सप्त गाथा – पासुरम् ६

श्री: श्रीमते शठकोप नम: श्रीमते रामानुजाय नम: श्रीमद् वरवर मुनये नम:

शृंखला

<<सप्त गाथा – पासुरम् ५

परिचय

विळाञ्जोलैप् पिळ्ळै अवलोकन कर रहे हैं  कि पेरिय पेरुमाळ् दयापूर्वक कह ​​रहे हैं, “यद्यपि संसारियों (सांसारिक जन) के बीच विद्यमान हैं जो पूर्णत: इन चार दृष्टिकोण में व्यस्त हैं (आचार्य के प्रति प्रेम नहीं रखते, स्वयं से सीखने वालों को शिष्य मानते हैं, स्वयं को आचार्य मानते हैं और  श्रीवैष्णवों का उनके जन्मानुसार विश्लेषण करते हैं), आप दूसरों को इस तरह से निर्देश देने की स्थिति से बच गए हैं,” और (पेरिय पेरुमाळ्) श्री रङ्गनाथ भगवान से प्रार्थना करते हुए कह रहे हैं “जबकि मैं समझ गया हूँ कि ये प्रत्यक्ष रूप से अपराध का कारण बनेंगे, अधीश्वर को दयापूर्वक मेरे आंतरिक दोषों को समाप्त करना चाहिए जो कि मेरे ज्ञान को मेरे मन की गहराइयों से नष्ट करेंगे, पिळ्ळै लोकाचार्य को करुणामयी दृष्टि से देखकर जिन्होंने मुझे अज्ञात ज्ञान प्रदान किया है, (एम्पेरुमानार्) श्री रामानुजाचार्य जो अधीश्वर और  अधीश्वर के ‘महान कृपा’ के प्रिय हैं।”

पासुरम्

अऴुक्केन्ऱु इवै अऱिन्देन् अम्बोन् अरङ्गा
ओऴित्तरुळाय् उळ्ळिल् विनैयै पऴिप्पिला
एन् आरियार्क्काग एम्पेरुमानार्क्काग
उन् आररुट्काग उटृ

शब्द से-शब्द अर्थ

अम् – सुंदर
पोन् – वांछनीय
अरङ्गा- हे !वह जो सदैव श्रीरंगम जैसे महान शहर में निवास करता है!
इवै – ये सभी पहले वर्णित पहलू (आत्मा के लिए) दृष्टिकोण
अऴुक्कु एन्ऱु – अपमान का कारण बने रहना
अऱिन्देन्- मैं स्पष्ट रूप से जानता हूँ (इस प्रकार)
पऴिप्पिला- पहले बताए गए दोषों में से कोई भी नहीं
एन् आरियार्क्काग- पिळ्ळै लोकाचार्य के लिए जिन्होंने दयापूर्वक मुझ अज्ञानी को ज्ञान प्रदान किया,
एम्पेरुमानार्क्कागा – एम्पेरुमानार के लिए जो पिळ्ळै लोकाचार्य के महान स्वामी हैं
उन् – स्वामी
आर् अरुत्काग- अतिशय दया
उटृ- दयापूर्वक स्वीकार करें (अडियेन्)
उळ्ळिल् – मन को वश में करें जो ज्ञान के संचरण का द्वार है
विनैयै – पापों का समूह
ओऴित्तु अरुळाय् – दयापूर्वक उन्हें उनके अवशेष सहित बाहर निकाल देना चाहिए

सरल व्याख्या

हे श्रीरङ्गम् के सुंदर, आकर्षक, महान नगर में सदैव निवास करने वाले! मैं स्पष्ट रूप से जान गया हूँ कि ये सभी पहले बताए गए दृष्टिकोण आत्मा के लिए तिरस्कार का कारण बन रहे हैं; पिळ्ळै लोकाचार्य के लिए, जिनमें उपर्लिखित कोई भी दोष नहीं है और जिन्होंने मुझ अज्ञानी को दयापूर्वक ज्ञान प्रदान किया, और एम्पेरुमानार् के लिए, जो पिळ्ळै लोकाचार्य के महान स्वामी हैं और अधीश्वर की अपार दया है, अधीश्वर को दयापूर्वक मुझे स्वीकार करना चाहिए, करुणापूर्वक पापों के समूह को उनके अवशेषों सहित बाहर निकालना चाहिए, जिसने मेरे बुद्धि को बद्ध किया है जो ज्ञान के संचरण का द्वार है।

व्याख्यानम् (टिप्पणी)

अऴुक्कॆन्ऱु… – इवै – अऴुक्कॆन्ऱु अऱिन्देन्मैंने बिना किसी संदेह या भ्रम के स्पष्ट रूप से समझ लिया है, दूसरों को यह समझाने में सक्षम होने के लिए कि पहले बताए गए सभी दृष्टिकोण प्रत्यक्ष रूप से आत्मा को तिरस्कृत करेंगे जो कि प्रकाश का एक स्रोत है, निम्नलिखित की सहायता से कथन:

