Author Archives: preeti madhusudhan

तिरुवाय्मोळि – सरल व्याख्या – ३.३ ओळिविल

Published by:

श्री: श्रीमते शटकोपाय नम: श्रीमते रामानुजाय नम: श्रीमत वरवरमुनये नम:

कोयिल तिरुवाय्मोळि

<< २.१० – किळरोळि

srinivasan -ahzwar

एम्पेरुमान से आळ्वार प्रार्थना करते हुए कहतें हैं, “देवरीर(आप) के प्रति किए जाने वाले कैंकर्य में बाधा स्वरूप इस शरीर को मिटाने की कृपा करें”। आळ्वार को एम्पेरुमान अनुग्रह करतें हुए कहतें हैं, “देवरीर(आप) के इसी शरीर के संग कैंकर्य स्वीकार करने हेतु ही हम उत्तर तिरुमलै में दर्शन उपकार कर रहें हैं। अत: आप हमें यहीं अनुभव करें”। इस से अत्यंत प्रसन्न हुए आळ्वार, एम्पेरुमान से निरंतर कैंकर्य अनुग्रह करने की प्रार्थना करतें हैं।  

पहला पासुरं : यहाँ आळ्वार अपने सम्बन्धियों के संग, सर्वोत्तम प्रभु तिरुवेंगडमुडैयान (तिरुपति बालाजी) के प्रति सभी प्रकार के कैंकर्य प्रदान करने की प्रार्थना करतें हैं।  

ओळिविल कालम एल्लाम उडनाय मन्नी
वळिविला अडिमै सेय्य वेंडुं नाम
तेळिकुरल अरुवित्तिरुवेंगडत्तु
एळिल्कोळ सोदि
एंदै तंदै तंदैक्के 

अत्यंत कोलाहल के संग बहने वाली धाराएं, तिरुवेंगडम में हैं। ऐसे रम्य तिरुमलै (दिव्य गिरी) में निवसित, हमारे कुल के स्वामी, प्रकाशमान, तेजस्वी एवं दिव्य स्वरूप के हैं, जिनके प्रति हमें निरंतर, सर्वत्र, सर्व प्रकार एवं सर्व गति में संग, सभी कैंकर्य करनी चाहिए।  

दूसरा पासुरं : आळ्वार, इस प्रकार, स्वामियों में सर्वश्रेष्ठ/सर्वोत्तम स्वामी के गुण एवं दिव्य स्वरूप के वैभवों की विवरण करतें हैं।  

एंदै तंदै तंदै तंदै तंदैक्कुम 
मुंदै वानवर वानवर कोनोडुम 
सिन्दुपू मगिळुम तिरुवेंगडत्तु 
अंदमिल पुगळ कार एळिल अण्णल 

परंपरा में हमारे प्रमुख बंधू एम्पेरुमान हैं। परमपद वासियों के नेता सेनै मुदलियार के संग सभी नित्यसूरियों के पूजनीय हैं। इनके द्वारा पूजा मे बरसाएं हुए फूल भी तिरुमला दिव्य गिरी के सम्बन्ध से खिल उठतें हैं। श्यामवर्ण मे असीमित वैभवशाली एम्पेरुमान तिरुमला मे विराजमान हैं।  

तीसरा पासुरं : ऐसे सौंदर्य और दिव्य रूपों एवं गुणों वाले एम्पेरुमान नित्यसूरियों द्वारा पूजनीय हैं।  

अण्णल मायन अणि कोल् सेंदामरैक्क
कण्णन सेंगनि वाइक्करुमाणिक्कम 
तेंणिरै चुनै नीर तिरुवेंगडत्तु
एंणिल तोल पुगळ् वानवर ईसने 

