श्री:
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद्वरवर मुनये नमः
श्लोक ३०
ततश्चेतस्समधाय पुरुषे पुष्करेक्षणे ।
उत्तंसितकरद्वन्द्वमुपविष्टमुपह्वरे ॥३०॥
शब्दार्थ –
ततः – प्रसाद ग्रहण करने के पश्चात,
पुष्करे एक्षणे – परमपुरुष कमलनयन श्री कृष्ण भगवान को,
चेतः समाधाय – एक चित्त/ दृध होकर,
उत्तम्सित करद्वन्दम् यदा तदा – अपने दोने हाथों को सर के उपर रखकर नमस्कार करते हुए,
उपह्वरे – एकान्त जगह मे,
उपविष्टम् – (पूजा करते हुए) मणवाळमहामुनि जो पद्मासन जैसे योगासन मे बैठे है ।
भावार्थ (टिप्पणि) –
अनुयाग (भोजन) के पश्चात, शास्त्र कहता है – परमात्मा का ध्यान करना चाहिये । इस श्लोक मे यही बताया जा रहा है । जैसे भगवदाराधन तीन बार किया जाता है उसी प्रकार योगाभ्यास भी तीन बार किया जाता है और आगे इसी को बताया गया है । योग माने एक चित्त होकर, बिना हस्तक्षेप के, अपने हृदय मे परमात्मा के दिव्यमंगलस्वरूप का ध्यान करना । भगवान परमात्मा के रूप मे सर्व योनियों जैसे मनुष्य, स्वर्ग के देवगण, पशु, पक्षि इत्यादि मे व्याप्त है । इसी को हम श्री भगवान विष्णु की प्रत्येक विषयवस्तु मे सर्वव्यापकता कहते है । इसी विषय मे श्री पराशरमुनि कहते है – योगाभ्यास करने वालों को अपने हृदय मे परमात्मास्वरूपी अर्चाभगवान का ध्यान करना चाहिये । तैत्त्रियोपनिषद कहता है – ये वही भगवान है जिनका दिव्यमंगल-परमात्मा-स्वरूप हृदय के बींच मे विराजमान है और वही सूर्यग्रहमण्डल के मध्यस्थ भाग मे विराजमान है । छान्दोग्य उपनिषद कहता है – (वह) जो सूर्यमण्डल मे निवास करता है वह कमलनयन है । अतः “पुरुषे पुष्करेक्षणे” शब्द का अर्थ है – वही कमलनयन भगवान जो श्रीमणवाळमहामुनि जैसे योगियों के हृदय मे निवास कर रहे है । “पुरिचेते” शब्द की व्युत्पत्ति का अर्थ यह है – (वह) दिव्यमंगल आनन्दमय अर्चारूपी भगवान जो योगियों के हृदय मे बसे है । “पुरुष” माने भगवान विष्णु जो परमपुरुष है । योग का मूल शब्द है – “युजि समाधौ” माने समाधि – “एक चित्त होकर भगवान का ध्यान करना” ।
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