  • “नारायणोपि विकृतिम याति गुरो: प्रच्युतस्य दुर्बुद्धे: । कमलं जलादभेदम् शोषयति रविर् न तोषयति ||” (सूर्य जल से अलग हुए कमल को मुरझा देगा, खिला नहीं पाएगा; इसी प्रकार, उस दुर्बुद्धि वाले व्यक्ति के लिए जिसने आचार्य के साथ अपना संबंध विच्छेद कर लिया है, श्रीमन्नारायण भी मुख मोड़ लेंगे।
  • अरुळाळप् पॆरुमाळ् एम्पेरुमानार् के दिव्य शब्द ज्ञान सारम् ३५ “ऎन्ऱुम् अनैत्तुयिऱ्-कुम् ईरम् सॆय् नारणनुम अन्ऱुम् तन् आरियन् पाल् अन्बॊऴियिल” (जबकि नारायण जो प्रत्येक क्षण सभी के प्रति सबसे दयालु हैं, जब कोई अपने आचार्य के प्रति श्रद्धा नहीं रखता है) आदि।
  • श्रीवचनभूषणम्-३०८   –  में पिळ्ळै लोकाचार्य के दिव्य वचन “तान् हितोपदेशम् पण्णुम्बोदु तन्नैयुं शिष्यनैयुं पलत्तैयुं माऱाडि निनैक्कै क्रूर निषिद्धम् ” (उत्तम विषयों को शिक्षा देते समय स्वयं, शिष्य और परिणाम के बारे में गलत सोचना अत्यधिक वर्जित है), श्रीवचनभूषणम् सूत्रम् १९४- “भागवत अपचारन्धान् अनेक विधम् ” (भागवतों के प्रति की गई गलतियाँ/अपराध कई प्रकार के होते हैं), श्रीवचनभूषणम् सूत्रम् १९५ “अदिले ऒन्ऱु अवर्गळ् पक्कल् जन्म निरूपणम्” (उनके जन्म के आधार पर उनका आकलन करना उनमें से एक है)
  • “अर्चावतारोपादान वैष्णवोत्पत्ति चिंतनम् ​​| मातृयोनि परीक्षायास् तुल्यमाहुर् मनीषिण:” विद्वानों के अनुसार, अर्चा विग्रह की मूल सामग्री विश्लेषण करना और किसी वैष्णव का उसके जन्म के आधार पर निर्णय करना, किसी की माँ के प्रजनन अंग का विश्लेषण करने के बराबर माना जाता है)।

यह ध्यान में रखते हुए कि इन पहलुओं के दोषों की विशालता को समझाना मुश्किल होगा, विळाञ्जोलैप् पिळ्ळै परिणाम में संलग्न हैं।

अम्बॊन् अरङ्गा – मुझे यह ज्ञान प्राप्त करने का कारण क्या आप राजाधिराज की कड़ी मेहनत नहीं है, जो सुंदर, मन को प्रसन्न करने वाले और पवित्र करने वाले श्रीरंगम के महान नगर में रहकर की है?

अम्बॊन् अरङ्गा – मेरे द्वारा यह ज्ञान प्राप्त करने के बाद ही, जैसा कि तिरुवाय्मोऴि १.१.१ में कहा गया है “तुयरऱु सुडरडि” (दिव्य चरण जो दूसरों और भगवान के दुःख को दूर करते हैं), आपकी सुंदरता और मनोहर स्वभाव ने महानता प्राप्त कर ली । यद्यपि इस प्रबंध को करुणापूर्वक प्रस्तुत करते समय विळाञ्जोलैप् पिळ्ळै तिरुवनंतपुरम में थे, परन्तु अविभूत दृश्य से ऐसा प्रतीत होता है कि पेरिय पेरुमाळ् स्वयं को विळाञ्जोलैप् पिळ्ळै के सामने प्रस्तुत कर रहे हैं ताकि वे “अरंगा” कहा जा सके।