एम्पेरुमान सर्वोत्तम स्वामी होने के लक्षण अपने दिव्य रूप मे विभिन्न गुणों के संग दर्शा रहें हैं। पुंडरीकाक्ष ( जिनके सुंदर नेत्र कमल के फूल समान हो ), लाल फल जैसे होंठ ( सौंदर्य से जीता जा सके जीवों के आनंद एवं आश्वासन हेतु ), नीलेरत्न (मणि) जैसा तेजस्वी और सौंदर्यपूर्ण दिव्य रूप (जो एम्पेरुमान के सौंदर्य मे मुग्ध हों, उन्हें अनुभव प्रदान करने हेतु) इत्यादि से यह महसूस हो जाता है कि अत्याश्चर्यपूर्वक कल्याण गुणों और सम्पत्तियों वाले यह स्वामी सर्वोत्तम हैं। ये निष्कलंक और प्रकाशित झरनों वाले दिव्य गिरि (तिरुमला) में खड़े हैं और अगणित प्राचीन वैभवों के और परमपद वासियों के स्वामी हैं।  

चौथा पासुरं : यहाँ आळ्वार विचार करतें हैं कि, “एम्पेरुमान के अत्यंत सौलभ्यता (जिस गुण से मुझ जैसे नीच को भी उन्होंने अपना लिए) की तुलना मे नित्यसूरियों के पूजनीय होना भी कोई गौरव की बात हैं क्या ?” 

ईसन वानवर्कु एन्बन् एन् राल अदु
देसमो तिरुवेंगडत्तानुक्कु
नीसनेन निरै ओन् रुम
इलेन एन् कन्
पासम वैत्त
परंजुडर च्चोदिक्के

नित्यसूरियों के स्वामी बुला सकता हूँ!  किंतु ऐसे बुलाने से, नीच एवं अच्छे गुणों से रहित मुझ पर भी अत्यंत प्रेम दिखाने वाले परम तेजस्वी तिरुवेंगड़त्तान का क्या यश होगा ? (जो ऐसी सरलता/सादगी दर्शाते हुए तिरुमला मे स्थिर एवं प्रकाशमान हैं) 

पाँचवा पासुरं : “क्या सौलभ्यता मे ही वें सीमित हैं ? “आळ्वार विचार करतें हैं कि एम्पेरुमान, जो सरल होने के बावजूद अत्यंत प्रीतिमय भी हों, उन्हें सर्वेश्वर कह पुकारने पर क्या उनका गौरव बढ़ता है ? 

सोदियागि एल्ला उलगुम तोळुं 
आदि मूर्ति एन् राल अळवागुमो 
वेदियर मुळु वेदत्तमुदत्तै 
तीदिल सीर तिरुवेंगडत्तानैये

तिरुवेंगडमुडैयान (तैत्तिरिय उपनिषद् मे “आनन्दो ब्रह्मा” एवं “रसो वै स:” बताये जाने वाले) ऐसे अत्यंत सुखदायक एवं विशेष गुणों वाले स्वामी हैं। ऐसे वैदिकों द्वारा सभी वेदों मे दर्शाया गया है। उनकी मधुरता कभी भी जीवों की योग्यता पर आधारित या उससे सीमित नहीं है। वें सबको सुखमय अनुभव प्रदान करतें हैं और दीप्तिमान हैं। क्या सभी का मूल कारण होने के कारण सभी के पूजनीय होना बड़ी बात है ? आळ्वार विचार करते हुए इस पासुरं मे दर्शा रहें हैं की तिरुवेंगडमुडैयान के मधुरता एवं सरलता जैसे गुणों की तुलना मे उनका सर्व रक्षक और सभी का स्वामी होना भी पीछे छूट जाते हैं।

छटा पासुरं: यहाँ, आळ्वार, एम्पेरुमान की शरण लेने की मार्ग को सरल अथवा आसान बताते हैं। इस मार्ग में विरोधियों (परमात्मा तक पहुँचने के मार्ग में आने वाली बाधाएँ) के हट जाने पर भगवान को आनंददायक रूप से अनुभव कर सकतें हैं।

वेंगडंगळ मैंमेल विनै मुट्रवुम
ताँगळ तंगट्कु नल्लनवे सेयवार
वेंगडत्तुरैवार्क्कु नमवेन्नल
आम कडमै अदु सुमंदार्गटके

