श्री:
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद्वरवर मुनये नमः
श्लोक ४
पार्श्वतः पाणिपद्माभ्यां परिगृह भवत्प्रियौ ।
विन्यस्यन्तं शनैरड़घ्रि मृदुलौ मेदिनीतलै ॥ ४ ॥
शब्दार्थ
पार्श्वतः – दोनों तरफ
पाणिपद्माभ्यां – कमल की तरह हाथ
परीगृह – पकड़ना
भवत – वरवरमुनी स्वामीजी के बारे में
प्रियौ – कोइल अण्णन और उनके भाई की तरह योग्य आचार्य
विन्यस्यन्तं – नीचे रखना
शनै – धीरे–धीरे
अंघ्रि – चरण
मृदुलौ – नाजुक
मेदिनीतलै – इस पृथ्वी में
इस श्लोक में देवराज स्वामीजी वरवरमुनी स्वामीजी की बढ़ाई करते हुये कहते है । श्रीवरवरमुनी स्वामीजी तीन कारणों से विशेष है, यह जानकर की आचार्य ही प्रमुख है, आचार्य ही एक मात्र साधन है और आचार्य के दास बनकर उनकी सेवा करना । इसलिये आचार्य कोइल अण्णन ( वरद नारायण गुरु ) और उनके भाई श्रीनिवास गुरु वरवरमुनी स्वामीजी के अत्यन्त प्रिय हो गये । शुद्धता और सौन्दर्य के कारण उनके हाथ कमल की तरह है । परिग्रह याने प्रेम , अत्यन्त प्रेम के साथ वरवरमुनी स्वामीजी उनको पकड़ते है । इसका अर्थ है वे ऐसा नहीं सोचते है कि मै बढ़ा हूँ, मेरे शिष्य छोटे है, उनके औदार्य गुणों के कारण वे सब लोगों को पकड़ते है ।
यहाँ पर प्रश्न उठता है कि अगर वे अपने हाथों से अपने शिष्यों को पकड़े हुये है तो त्रिदण्ड को कैसे पकड़ेगें ? और सन्यासियों के लिये त्रिदण्ड का होना नियम है । श्री पांचरात्र तत्वसागर संहिता के अनुसार सन्यासी के साथ त्रिदण्ड रहना चाहीये, जो कि विष्णु का प्रतीक है । विष्णु स्मृति में कहा गया है कि एक सन्यासी को अपने अंतिम समय तक यज्ञोपवीत, त्रिदण्ड, जलपवित्रम, शिखा और कौपीन को धारण करना चाहीये । कुछ विशेष संदर्भ में और समय में पूर्ण रूप ज्ञान अनुष्ठान पूर्ण सन्यासी त्रिदण्ड धारण नहीं करते है तो गलती नहीं है । क्रतु के वचनानुसार जो सन्यासी पूर्ण रूप से ज्ञान अनुष्ठान करता हो, इच्छाओं का अभाव हो, पूरी तरह से जिज्ञासा हो, दुनिया को नियंत्रित करने कि शक्ति हो ऐसे सन्यासी त्रिदण्ड नहीं लिये तो भी चलता है । मंदिर में साष्ठांग करते वक्त दोनों हाथ जमीन पर रखकर प्रणाम किया जाता है उस समय त्रिदण्ड को धारण नहीं कर सकते है । इसलिये मंदिर जाते समय त्रिदण्ड धारण नहीं करना योग्य है । दोनों हाथों से हाथ जोड़ते समय भी त्रिदण्ड को धारण नहीं कर सकते है । ऐसे एक सन्यासी को त्रिदण्ड धारण करना नियम है परन्तु मंदिर में साष्ठांग करते वक्त त्रिदण्ड धारण नहीं करने के लिये छूट भी है ।
यहाँ पर भूमितले के बजाय मेदिनीतले को बताया गया है जब भगवान विष्णु मधुकैटभ राक्षस का ध्वंस किया तब उनका मांस भूमि को स्पर्श किया जिससे भूमि को मेधीनी कहा गया है । भूमि जिस कारण से अपवित्र हुयी थी, वरवरमुनि स्वामीजी के चरण स्पर्श से भूमि पवित्र हो गयी । श्री विष्णुचित्त स्वामीजी अपने पेरियालवार तिरुमोली ( ४.४.६ ) प्रबन्ध में कहते है, भागवतों के चरण स्पर्श से यह भूमि पहिले कि तरह पवित्र हो गयी है ।
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