स्तोत्र रत्नम – श्लोक 41 से 50 – सरल व्याख्या

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

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<< 31 – 40

श्लोक 41 – इस श्लोक में स्वामी आळवन्दार् एम्पेरुमान् और पेरिय तिरुवडी (गरुडाऴ्वार्) की समक्षता का आनंद ले रहें हैं; गरुडाऴ्वार् जो कई प्रकार के कैंङ्कर्य में लगे रहते हैं जैसे भगवान् का ध्वज इत्यादि और जो एक परिपक्व फल के तरह हमेशा एम्पेरुमान् प्रिय हैं |

दासस्सखा वाहनमासनं ध्वजो
यस्ते वितानं व्यजनं त्रयीमयय: |
उपस्थितं तेन पुरो गरुत्मता
त्वदङ्घिसम्मर्दकिणाङ्क शोभिना ||

वे गरुडाऴ्वार् जिनके अंग चतुर्वेद हैं, जो तुम्हारे सेवक, मित्र, वाहन, सिंहासन, ध्वज, छतरी और चामर हैं, जो तुम्हारे दिव्य चरण के दबाव के चिन्ह के कारण चमक रहे हैं, ऐसे गरुडाऴ्वार् तुम्हारे दिव्य उपस्थिति में तुम्हारी पूजा कर रहे हैं |

श्लोक 42 – इस श्लोक में स्वामी आळवन्दार् श्री सेनापति आऴ्वान् (विश्वक्सेन) के दास्य साम्राज्य का आनंद ले रहे हैं जहाँ एम्पेरुमान् अपने सारे उत्तरदायित्व और स्वयं अपने आप को भी विश्वक्सेन के नियंत्रण में डाल देते हैं |

त्वदीय भुक्तोज्झित शेषभोजिना
त्वया निसृष्टात्मभरेण यद्यथा |
प्रियेण सेनापतिना न्यवेदि तत्
तथाऽनुजानन्तमुदारवीक्षणैः ||

विश्वक्सेन आपके (एम्पेरुमान् के) अवशेष (भोजन के) का उपभोग करते हैं, आपसे (नित्य विभूति (आध्यात्मिक क्षेत्र) और लीला विभूति (लौकिक क्षेत्र) दोनों का प्रबंधन करने की) उत्तरदायित्व लेते हैं; वे जो सबको प्रिय हैं, आपके नेत्रों की एक झलक से, सभी कार्यों को उचित रूप से करने का अनुमोदन लेते हैं और उन सभी कार्यों को अच्छी तरह से करने में समर्थ भी हैं |

श्लोक 43 – स्वामी आळवन्दार्, नित्यसूरी, भगवान के प्रति सेवा भाव से जो कैंकर्य करते हैं, उसका आनंद लेते हैं , जैसे विष्णु सूक्त में कहा गया है, “सदा पश्यन्ति सूरय:” (नित्यसूरी हमेशा एम्पेरुमान् देखते रहते हैं) इत्यादि| उनकी प्रार्थना तिरुवाय्मोऴि २.३.१० के समान है जिसमें कहा गया है, “अडियार्गळ् कुऴाङ्गळै उड़न् कूडुवदु एन्ऱु कोलो” (कब मैं नित्यसूरियों के समूह में रहूँगा ?)

हताखिल क्लेशमलै: स्वभावत:
सदानुकूल्यैकरसैस्तवोचितै: |
गृहीततत्तत्परिचार साधनै:
निषेव्यमाणं सचिवैर्यथोचितम् ||

*त्वदानुकूल्यैक भी पठन किया जाता है |

हे वह (एम्पेरुमान्) जो सभी नित्यसूरियों द्वारा पूजे जाते हैं! नित्यसूरी जो सभी पीड़ा और दोष से रहित हैं, जो हमेशा स्वाभाविक कैंङ्कर्य में आनंदमय लगे रहते हैं [आपके कैंङ्कर्य में], जो स्वभाव और क्षमताओं में आपके बराबर हो, पुष्प माला को हाथ में पकडे, धूप, दीप आदि जो कैंङ्कर्य के लिए आवश्यक हैं, और जो स्वयं आपको उचित संबंध और कार्यों के बारे में समझाते हैं, आपके प्रति कैंङ्कर्य में लगे रहते हैं और आपके स्वरूप के अनुसार आपकी पूजा करते रहते हैं…