तिरुमलै में निरंतर निवास करने वाले स्वामी के प्रति “नम:” पद को जो अपने सिर पर धारण करतें हों, उनका कर्ज़ के रूप में जुटा हुआ विभिन्न प्रकार के पिछले पाप ही नही बल्कि उत्तरागमें (जो पाप शरण में आने के बाद जुटें) भी भस्म/राख हो जाते हैं, यह बात सत्य है। प्रतिकूल पेहलुओं (उनचाहत सब कुछ) के अपने आप मिट जाने के कारण वें केवल भगवान का अनुभव दिलाने वाले कार्य ही करते हैं और जिसके कारण उनके असली स्वरूप को अत्यंत आनंद मिलता है। 

सातवाँ पासुरं: आळ्वार कहतें हैं कि, एम्पेरुमान की शरण में आने पर हासिल साम्यापत्ति (सर्वोत्त्म पद/स्तिथि जहाँ आठ प्रकार के गुणों में बिलकुल भगवान के समान हो जाते हैं) तिरुमलै पर्वत (जहाँ एम्पेरुमान निवास करते हों) ही स्वयं शरणागतों को दिलाता है।

सुमन्दु मा मलर नीर सुडर दूबं कोंडु
अमर्न्दु
वानवर वानवर कोनोडुम
नमनरेळुं तिरुवेंगडम
नंगट्क्कु
च्चमन
कोळ् वीडु तरुम तडम कुंरमे 

अपने सेनापति सेनैमुदलियार के संग, श्रेष्ठ पुष्प, पवित्र जल, मंगल ज्योति, सुगंध धूप इत्यादियों के साथ, अनन्यप्रयोजन गण (जिनकी इच्छा/स्थिति केवल भगवान की सेवा में ही निरंतर हो और जो किसी भी प्रकार के सांसारिक एहसान की आशा न रखने वाले हो) नित्यसूरियाँ, झुककर (पूर्ण रूप से निर्भर होने की स्थिति को दर्शाते हुए) तिरुवेंगडम/ तिरुमलै नामक ऊँचा पर्वत को नमन करते हैं और एकदम आश्वासित ठहरें (अपने सच्चे स्वभाव से परिचित होने के कारण)। हमें ऐसी तिरुमलै अति आनंद दायक मोक्ष लाभ दिलायेगा जिसकी वजह से साम्यापत्ति (सर्वोत्त्म पद/स्तिथि जहाँ आठ प्रकार के गुणों में बिलकुल भगवान के समान हो जाते हैं) भी हासिल होगी।

आठवा पासुरं: आळ्वार कहतें हैं कि, ऐसे विशेष तिरुमलै के अनुभव में, प्राप्ति(लक्ष्य) के विरोधियाँ(बाधाएं) स्वयं मिट जाएँगे।  

कुन् रम ऐंदि कुलिर मळै कात्तवन
अनृ ग्यालं अळंद पिरान – परन
सेनृ सेर तिरुवेंगड मा मलै
ओनृमे तोळ नम्
विनै ओयुमे 

घना बारिश से पीढ़ित ब्रज वासियों की गोवर्धन गिरि उठाकर जिन्होने रक्षा किया, जिन्होने भूमि को नाप कर (महाबलि से) अपनाया, ऐसे उपकारी सर्व श्रेष्ठ एम्पेरुमान विशाल तिरुमलै पर्वत जा पहुँचे है – ऐसी दिव्य तिरुमलै पर्वत के पूजने मात्र से ही हमारी बाधाएं/पाप खुद गायब हो जायेंगे।

नवाँ पासुरं: आळ्वार कहतें हैं कि, सद्गति दिखाने वाले तिरुवेंगडमुडैयान का विरोधी विनाश करना इस दिव्य देश के संबंध के कारण है।  