अम्बॊन् अरङ्गा ऒऴित्तु अरुळाय् उळ्ळिल् विनैयै – आपके महा अधीश्वर की पवित्र करने वाली प्रकृति और आपके राजाधिराज के प्रति समर्पित हुए मेरी अपवित्रता के बीच क्या संबंध है जो जैसा कि “अग्निसिन्चेत्” (अग्नि गीला कर रही है) में कहा गया है? क्या तत्त्व दर्शियों (जिन्होंने सत्य देखा है) के शब्द पेरिय तिरुवाय्मोऴि ११.३.५ के अनुसार “तम्मैये नाळुम् वणङ्गित् तॊऴुवार्क्कुत् तम्मैये ऒक्क अरुळ् सॆय्वर्” (उन लोगों के लिए जो विशेष रूप से उनकी पूजा करते हैं, एम्पेरुमान् उन्हें अपने समान महानता का आशीर्वाद देंगे), मेरे लिए उपयुक्त नहीं है? जैसे कि नाचियार् तिरुमोऴि ११.१० में कहा गया है “सॆम्मै उडैय तिरुवरङ्गर् ताम् पणित्त मॆय्म्मैप् पॆरुवार्त्तै” (ईमानदारी का दिव्य गुण रखने वाले तिरुवरङ्गनाथन ने पहले दयालुतापूर्वक सत्य और सबसे अमूल्य शब्द उद्धृत किए जिन्हें चरम श्लोक (परम गाथा) के रूप में जाना जाता है), महामहिम ने श्री भगवत् गीता १८.६६ में कहा था “सर्व पापेभ्यो मोक्षयिष्यामि” (मैं आपके सभीको पापों से मुक्त कर दूंगा) अर्जुन को, जो कि उनका भक्त है, नाम के कारण के रूप में, दयापूर्वक रथ पर बैठाया गया है जैसा कि मुमुक्षुप्पडि २१८ में कहा गया “कैयुम् उऴवु कोलुम् पिडित्त सिऱुवाय्क् कयिऱुमान सारथ्य वेषत्तोडे” (वे सारथी के रूप में अपना रूप दिखाते हैं, एक हाथ में छोटा चाबुक, दूसरे में (घोड़ा) पट्टा, युद्ध के मैदान की धूल के साथ दिव्य केश, और धरती पर दृढ़ता से रखे हुए दिव्य चरण)। क्या ये शब्द अपने अर्थ से जुड़े हुए नहीं हैं? चूँकि श्रीरामायणम् बालकण्डम् ५८.१९ में राजाधिराज ने कहा है “अनृतम् नोक्त पूर्वम् मे” (मैंने पहले कभी झूठ नहीं बोला है) और महाभारत उद्योग पर्व ७०.४८ “न मे मोघं वचो भवेत् “ (मेरे शब्द कभी विफल नहीं होते), झूठ बोलने में राजाधिराज का कोई सहभागिता नहीं है।

ऒऴित्तु अरुळाय् – जबकि आप किसी के समक्ष उपस्थित होकर उनके अनुरोध न किए जाने पर भी उन्हें आशीर्वाद देंगे, क्या आप मेरे अनुरोध के बाद भी विरक्त रह सकते हैं? 

अरङ्गा ऒऴित्तु अरुळाय्– इस प्रकार एक किसान फसलों की रक्षा के लिए खेत में रहता है, उसी प्रकार राजाधिराज का हमारी रक्षा करने का स्वभाव है, अवतारों के विपरीत जो अस्तित्व की अवधि के बाद चले जाते हैं, इस श्रीरंगम में सदा के लिए विराजमान हैं- क्या यह आपकी की कृपा के लिए उपयुक्त है?

अरुळाय्– क्या आप जो अत्यंत दयालु हैं, के लिए वह करना उचित है जो निर्दयी व्यक्तियों द्वारा किया जाता है?

उळ्ळिल् विनैयाय्– ये मन/हृदय पर विद्यमान रहते हैं जो ज्ञान का प्रवेश द्वार है, जैसा कि तिरुवाय्मोऴि १.१.२ में कहा गया है “मननगमलम्” (मस्तिष्क के अंदर की गंदगी) जैसे कोई व्यक्ति किसी की कण्ठ दबा रहा हो।

उळ्ळिल् विनैयै – आप राजाधिराज के लिए जो हृदय में दृढ़ता से रहते हैं जैसा कि तिरुमालै ३४ में कहा गया है “उळ्ळत्ते उऱैयुम् मालै” (हृदय में रहने वाले विष्णु) और अस्तित्व की रक्षा करते हैं, क्या हृदय में पापों को समाप्त करना कठिन है?

ऒऴित्तु अरुळाय् उळ्ळिल् विनैयै -कृपया मेरे पापों को बाहर निकाल दें जो मेरे साथ बंधे हैं जैसे कि काई पूरे साफ पानी में फैल जाते हैं।

जब पूछा गया कि “आप विवशतापूर्ण नीर् (आप, तमिऴ मेंऒऴित्तरुळाय्’ क्यों कह रहे हैं?” विळाञ्जोलैप् पिळ्ळै कहते हैं

पऴिप्पिला ……….– मैं उन लोगों पर निर्भर हूँ जो आपके महाराजाधिराज और आपकी दया के प्रति समर्पित हैं और ये शब्द कह रहे हैं।

