यतिराज विंशति – श्लोक – १३

श्रीः
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद् वरवरमुनय् नमः

यतिराज विंशति

श्लोक  १२                                                                                                            श्लोक  १४

श्लोक  १३

तापत्रयीजनित दु:खनिपातिनोऽपि देहस्थितौ मम रूचिस्तु न तन्नीवृत्तौ |
एतस्य कारणमहो मम पापमेव नाथ त्वमेव हर तध्यतिराज शीघ्रम् | १३ |

यतिराज!                                          : रामानुज
तापत्रयीजनित दु:खनि पातिन: अपि   : तापत्रयों से जनित दु:खों में गिर कर भोगने पर भी
मम रूचि: तु                                     : मेरी इच्छा तो
देहस्थितौ                                         : इस शरीर की रक्षा में ही है
तत् निवृत्तौ न                                  : उसको दूर करने में नहीं
एतस्य कारणं मम पापम् एव              : उसको कारण मेरा पाप ही है
अहो नाथ                                         : हाय, मेरे रक्षक स्वामिन्!
तत् त्वम् एव                                    : उस पाप को आप ही
शीघ्रं हर                                           : बहुत जल्दी दूर कीजिए

यध्यपि सब वस्तुओं के भीतर व बाहर रहने वाले ईश्वर को तुम देख नहीं पाये, आँखों से दीख पड़ने वाली नफरत करने लायक वस्तुओं के दोषों को तो ठीक ठीक देखते हो| उन्हें देखते हो तो क्या उन्हें त्यागने की इच्छा नहीं होती? इस प्रश्न के उत्तर में कहते हैम – मेरी दशा ऐसी है कि दु:खों को भी मैं सुख समझता हूँ| इसका कारण मेरे प्रबल पाप ही हैं| उन्हें आप ही को दूर करना चाहिए|

तापत्रयी तीन प्रकार के पाप, पहला आध्यात्मिक ताप जो हाथ-पावँ आदि शरीर के अंगों से उत्पन्न होता हैं, शरीर तथा मानस भेद से वह दो तरह का है| शरीर ताप व्याधि कहलाता है और मानस ताप आधि| इस प्रकार आधि-व्याधि ही आध्यात्मिक ताप हैं |

पशु पक्षी मनुष्याध्यै: पिशाचोरग राक्षसै: | सरीसृपाध्यैश्र्च नृणां जायते चाधिभौतिक: ||”

अर्थात् जानवर और चिड़िया, मनुष्य और पिशाच, उरग और राक्षस तथा साँप आदि जीवों से मनुष्यों को जो ताप उत्पन्न होता है वह आधिभौतिक कहलाता है |

शीत वातोष्ण वर्षाम्बू वैध्युतादिसमुद्भव: | तापो द्विजवरश्रे ष्ठै: कथ्यते चाधिदैविकः ||

अर्थात् ठण्ड और गरमी, वायु और वर्षा और बिजली आदि से उत्पन्न होने वाले ताप ही श्रेष्ठों से आधिदैविक कहे जाते हैं| ये तीन स्वयं दु:ख रूप और असह्य हैं|

 जब शरीर इतने दु:खों का कारण है, मुझे उसके नाश की प्रतीक्षा में रहना चाहिए| किन्तु मेरी रूचि इसी में है कि यह कैसे और भी चिरस्थायी होगी| इसलिए प्रार्थना कराते हैं कि इसमें अरूचि उत्पन्न करके इसे दूर करने का उपाय करना आप ही का काम है || १३ ||

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