ओयुम मूप्पु पिरप्पिरप्पु पिणि 
वीयुमारु सेइवान तिरुवेंगडत्तु 
आयन नाळमलराम अडित्तामरै 
वायुळ्ळुं मनत्तुळ्ळुं वैप्पार्गट्के 

तभी खिले हुए फूल समान कृष्ण प रमात्मा के दिव्य चरण कमलों को जो अपने वाक् और हृदय में रखते हैं, उनको बलहीन करने वाले बुढ़ापा, जन्म, मृत्यु, रोग इत्यादियों से रक्षा करने वाले तिरुमलै के निवासी कृष्ण परमात्मा ही हैं।

दसवाँ पासुरं: यहाँ आळ्वार अपने बंधुओं को उपदेश देतें हैं “ऐसा अत्यंत रमणीय तिरुमलै को अपना परम लक्ष्य मानें” ।  

वैत्त नाळ वरै एल्लै कुरुगि च्चेनृ
एय़त्तिळैप्पदन मुन्नम् अड़ैमिनो
पैत्त पांबणैयान तिरुवेंगडं
मोयत्त सोलै मोय पूम तडम ताळ्वरे 

तिरुमलै पर्वत अपने आकार में, फण फैलाते और सर्वेश्वर के बिस्तर बने हुए आदिसेशन जी की तरह दिखतें है और इस कारण प्रशंसनीय हैं। इनकी विशाल तलहटों में समृद्ध बगीचे सुन्दर फूलों से खिले हैं। आळ्वार अपने बंधुओं को उपदेश देते हुए कहतें हैं “इससे पहले की तुम्हारे इन्द्रियों का कमजोर पड़ कर पतन हो जाये और हृदय रुक जाये, अतः जब अपने शरीर का अंत निकट आना शुरू हो जाये और इसका महसूस हो जाये, तब जाकर शीघ्र ऐसी दिव्य तिरुमलै पहुंच जाओ।”

ग्यारहवाँ पासुरं: इस तिरुवाइमोळि(इन दस पासुरों) का फल, कैंकर्य श्री (कैंकर्य करने हेतु धन) की प्राप्ति की बात हमे यहाँ आळ्वार अनुग्रह करतें हैं। 

ताळ परप्पी मण ताविय ईसनै 
नीळ पोळिल कुरुगूर चटकोपन सोल 
केळिल आयिरत्तु इप्पत्तुम वल्लवर 
वाळ्वर वाळवेइदि ज्ञालम पुगळवे 

अपने दिव्यचरणकमलों से भूमि को नापने वाले सर्वेश्वर के विषय में, प्रचुर उद्यानों से भरे आळ्वारतिरुनगरी के नायक नम्माळ्वार द्वारा अनुग्रहित (दिए गए) इन अद्वितीय हजार पासुरों के अंतर्गत जो इन दस पासुरों के अर्थों को समझकर एवं उनका ध्यान करते हुए दोहराएंगे, उनको कैंकर्य श्री प्राप्त होगी (कैंकर्य करने हेतु धन जिसकी आळ्वार ने प्रार्थना की)। पूरे दुनिया में वें यशस्वी (दासत्व केलिए) हो कर जीयेंगे ।  

अडियेन प्रीती रामानुज दासि

आधार : http://divyaprabandham.koyil.org/index.php/2020/05/thiruvaimozhi-3-3-tamil-simple/

archived in http://divyaprabandham.koyil.org

प्रमेय (लक्ष्य) – http://koyil.org
प्रमाण (शास्त्र) – http://granthams.koyil.org
प्रमाता (आचार्य) – http://acharyas.koyil.org
श्रीवैष्णव शिक्षा/बालकों का पोर्टल – http://pillai.koyil.org

तिरुवाय्मोळि – सरल व्याख्या – २. १० – किळरोळि

Published by:

श्री: श्रीमते शटकोपाय नम: श्रीमते रामानुजाय नम: श्रीमत् वरवरमुनये नम:

