यतिराज विंशति – श्लोक – १०

श्रीः
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद् वरवरमुनय् नमः

यतिराज विंशति     

श्लोक ९                                                                                                                           श्लोक  ११

श्लोक  १०

हा हन्त हन्त मनसा क्रियया च वाचा योऽहं चरमि सततं त्रिविधापचारान् |
सोऽहं तवाप्रियकर: प्रियकृद्वदेवं कालं नयामि यतिराज! ततोऽस्मि मूर्ख: | १० |

यतिराज! य: सततं              : है यतिराज! जो (मैं) हमेशा
मानसा वाचा क्रियया च       : मन, वाक्, शरीर तीनों करणों से
त्रिविध-अपचारान्               : तीन तरह के अपचारों को
चरामि स: अहं                    : कर रहा हूँ वह मैं
तव अप्रियकर:                   : आपका अप्रिय कराते हुए
एवं कालं नयामि                : ऐसे समय बिता रहा हूँ
प्रियकृद्वत्                       : मानों आपके प्रिय ही को करने
तत: मूर्ख: अस्मि               : वाला हूँ इसलिये मैं मूर्ख हूँ
हा हन्त हन्त                     : हाय हाय! कैसी वंचना है!

स्वामिन् श्रीरामानुज! यध्यपि मन, वाक्, काय तीनों करण आपकी सेवा में लगाने ही के लिए बनाये गये हैं, तथापि अभागा मैं उनसे भगवदपचार, भागवतापचार एवं असह्यापचार तीन तरह के अपचारों को कराते हुए जीता था| आपके हृदय को दु:ख पहुँचाते हुए यध्यपि मैं रहता था, फिर भी मैं ऐसा ढोंगी बन कर समय बिताता था, मानो आपकी प्रीति के कारण ही काम कर रहा हूँ| यह था मेरी मूर्खता|

त्रिविधपचारान् तीन प्रकार के अपचारों में;

भगवदपचार – सर्वेश्वर को भी देवतान्तरों के समान मानना, रामकृष्ण आदि अवतारों को यह समझना की वे भी हमारे जैसे मनुष्य ही हैं, अर्चावतार में मूर्ति के उपादान द्रव्य का विचार करना आदि|

 भागवतापचार – अहंकार से तथा अर्थ और काम से प्रेरित होकर श्रीवैष्णवों के प्रति किये जाने वाले अपराध|

 असह्यापचार – पूर्वोक्त प्रकार से अर्थ कामों से प्रेरित न होकर, हिरण्यकशिपु की तरह भागवद्विषय एवं आचार्यापचार भी असह्यापचार कहलाता है || १० ||

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