इलक्काग पेट्रोम
तिरुवरंगम तिरुपतिये इरूप्पाग पेट्रोम
मंनीय सीर मारनकलै उणवाग पेट्रोम
मदुरकवि सोरपड़िये निलैयाग पेट्रोम
मुन्नवराम नम कुरवर मोळिगळुळ्ळ पेट्रोम
मुळुदुम नमक्कवै पोळुदुपोक्काग पेट्रोम
पिन्नै ओन्ड्रु तनिल नेंजु पेरामरपेट्रोम
पिरर मिनुक्कम पोरामयिला पेरुमैयुम पेट्रोमे!
शब्दार्थ
इलक्काग पेट्रोम – ( हम) लक्ष्य बने
सीर अरुळुक्कु- निर्हेतुक कृपा
तेन्नरंगर – पेरिय पेरुमाळ (के) , जो शयन अवस्था में, दक्षिण दिशा में स्थित श्रीलंका को देख रहें हैं , कोयिल नामक रम्य जगह में हैं जहाँ वे अपने भक्तों को आशीर्वाद कर आकर्षित कर रहें हैं। ( अरुळ कोडुतिट्टू अडियवरै आठकोळवान अमरुम ऊर, पेरियाळ्वार तिरुमोळि ४.९.३)
इरूप्पाग पेट्रोम – (हमें) निरंतर निवासी बनने का श्रेयसी अवसर
तिरुवरंगम तिरुपतिये – “ तेन्नाडुम वडनाडुम तोळ निन्ड्र तिरुवरंगम तिरूप्पति ( पेरियाळवार तिरुमोळि ४.९.११), “आरामम सूळंद अरंगम (सिरिय तिरुमडल ७१)” , “ तलैयरंगम (इरंडाम तिरुवंदादि ७०)” से वर्णन किये गए श्रीरंगम। यहीं १०८ दिव्यदेशों में प्रधान है।
उणवाग पेट्रोम – खाने के रूप में (हम )पायें
कलै – अमृत जैसे पासुरम
मारन – नम्माळ्वार (के)
मंनीय सीर – परभक्ति जैसे शुभ गुणों से भरपूर
निलैयाग पेट्रोम – “ यतीन्द्रमेव नीरंद्रम हिशेवे दैवतंबरम” से प्रशंसा किये गए अंतिम स्थिति “चरम पर्व निष्टै” को हम पायें। “उन्नयोळिय ओरु देयवं मट्ररिया मन्नुपुगळ् सेर वडुगनम्बि तन्निलैयै (आर्ति प्रबंधं ११) जैसे पंक्तियों से हम इसके बारें में बात करने लगें।
सोरपड़िये – चरम पर्व निष्टै का यह भाव और उपाय (“आचार्य हि हैं सब कुछ ” जैसे मानना) लिया गया हैं
मदुरकवि – मदुरकवि आळ्वार (के शब्दों से ) जिन्होनें , “तेवु मट्ररियेन” (कण्णिनुन सिरुत्ताम्बु २) गाया था (उन्के नियमों का पालन करने का अवसर हमें मिला)
मुन्नवराम नम कुरवर मोळिगळुळ्ळ पेट्रोम – हमारें पूर्वजों के दिव्य ग्रंतों के सहारें हम जीतें हैं, उन्हीं के भल स्वास लेते हैं। आळ्वारों से दिखाए गए मार्ग में अपने जीवन बनाने वाले आचार्यों के ग्रंथ हैं ये।
मुळुदुम नमक्कवै पोळुदुपोक्काग पेट्रोम – हमारें पूर्वजों के इन ग्रंथों के सिवाय हमारा ध्यान किसी अन्य विषय में नहीं जाता। इन्हीं पर हम अपने सारा समय बिताते हैं।
पिन्नै नेंजु पेरामरपेट्रोम – इन्हीं विषयों में मग्न, हमारें हृदय और बुद्धि कभी पीछे न गयी
ओन्ड्रु तनिल – अन्य किसी ग्रंथों के
पिरर मिनुक्कम पोरामयिला – यहाँ कहें गए, श्री रामानुज के कृपा से मिली गुणों से बड्कर और भी एक हैं। ऐसे गुणों से भरपूर श्रीवैष्णवो के प्रति , “ इप्पडि इरुक्कुम श्रीवैषणवर्गळ येट्रम अरिंदु उगंदु इरुक्कयुम (मुमुक्षुपड़ि द्वय प्रकरणम ११६)” के अनुसार हमें ईर्ष्या नहीं होतीं हैं। श्री रामानुज के कृपा से हमें मिलने वालि श्रेयस यह हैं।
पेरुमैयुम पेट्रोमे! – यह हमें मिला ! कितनी भाग्य कि विषय है जो श्री रामानुज के निर्हेतुक कृपा के हम पात्र बने।
सरल अनुवाद