कोयिल तिरुवाय्मोळि

<< १.२ – वीडुमिन

kallalagar-mulavar-uthsavar-azhwar

आळ्वार एम्पेरुमान के ओर सारे प्रियतम कैंकर्य करना चाहे। एम्पेरुमान “तेर्क्कु तिरुमलै” (दक्षिण दिव्यदेश ) नाम से पहचाने जाने वाले तिरुमालिरुन्चोलै में आळ्वार को दर्शन देकर कहे, “मैं तुम्हारे लिए यहाँ आया हूँ, तुम यहीं मेरे प्रति सर्वत्र कैंकर्य समर्पण कर सकते हो।” इससे अत्यंत संतुष्ट होकर आळ्वार तिरुमालिरुन्चोलै दिव्यदेश को अनुभव करतें हैं।  

पहला पासुरम : आळ्वार गाते हैं, “अद्वितीय कांतिमान सर्वेश्वर के प्रिय यह दिव्यदेश/तिरुमलै ही हमें प्राप्य हैं।” 

किळरोळि इळमै केडुवदन मुन्नम 

वळरोळि मायोन मरुविय कोयिल 

वळरिळं पोळिल सूळ मालिरुनचोलै 

तळर्वीलरागिल सार्वदु सदिरे 

प्रचुर एवं पुष्ट वाटिकाओं से घेरे यह दिव्यदेश इसी कारण तिरुमालिरुन्चोलै कहलाया गया है।  यह अद्वितीय कांतिमान सर्वेश्वर का निवास है। सर्वेश्वर अद्भुत गुण संपन्न हैं ; भक्तजनों केलिए अपने नित्य-निवास श्रीवैकुण्ट से यहाँ उतरने से इन्कि कांति कम नहीं बल्कि अत्यधिक ही हुयी हैं।  ऐसे यह सर्वेश्वर इस तिरुमालिरुन्चोलै दिव्यदेश को अपना स्थिर निवास बनाए हैं। आळ्वार गाते हैं कि इस सर्वश्रेष्ठ दिव्यदेश जो उदीयमान ज्ञान एवं कांति के हेतु है तथा शोकनाशनी है, इस्को प्राप्त करना ही उचित है।  

दूसरा पासुरम: आळ्वार कहतें हैं, “जिस दिव्यदेश में अळगर के तिरुमलै है वही उद्देश्य है।”  

सदिरिळ मड़वार ताळछियै मदियादु 

अदिर्कुरल संगत्तु अळगर तम कोयिल 

मदि तवळ कुडूमि मालिरूनजोलै 

पदियदु एत्ती एळुँवदु पयने 

सुंदरता और अक्लमंदी से सम्मोहित करने वाले नारियों से विमुक्त रहना है और प्रसिद्द क्षेत्र तिरुमालिरुन्चोलै की प्रशंसा करके, उन्नति प्राप्त करना है। चँद्रमा को छूने वालें यह तिरुमालिरुन्चोलै पर्वत अळगर एम्पेरुमान के दिव्य निवास है. अत्यंत सौंदर्य संपन्न अळगर एम्पेरुमान के संघटन की घोषणा कर रही हैं श्री पांचजन्य। यह पासुरम आळ्वार अपने ह्रदय के प्रति गाते हैं।  

तीसरे पासुरम में आळ्वार कहतें हैं, “जिस दिव्य पर्वत में एम्पेरुमान निवास करतें हैं उसके समीप स्थित पर्वत उद्देश्य हैं।  

पयन अल्ल सैदु पयनिल्लै नेंजे 

पुयल मळै वँणर पुरिंदुरै कोयिल 

मयल मिगु पोळिल सूळ मालिरुन्चोलै 

अयल मलै अड़ैवदु अदु करुममे 

हे मन! बेकार कार्रवाईयों में कोई प्रयोजन नहीं हैं।  काले मेघ के समान स्वाभाविक अळगर एम्पेरुमान के मनपसंद निरंतर निवास स्थान यहीं है, और देखने वालों के मन भाने वाले सुन्दर वाटिका से घेरे दिव्य पर्वत के निकट उपस्थित पर्वत तक पहुँचना ही आवश्यक कार्रवाई है।  

