श्रीः
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद् वरवरमुनय् नमः
श्लोक १२
अन्तर्बहि: सकलवस्तुषु संन्तमीशं अन् : पुर: स्थितमिवाहमवीक्षमाण: |
कन्दर्पवश्यहृदय: सततं भवामि हन्त त्वदग्रगमनस्य यतीन्द्र नार्ह: || १२ ||
यतीन्द्र सकलवस्तुषु : रामानुज! सब वस्तुओं में
अन्त: बहि: : भीतर और बाहर
सन्तम् ईशं : व्याप्त करके स्थित भगवान को
अन्ध: पुर: स्थितम् इव : जैसे एक अन्धा अपने सामने की वस्तु को नहीं देख सकता वैसे
अवीक्षमाण: : अहं सततं नहीं देख कर, मैं हमेशा
कन्दर्पवश्यहृदय: : काम के अधीन हो कर
भवामि हन्त : रहता हूँ | हाय !
त्वदग्र गमनस्य न अर्ह:: तुम्हारे सामने आने तक के लिये मैं योग्य नहीं |
पिछले श्लोक में ‘अघं कुर्वे’ | अगर कोई पूछे कि जब सर्वेश्वर सब स्थानों में व्याप्त होकर तुम्हारे कर्म देख रहा है, तुम उससे छिप कर कैसे पाप कर सकते हो, इसका उत्तर इस श्लोक से देते हैं| मैंने तो ईश्वर को नहीं देखा है, तुम कहते हो कि सब वस्तुओं में भीतर और बाहर व्याप्त है| यदि अंधा अपने सामने वाली वस्तु को नहीं देख पाता तो इसमें आश्चर्य का क्या विषय है? मैं उस अन्धे की तरह ही हूँ|
ईशमवीक्षमाण: कन्दर्पवश्यहृदय: सततं भवामि – ईश्वर को आँखों से देखता तो क्या उसी में मुग्ध हो कर नहीं रहता? उसका दर्शन न होने से ही मैं मनमाना काम कर रहा हूँ और क्षुद्र विषयों का यह दर्शन और भाग तो हमेशा करता रहता हूँ| ऐसा नहीं कि किसी एक समय पर ही, किन्तु ‘सततं’ सर्वदा ही|
त्वदग्रगमनस्य नार्ह: – मैं ऐसा पापी हूँ कि आपके सामने खड़े होने योग्य भी नहीं| जब यह मेरी योग्यता है, तब आपसे पास कैसे आ सकूँगा? || १२ ||
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