श्लोक 44 – जिस प्रकार अयोध्या काण्ड में लक्ष्मण कहते हैं, “भवांस्तु सह वैदेह्या गिरि सानुषु रंस्यते” (आप सीता के साथ पहाड़ की तलहटी में आनंद लीजिये, मैं सभी विधाओं में आपकी सेवा करूंगा), स्वामी आळवन्दार् भी चाहते हैं की वे पिराट्टी को अनेक प्रकार से संतुष्ट करते हुए एम्पेरुमान् को देखकर, आनंद ले |

अपूर्व नानारसभाव निर्भर
प्रबद्धया मुग्ध विदग्धलीलया |
क्षणाणुवत् क्षिप्तपरादिकालया
प्रहर्षयन्तं महिषीं महाभुजम् ||

एम्पेरुमान्, पेरिय पिराट्टी को कई प्रकार के खेल-कूद और कार्यकलाप से संतुष्ट करते हैं, जो मनमोहक और निपुण हो , जिससे पिराट्टी को ब्रह्मा की एक जीवन काल भी एक क्षण की तरह लगे, कई मनचाहे अवस्थायें जो नवीनतापूर्वक (हर क्षण) हो और उनके विशाल बाहें हैं (जो पेरिय पिराट्टी को आलिंगन करने उचित हैं)|

श्लोक 45 – आळवन्दार् , एम्पेरुमान् के कई दिव्य रूप और गुणों का आनंद ले रहे हैं, जो मनचाहे विषयों का निवास स्थान है और जो पिराट्टी को आनंद देता है |

अचिन्त्य दिव्याद्भुतनित्ययौवन
स्वभावलावण्यमयामृतोदधिम् |
श्रिय: श्रियं जनैक जीवितमं
समर्थमापत्सखंमर्थिकल्पकम् ||

एम्पेरुमान् में अकल्पनीय, दिव्य /आध्यात्मिक, विलक्षण , शाश्वत यौवन स्वाभाविक रूप से है, प्रभूत सुंदरता का महासागर होते हुए, श्री (महालक्ष्मी) के श्री (संपत्ति) हैं, अपने भक्तों के प्राण हैं, [कम समझदार व्यक्ति को भी प्रगतिशील रूप में स्वयं को अनुभव करवाने में] सक्षम हैं, आवश्यक समय में एक मित्र और जिज्ञासुओं के लिए एक कल्पक वृक्ष (इच्छा पूर्ति करने वाला वृक्ष) की तरह हैं |

श्लोक 46 – आळवन्दार् कहते हैं, “मैं कब इन सांसारिक विषयों में आसक्ति को छोड़कर, आपके खुशी के लिए आपका कैंङ्कर्य करके, मेरे जीवन की उद्देश्य का पालन करूँगा, आपके महामहिम के प्रति, जो पहले बताये गए स्वरूप (स्वभाव), रूप, गुण और विभूति (संपत्ति, ऐश्वर्य, शासन) से पूर्ण हैं [३२ श्लोक से लेकर पिछले श्लोक तक समझाये गये]?

भवन्तमेवानुचरन् निरन्तरं
प्रशान्त निश्शेषमनोरथान्तर: |
कदाऽहमैकान्तिक नित्यकिङ्कर:
प्रहर्षयिष्यामि सनाथ जीवित: ||

अपने सारे अवशेष सहित बंधन से विमुक्त होकर और केवल आपका निरंतर अनुसरण करते हुए, [आपके] नित्य कैंङ्कर्य में होकर और इसी उद्देश्य से जीकर, मैं कब आपको प्रसन्न कर सकता हूँ?

श्लोक 47 – इस श्लोक में, आळवन्दार् प्राप्य ईश्वर के विलक्षण स्वरुप को देखते हैं, स्वयं अपने पूर्व स्तिथि को देखते हैं और सोचते हैं, “कैसे मैं, एक संसारी (सांसारिक व्यक्ति) उस कैंङ्कर्य की अभिलाषा कर सकता हूँ जो ब्रह्मा और रुद्र के विचार से भी दूर की बात है और उन नित्यसूरियों द्वारा कामना की जाती है, जो भौतिक आशाओं से अप्रभावित हैं ? कैसे राजसी भोजन विष से अशुद्ध हो सकता है!” और स्वयं की निंदा करते हैं जैसे नम्माऴ्वार् “वऴवेऴुल्गु” में स्वयं अपनी निंदा करते हैं|

धिगशुचिमविनीतं निर्दयं मामलज्जं
परम पुरुष!योऽहं योगीवर्याग्रगण्यै: |
विधिशिव सनकाद्यैर्ध्यातुमत्यंत दूरं
तव परिजनभावं कामये कामवृत्त: ||