चौथे पासुरम में कहतें हैं कि हमारी सुरक्षा करने वाले एम्बेरुमान के निवास स्थान जो बड़े वाटिकाओं से घेरे दिव्य पर्वत है, उसे पहुँचना ही आवश्यक कार्य है।  

करूमवन पासं कळित्तु उळनृय्यवे 

पेरुमलै एडुत्तान पीडुरै कोयिल 

वरुमळै तवळुं मालिरुन्चोलै 

तिरुमलै अदुवे अड़ैवदु तिरमे 

सुलझाने में कठिन कर्म जो साँसारिक बंधन हैं, उन्को सुलझ कर, आत्म उज्जीवन के निमित गोप गोपिकाओँ के दुःख निवारण करने केलिए जिसने ऊँचे गोवर्धन पर्वत को उठाया, उन्हीं को रक्षक के रूप में पाने के लिए तथा जीवात्माओं के कैंकर्य को स्वीकार करते हुए एम्पेरुमान उस स्थान पे निवास कर रहे हैं जहां गगन से स्पर्शित, वाटिकाओँ से भरे दिव्य पर्वत हैं और उसी जगह पहुंचना हर एक व्यक्ति के लिए अति आवश्यक है।  

पाँचवा पासुरम में आळ्वार कहतें हैं कि जिनके पास रक्षण में प्रयुक्त तिरुवाळी (चक्र)है उस एम्पेरुमान के निवास स्थल जो दिव्य पर्वत है, उसके परिक्रमा  में उपस्थित पर्वत को पहुँचना उचित मार्ग है।  

तिरमुडै वलत्ताल तीविनै पेरुक्कादु 

अरमुयल आळि पडै अवन कोविल 

मरुविल वण सुनै सूळ मालिरुन्चोलै 

पुर मलै सार पोवदु गिरिये 

अनेक दृढ़ कठोर पापों को बढ़ाने के बदले, भक्त जनों के संरक्षण में लगे रहने वाले तिरुवाळि (शंख) अस्त्र के स्वामी के जो निवास स्थान है, आश्रितो की बलाई करने वाले, निष्कलंक झरनों से घेरे दिव्य गिरि के प्रदक्षण पथ में उपस्थित इस पहाड़ के निकट जाना अच्छा मार्ग है।  

भगवान को पाने की हमारी कोशिश से काफी बेहतर है भगवान हमारे निकट आने की प्रयत्न | इस पांचवे पासुरम तक आळवार अपने मन को सलाह देते हैं इसके बाद के पासुरम से हमको उपदेश करते हैं |

छटवां पासुरम : भक्तों के प्रति अत्यंत प्रेमी भगवान के निवास स्थान जो दिव्य गिरि है, उस्के मार्ग को स्मरण करना सर्वश्रेष्ठ है।  

गिरियेन निनैमिन कीळ्मै सैय्यादे

उरियमर वेन्नै उंडवन कोयिल 

मरियोडु पिनैसेर मालिरुन्चोलै 

नेरिपड अदुवे निनैवदु नलमे 

साँसारिक विषयों में उलझने जैसे नीच काम को छोड़, इसको नेक मार्ग समझिए।  क्योंकि इस नवनीत चोर कृष्ण की मंदिर तथा गाय, बछड़ों और हिरणो की मिलन स्थान जो है, इस दिव्य गिरि के मार्ग में रहने की स्मरण ही हमारी प्रयोजन है।  

सातवाँ पासुरम। प्रळय काल रक्षक एम्पेरुमान के निवास स्थल जो दिव्यगिरि है, उसके प्रति किये जाने वाले अनुकूलन कार्य ही श्रेष्ट है।   

