आर्ति प्रबंधं – ४५

श्री:  श्रीमते शठकोपाय नम:  श्रीमते रामानुजाय नम:  श्रीमद्वरवरमुनये नम:

आर्ति प्रबंधं

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उपक्षेप

पिछले पासुरम में, मामुनि सर्वव्यापी श्रीमन नारायण की  “माकांत नारणनार वैगुम वगै” से श्रेय गाए। वें उस पासुरम के “मोहान्तक” से चित्रित किये गए सबसे नीच जीव खुद को मान्ते हैं। यहीं इस पासुरम का सारांश हैं जहाँ वें खुद को,, श्रीमन नारायण को न पहचान पाने के कारण ,केवल अंधकार और अकेलापन महसूस करने वाले लोगों में सबसे नीचे स्थान में रख़ते हैं।  मामुनि का मानना हैं कि उन्हें श्रीमन नारायण की सर्वव्यापित्व की और उनके संग उपस्थित निरंतर संबंध की ज्ञान नहीं हैं। इसी अज्ञान के कारण वें मोहान्तको में से एक बन गये। किन्तु इन विषयों के पश्चात भी मामुनि अपने ह्रदय को याद दिलातें हैं कि आचार्य संबंध के कारण ही उन्नति पाए। यही इस पासुरम का सारांश है।  

पासुरम ४५

नारायणन तिरुमाल नारम नाम एन्नुम मुरै

आरायिल नेंजे अनादि अंरो सीरारुम

आचार्यनाले अंरो नाम उयंददु एन्ड्रु

कूसामल एप्पोलुदुम कूरु

शब्दार्थ

 

नेंजे – हे मेरे ह्रदय

नारायणन तिरुमाल –  जैसे “ तिरुमाले नानुम उनक्कु पळवडियेन” से चित्रित किया गया है, श्रीय:पति श्रीमन नारायणन ही सामूहिक शब्द “नारम” से पहचाने जाने वाले सारे आत्माओं के अधिकारी और स्वामी हैं।  

नारम नाम – हम आत्मायें सब नित्य हैं

आरायिल – अगर यह साबित करना है

एन्नुम मुरै –  (श्रीमन नारायण और जीवात्मा के बीच) वह नित्य संबंध

अनादि अंरो – यह कोई नया संबंध है क्या ? नहीं।  क्या यह सत्य नहीं कि यह नित्य हैं ? ( हाँ यह सत्य है)

(हे मेरे ह्रदय!!!)

सीरारुम – जो हमें यह संबंध दिखाकर उसे दृढ़ बनाके और खुद ज्ञान जैसे कल्याण गुणों से भरे व्यक्ति

आचार्यनाले अंरो – आचार्यन हैं, है न ?

नाम उयंददु एन्ड्रु – हमारी मुक्ति कि कारण वें ही हैं

(हे मेरे ह्रदय)

कूरु – कृपया इस बात को दोहराते रहो

एप्पोलुदुम – सदा

कूसामल – बिना कोई लज्जा के

 

सरल अनुवाद

मामुनि, इस पासुरम में ,श्रीमन नारायण और जीवात्मा के संबंध को दृढ़ करने वाले आचार्यन के महत्त्व प्रस्तुत करतें हैं। और वें कहतें हैं कि इस दृढ़ संबंध के पहले वें अचित वस्तु समान थे।  अत: वे अपने ह्रदय को यह बात प्रकट करने को प्रेरणा देते है कि, उन्कि उन्नति केवल आचार्य कृपा के कारण ही हुयी है।

सपष्टीकरण :

मामुनि कहतें हैं, “हे! मेरे प्रिय ह्रदय! पेरियाळ्वार नें कहाँ था, “तिरुमाले नानुम उनक्कु पळवडियेन (तिरुप्पल्लाण्डु ११)”. वें श्री कि दिव्य पति, श्रीय:पति श्रीमन नारायण हैं।  हम (जीवात्मायें) “नारम” कहलातें हैं। श्रीमन नारायण और जीवात्मा के बीच का संबंध नित्य और निरंतर है। अगर सोचा जाए , तो हम समझेंगें कि यह कोई आधुनिक संबंध नहीं हैं न हैं यह कोई अचानक सृष्टि , क्योंकी यह अनादि और नित्य हैं।  किंतु हमें (मामुनि और उन्के ह्रदय को) यह एहसास न हुआ और इस विषय से अज्ञानी रहें। और अचित वस्तु के समान इस संबंध को समझने कि योग्यता न थी। लेकिन हमारें आचार्य के समझाने पर यह स्थिति बदला और इस संबंध की और उस्की महत्त्व की ज्ञान हुई। आचार्य ज्ञान और अन्य कल्याण गुणों से भरपूर हैं। आचार्यन ही हमारी उन्नति के कारण हैं। (तिरुवाय्मोळि ३.५.१०) के “पेरुमैयुम नाणुम तविर्न्दु पिदट्रूमिन” के प्रकार कृपया इस्को हर जगह प्रकट करें जिस्से सारे लोग यह जान सकें। यह विषय को प्रमेय सारम १० , “इरैयुम उयिरुम” पासुरम में वर्णन किया गया हैं।  

अडियेन प्रीती रामानुज दासी

आधार :  http://divyaprabandham.koyil.org/index.php/2017/03/arththi-prabandham-45/

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