पूर्वदिनचर्या – श्लोक – १८

श्री:
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद्वरवर मुनये नमः

परिचय

श्लोक  १७                                                                                                               श्लोक  १९

श्लोक  १८

ततस्तत्सन्निधिस्तम्भमूलभूतलभूषणम् ।
प्राड्ःमुखं सुखमासिनं प्रसादमधुरस्मितम् ॥ १८ ॥

तत                                                      –  अरगंनगरप्प के तिरुवाराधन समाप्ति के पश्च्यात ,
ततस्तत्सन्निधिस्तम्भमूलभूतलभूषणम्    सन्निधि के स्तम्भों के नजदीक बैठकर उस स्थान को अलंकृत करना,
प्राड्ःमुखं                                                पूर्वाभिमुख होकर विराजमान है ,
सुख                                                    –  उपयुक्त रूप से ( शांतमन का प्रतिक )
आसीनम                                               वरवरमुनि स्वामीजी जो विराजमान है ,
प्रसाद मधुरस्मितम्                              –  साफ मन से बाहर निकली हुई सौम्य मुस्कुराहट के साथ ।

पहले श्लोक में बताये अनुसार तिरुवाराधान समापन करके स्वामीजी द्वयानुसन्धान में निरत रहते है, जो की दैनिक अनुष्ठान का एक भाग है । पराशर मुनि कहते है दिन में तीन बार तिरुवाराधान के पश्च्यात द्वय मंत्र जिसे मंत्र रत्न भी कहा जाता है उसका १००८ बार या १०८ बार संभव नहीं है तो कम से कम २८ बार जरूर करना चाहिये । वरवरमुनि स्वामीजी इस मंत्र का अनुसन्धान करते समय श्रीरामानुज स्वामीजी के श्रीचरणारविन्दों का ध्यान करते है ।

श्री वरवरमुनि स्वामीजी का मन निर्मल और स्पष्ट रूप से प्रफुल्लित है और मुखारविन्द अत्यन्त सुन्दर और सौम्य मुस्कुराहट के साथ संयुक्त है । शास्त्र कहता है कोई भी सत्कार्य करते समय पूर्वाभिमुख या उतराभिमुख होकर करना चाहिये । इसलिये देवराज स्वामीजी “ प्राड्ःमुखं सुखमासिनं ” कहते है ।

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