नलमेन निनैमिन नरगळुंदादे 

निलमुनम इडंदान नीडुरै कोयिल 

मलमरु मदिसेर मालिरुन्चोलै 

वलमुरै येइदि मरुवुदल वलमे 

सँसार नामक घोर नरक में न डूबे, बल्कि इसी को सर्वश्रेष्ठ लक्ष्य समझिये। भूमा देवी के रक्षक श्री वराह स्वामी के निरंतर निवास स्थान [ जो प्रलय काल में भूमि को असुर से बचाया था ] , निष्कलंक चँद्रमा से अलंकृत दिव्यगिरि के प्रति स्वामि/सेवक के क्रम में अनुकूलन कैंकर्य करना ही श्रेष्ट प्रयोजन है।  

आठवा पासुरम : इसमें आळ्वार कहतें हैं कि भक्तवत्सल श्री कृष्ण रहने वाले इस दिव्यगिरि के प्रति निरंतर अनुकूल कैंकर्य करना ही हमारी स्वरूप है।  

वलम सैदु वैगल वलम कळियादे 

वलम सैय्युम आय मायवन कोयिल 

वलम सैय्युम वानोर मालिरुन्चोलै 

वलम सैदु नाळुम मरुवुदल वळक्के 

यह दिव्यगिरि भक्तों से बंधे, उन्हें अनुकूल करने वाले आश्चर्यभूत श्री कृष्ण के मंदिर है। परमपदवासी भी जिस दिव्यगिरि के प्रति अनुकूल कार्य करतें हैं, अन्य कार्यों में ध्यान व्यर्थ न कर, उसी दिव्यगिरि के प्रति दृढ़ निश्च्यता बढ़ाके प्रतिक्षण आनुकूल्य कार्य/कैंकर्य कर निरंतर झुड़े रहना ही न्याय है।  

नवा पासुरम: पूतना को वद करने वाले एम्पेरुमान के निवास दिव्यगिरि को पूजने की दृढ़ निश्चय ही विजय का कारण है।  

वळक्केन निनैमिन वलविनै मूळ्गादु 

अळक्कोडि अट्टान अमर पेरुम कोयिल 

मळकळिट्रिनम सेर मालिरुन्चोलै 

तोळ करूदुवदे तुणिवदु सूदे 

क्रूर पापों में न डूबे, इसी को आत्म स्वरूप के लिए उचित समझें। असुर महिला [ पूतना ] को वद करने वाले का विशाल मंदिर जहाँ हाथियों के बछड़े घेरते हुए दीखते हैं, उस दिव्यगिरि को पूजने कि दृढ़ निश्चय में रहना ही सँसार से जीतने का मार्ग है |

दसवाँ पासुरम। उपदेश के रूप में गाये गए इस पत्तु को समाप्त करते हुए आळ्वार कहतें हैं कि वेद के पोषण से परवरिश करने वाले एम्बेरुमान के निवास इस दिव्यगिरि तक पहुँचना ही उद्देश्य हैं।  

सूदु एंड्रु कलवुम सूदुम सैय्यादे 

वेदमुन विरित्तान विरुम्बिय कोयिल 

मादुरू मयिल सेर मालिरुन्चोलै 

पोदविळ् मलैये पुगुवदु पोरुले

सुलभ मार्ग समझकर चुराना, अपहरण करना जैसे नीच कार्य न करें, गीतोपदेश द्वारा वेदार्थ विवरित करने वाले एम्पेरुमान की जो प्रिय निवास है, नम्र मोर मिल झुलके रहने वाले, फूलों से भरे बागों से घेरे तिरुमलै को जा पहुँचना ही लक्ष्य है।  

ग्यारहवाँ पासुरम : इस पदिगम (दस पासुरों का संग्रह) का यह फलश्रुति है और आळ्वार, भगवत प्राप्ति को इस पदिगम का प्रयोजन बताते हैं।  