इस पासुरम में मामुनि के कृपा का प्रशंसा करतें हैं। उनका मानना है की श्री रामानुज के निर्हेतुक कृपा के कारण ही उन्हें (मामुनि को) तोडा भी अच्छे गुण प्राप्त हुए। पहलें उन्हें और उन्के संबंधित जनों को पेरिय पेरुमाळ का आशीर्वाद मिला, और १०८ दिव्यदेशों में सर्वश्रेष्ठ क्षेत्र श्रीरंगम में वास करने का भाग्य मिला, दिन और रात नम्माळ्वार के दिव्य ग्रंथों को ही खाने, पीने और स्वास के समान लेने का अवसर मिला। मदुरकवि के चरम पर्व निष्टै“आचार्य हि हैं सब कुछ ” जैसे मानना) धर्म के अनुसार जीने का भाग्य मिला। आळ्वारो के मार्ग अपनाने वाले आचार्यों के ग्रंथो के अनुसार जीये। वें श्रीवैष्णव ग्रंथों के अलावा किसी भी ओर नहीं गए और अपना जीवन इनके सहारें बिताते हैं। और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इन गुणों से भरे श्रीवैष्णव को मिलने पर तोडा सा भी ईर्ष्या नहीं होतीं, बल्कि अत्यंत ख़ुशी होतीं हैं। मामुनि कहतें हैं कि यह परम भाग्य श्री रामानुज के असीमित निर्हेतुक कृपा के कारण ही उन्हें प्राप्त हुआ।
स्पष्टीकरण
मामुनि कहतें हैं कि, “ शयन अवस्ता में दक्षिण दिशा में स्थित लँका के ओर अपने दिव्य मुख दिखाकर, अति रम्यमय कोयिल नामक श्रीरंगम (जहाँ पेरुमाळ अपने अनुग्रह और आशीर्वाद से लोगों को आकर्षक करतें हैं) के पेरिय पेरुमाळ के निर्हेतुक कृपा के पात्र बने : “अरुळ कोडुत्तिटटु अडियवरै आठकोळवान अमरुम ऊर (पेरियाळ्वार तिरुमोळि ४.९.३) . “तेन्नाडुम वडनाडुम तोळ निंर तिरुवरंगम तिरुप्पति (पेरियाळ्वार तिरुमोळि ४.९.११)” , “आरामम सूळंद अरंगम (सिरिय तिरुमडल ७१)” , “ तलैयरंगम (इरंडाम तिरुवन्दादि ७०)” से चित्रित श्रीरंगम में हमें नित्य वासी बन्ने का अध्बुध अवसर मिला। यहीं १०८ दिव्यदेशों में सर्वश्रेष्ठ है। भगवान् को माला और हमें अमृत समान (परभक्ति इत्यादि कल्याण गुणों से भरपूर) नम्माळ्वार के पासुरम हमारें भोजन हैं। “यतीन्द्रमेव नीरन्द्रम हिशेवे दैवतम्बरम” से वर्णित “चरम पर्व निष्टै” स्थिति को हम प्राप्त किये। “उन्नैयोळिय ओरु देयवं मट्ररिया मन्नुपुगळ सेर वडुगनम्बि तन्निलैयै (आर्ति प्रबंधं ११)” जैसे विषयों को हम आपस मे बातचीत करने लगें। यह धर्म हमें मदुरकवि के दिव्य शब्दों से ही मिला: “तेवु मट्ररियेन(कण्णिनुन सिरुत्ताम्बु २)” . मदुरकवि के श्रेयस को हम “अवरगळै चिरित्तिरुप्पार ओरुवर उंडिरे” (श्री वचन भूषणम ४०९) से जान सकतें हैं , जिसका अर्थ है : बाकि १० आळ्वारों पर मदुरकवि हॅसते हैं क्योंकि, जहाँ बाकि १० आळ्वार पेरुमाळ को सीधे उन्हीं के द्वारा पहुँचते हैं, मदुरकवि को नम्माळ्वार के अलावा कुछ नहीं पता है) . हमें हमारे पूर्वजों के ग्रंथों और दिव्य अर्थों के भल ही जीना है , साँस लेना है। ये पूर्वज, आळ्वारों से दिखाये गए मार्ग में चलने वाले आचार्य हैं। इन्हीं ग्रंथों के विचार में हम अपना समय बिताते हैं और इन्से हमारा बुद्धि कहीं और नहीं जाता हैं। हमारे आचार्यों के ही ग्रंथों में मग्न होने के कारण हमारे हृदय और बुद्धि किसी और के सिद्धांतों में नहीं जाता ।
यह सारें नेक गुण एम्पेरुमानार के कृपा से ही हम पायें। इन्हीं गुणों से भर्पूर बड़ी कठिनाई से कोई और श्रीवैष्णव से मिलने पर भी, उन्के प्रति तोड़ी सी ईर्ष्या भी हम में नहीं होतीं हैं। इसको मुमुक्षपडी के द्वयप्रकरणम (११६ वे सूत्र) में, “ इप्पडि इरुक्कुं श्रीवैष्णवरगळ येट्रम अरिंदु उगंदु इरुक्कयुम ( मुमुक्षपडी द्वयप्रकरणम ११६)” कहा गया हैं। और यह श्रेयस श्री रामानुज के कृपा से ही हमें प्राप्त हुआ है। आह! श्री रामानुज के निर्हेतुक कृपा के कारण, यह हमें कैसा सौभाग्य से यह मिला हैं।
अडियेन प्रीती रामानुज दासी
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