हे पुरुषोत्तम! मैं, जो अपने मनचाहे ढंग से कार्य करने में प्रसिद्ध हूँ, स्वयं अपनी निंदा करनी चाहिए, अशुद्ध होते हुए , बिना सुधारे, निर्दय और निर्लज्ज, फिर भी आपकी कैंङ्कर्य में इच्छुक हूँ, जो ब्रह्मा, शिव और सनक जैसे श्रेष्ठ योगियों के लिए भी अप्राप्य है |

श्लोक 48 – इस श्लोक में आळवन्दार्, एम्पेरुमान् से विनती करते हैं कि वे दयापूर्वक, उनके सारे पापों को हटाएँ और उनको स्वीकार करें| पर्याय व्याख्या – आळवन्दार् एम्पेरुमान् से प्रार्थना करते हैं, “हे प्रभु! आप मेरे सारे पाप को नाश करें जो आपको प्राप्त करने की मेरी उद्देश्य में विलंब करे|” पहले स्वामी आळवन्दार्, एम्पेरुमान् की महानता को देखकर , उनसे दूर रहे; अब एम्पेरुमान् की सौलभ्यता को देखकर एम्पेरुमान् के समीप आ रहें हैं |

अपराध सहस्रभाजनं
पतितं भीमभवार्णवोदरे |
अगतिं शरणागतं हरे !
कृपया केवलमात्मसात् कुरु ||

हे मेरे रक्षक जो शोक को हटाते हैं! मैं अनगिनत पापों का निवास स्थान हूँ; मैं इस भयानक सांसारिक सागर (भौतिक क्षेत्र) में गिर चुका हूँ; मेरा और कोई आश्रय नहीं है और मैं तुम्हारे प्रति समर्पित होने की घोषणा करता हूँ; केवल तुम्हारी कृपा से, तुम मुझे स्वीकार करो|

श्लोक 49 – एम्पेरुमान् आळवन्दार् से पूछते हैं, “जब तुम्हारे पास अनगिनत और अपार कमियाँ हैं, तो कई प्रकार के उपायों के माध्यम से उन कमियों को दूर करने के बदले या सभी उपायों को छोड़कर मुझे पकड़ने के बदले, तुम मुझसे बलपूर्वक क्यों कहते हो “कृपया केवलमात्मसात् कुरु?” (केवल आपकी कृपा के कारण, मुझे अपनाइए)। आळवन्दार् उत्तर देते हैं, “मुझे कोई शास्त्रीयानुष्ठान (शास्त्रों में कहा गया अभ्यास/साधन) करने का ज्ञान नहीं है [अर्थात उपायांतर में कोई व्यस्तता नहीं है]; मेरा और कोई आश्रय नहीं होने के नाते , मैं पूरी तरह से त्याग नहीं सकता| इसलिए केवल आपकी उस विशेष कटाक्ष ही मेरे उज्जीवन का एकमात्र उपाय है |”

अविवेक घनान्त दिङ्मुखे
बहुधा सन्तत दु:खवर्षिणि |
भगवन् ! भवदुर्दिने पद:
स्खलितं मामवलोकयाच्युत ||

हे भगवान जो ज्ञान, शक्ति इत्यादि [६ प्रधान लक्षण] से भरपूर हो! वे जो अपने भक्तों को कभी न छोड़ते! मैं वर्षा ऋतु की अन्धकार जैसे संसार के कारण नैतिक पथ से गिर रहा हूँ , जहाँ सभी दिशाएँ बादलों की अन्धकार में आवृत हैं और कई प्रकार के शोक निरंतर बरसते हैं; मुझे तुम्हारी कृपालु कटाक्ष से आशीर्वाद दें |

श्लोक 50 – आळवन्दार् कहते हैं, “जैसे मुझे तुम्हारी कृपा के सिवा और कोई आश्रय नहीं है, उसी प्रकार तुम्हारी कृपा को भी मेरे सिवा और कोई बेहतर ग्रहीता नहीं है; इसलिए इस अवसर को मत छोड़ना|”

न मृषा परमार्थमेव मे
श्रुणु विज्ञापनमेकमग्रत: |
यदि मे न दयिष्यसे ततो
दयनीयस्तव नाथ दुर्लभ: ||

हे मेरे भगवान्! पहले मेरे निवेदन को दयापूर्वक सुनिए; (यह निवेदन) असत्य नहीं है; यह सत्य ही है; अगर आप मेरे ऊपर कृपा न करे तो मुझे खोने के बाद आपको और कोई भी नहीं मिलेगा जो आपकी दया का पात्र बनने का मुझसे भी अधिक योग्य हो|

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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