पऴिप्पिला ऎन् आरियर्क्काग– पिळ्ळै लोकाचार्य के लिए जिनमें पहले बताए गए दोषों में से कोई भी नहीं है, और अपने निर्देशों के साथ, उन्होंने मेरे जैसे अज्ञानी को घोषणा की, कि ये अच्छे नहीं हैं। वह यह इंगित करने के लिए “पऴिप्पिला” (त्रुटिहीन) कह रहे हैं कि ये दोष आरंभ से ही नहीं थे (अपने आचार्य में), इसलिए उन दोषों का कभी प्रत्यक्ष होकर बाद में चले जाने का प्रश्न ही नहीं उठता।

ऎन् आरियन्– जैसा कि “गुरुम्वायोपि मन्यते ” (गुरु का ध्यान करना) में कहा गया है, आचार्य की स्वीकृति नहीं जो कि केवल नाम के लिए है।

क्या यह बस इतना ही है?

एम्पेरुमानारुक्काग– इसके अतिरिक्त, एम्पेरुमानार् के लिए जो पिळ्ळै लोकाचार्य के परम स्वामी हैं, जो आपके अधीश्वर को बहुत प्रिय हैं, जो आचार्य पदम् (आचार्य का आसन) के परम चरण हैं और जिन्होंने सभी को परम अर्थ प्रदान किए हैं।

क्या यह बस इतना ही है?

उन् आर् अरुट्काग– इसके अतिरिक्त, कृपा गुण (दया का गुण) के लिए, जो आपकी अधीश्वर की विशेष पहचान है, जो आपके अन्य गुणों में महानता लाने से नहीं रुक रहा है, और अपनी सीमाओं को तोड़ी हुई काविरी नदी की तरह मेरी ओर बढ़ रहा है। सुरक्षा के विषय में अधीश्वर की कृपा आप अधीश्वर से भी अधिक है। विरोधी (बाधाओं) में भय के कारण, उन बाधाओं को दूर करने का आग्रह, और यह विचार करते हुए कि यदि भगवान को उनके निकटतम विश्वासपात्रों के माध्यम से संपर्क किया जाए, तो परिणाम जल्दी पूरा होगा, विळाञ्जोलैप् पिळ्ळै इस प्रकार कह रहे हैं।

उट्रु– जैसा कि वरवरमुनि शतकम्-७ में कहा गया है “गुरुवरम् वरदम् विधन्मे” (यह जानते हुए कि वरद नारायण गुरु (कोयिल अण्णन्) मेरे आचार्य हैं, आपको मुझे आशीर्वाद देना चाहिए) और वरदराज स्तवम् १०२ “रामानुजांघ्रि शरणोस्मि ” (मैं श्री रामानुजाचार्य के दिव्य चरणों में समर्पित हूँ), स्तोत्र रत्नम् ६५ “पितामहम् नाथमुनिम् विलोक्य” (मेरे दादाजी श्रीमन् नाथमुनि को देखकर) और तिरुवाय्मोऴि १.४.७ “ऎन् पिऴैत्ताळ् तिरुवडियिन् तगविनुक्कु” (मेरी पुत्री ने कौन सी त्रुटि की है, जो आप अधीश्वर की दया से माफ नहीं की जा सकती), आप इन विभूतियों के लिए भी दया करके मुझे स्वीकार करें और मेरे अन्दर के पापों को नष्ट करें। अन्यथा, अधीश्वर के आश्रित पारतन्त्र्यम् (अपने भक्तों के अधीन होना) और कृपा पारतन्त्र्यम् (आपकी दया के अधीन होना) खो जाएँगे। आप मुझ पर दया करने में तभी विलम्ब कर सकते हैं जब आप मेरे प्रयासों को देखकर ऐसा करें (क्योंकि आप अपनी दया के आधार पर मेरी सहायता कर रहे हैं, इसलिए विलम्ब का कोई कारण नहीं है)।

इस प्रकार, इस पासुरम् के द्वारा, विळाञ्जोलैप् पिळ्ळै दयापूर्वक उन विशेष अर्थों की व्याख्या करते हैं जो श्रीवचनभूषणम् निर्हेतुक कृपा प्रभाव प्रकरणम् में सूत्रम् ३७४ “पेट्रुक्कडि कृपै” (फल का कारण भगवान की दया है) आदि और श्रीवचनभूषणम् सूत्रम् ४०३ “कृपै पॆरुगप् पुक्काल् इरुवर् स्वातन्तर्यत्तालुम् तगैयवॊण्णादपडि इरु करैयुम् अऴियप् पॆरुगुम्” (जब भगवान की कृपा बहती है, तो वह चेतन और ईश्वर दोनों की स्वतंत्रता से नहीं रोकी जा सकती, जैसे कि एक बाढ़ वाली नदी दोनों ओर के किनारों को तोड़ देती है) में समझाए गए हैं।

हम अगले पासुरम् को अगले लेख में देखेंगे।

अडियेन् अमिता रामानुजदासी 

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