पोरुळ एन्रु इव्वुलगम पड़ैत्तवन पुगळ मेल 

मरुळिल वण कुरुगूर वण सडगोपन 

तेरुळ कोळ्ळ सोन्न ओराईरत्तुळ् इप्पत्तु 

अरुळ् उडैयवन ताळ अणैविक्कुम मुडित्ते 

आश्रितों के हित को प्रयोजन मानकर इस सँसार के सृष्टिकर्ता के दया, क्षमा, औदार्य जैसे कल्याण गुणों के विषय में , किँचित भी अज्ञान रहित, उत्तम क्षेत्र आल्वारतिरुनगरि के प्रधान, अत्यंत दयाळू नम्माळ्वार के द्वारा , जीवात्माओं को सच्चे ज्ञान की प्राप्ति केलिए और सँसार से विमुक्त कृपाळु अळगर के दिव्य चरणकमलोँ तक पहुंचाने वाले है, अद्वितीय हज़ार पासुरमो में यह पदिगम। 

अडियेन प्रीती रामानुज दासि

आधार : http://divyaprabandham.koyil.org/index.php/2020/05/thiruvaimozhi-2-10-tamil-simple/

archived in http://divyaprabandham.koyil.org

प्रमेय (लक्ष्य) – http://koyil.org
प्रमाण (शास्त्र) – http://granthams.koyil.org
प्रमाता (आचार्य) – http://acharyas.koyil.org
श्रीवैष्णव शिक्षा/बालकों का पोर्टल – http://pillai.koyil.org

तिरुवाय्मोळि – सरल व्याख्या – १.२ – वीडुमिन

Published by:

श्री: श्रीमते शटकोपाय नम: श्रीमते रामानुजाय नम: श्रीमत् वरवरमुनये नम:

कोयिल तिरुवाय्मोळि

<< १.१

sriman narayanan-nanmazhwar

भगवान के परत्व का परिपूर्ण अनुभव करने के बाद, इस दशक में आळ्वार, ऐसे भगवान को प्राप्त करने के उपाय का इन दस पासुरमों में समझा रहे हैं।

इस बात के महत्व को समझते हुये, आळ्वार अपने दिव्य अनुभवों को, सभी के साथ साझा करने का विचार कर इस जगत के संसारियों की तरफ देख रहे है।

सभी जन साँसारिकता के मोहमाया में डूबे हुये है। अत्यंत कृपालु होने के कारण आळ्वार उनकी सहायता करने की इच्छा से, उन्हे साँसारिक मोहबंधनों को छोड भगवान के प्रति भक्ति बढ़ाने का उपदेश दे रहे है।  

पहला पासुरम: इस पासुरम में नम्माळ्वार सभी को सांसारिक और अन्य मोहबंधनों का त्याग कर, स्वयं को भगवान के प्रति समर्पण करने की आज्ञा दे रहे हैं।  

वीडुमिन् मुऱ्ऱवुम् वीडु सेय्दु उम्मुयिर्
वीडु उडैयान् इडै वीडु सेय्म्मिने

एम्पेरुमान की आराधना में बाधा बन रहे, निज स्वार्थ पुरक उपायों, विचारों को त्याग करना।

इसके पश्चात, उन स्वामी के, जो मोक्ष के नियंता हैं, उनके श्रीचरणकमलों में स्वयं को समर्पित करना।  

दूसरा पासुरम : परित्याग को सरल बनाने के लिये, उन वस्तुओं के क्षणीक गुणों को समझा रहे हैं।  

मिन्निन् निलैयिल मन्नुयिर् आक्कैगळ्
एन्नुम् इडत्तु इऱै उन्नुमिन् नीरे

आळ्वार कह रहे है, जीवात्मा अनादि काल से अनेक शरीर प्राप्त करता हैं, जिसे वह चाहने भी लगता है, पर ये शरीर क्षण में प्रत्यक्ष और क्षण में अप्रत्यक्ष हो जाता हैं | शरीर के इस अनित्य स्वभाव को समझ कर, तुम सर्वेश्वर परमात्मा का ध्यान करो।  

तीसरा पासुरम : नम्माळ्वार अत्यंत कृपा से परित्याग को समझाते हैं।  

नीर् नुमदु एन्ऱु इवै वेर् मुदल् माय्त्तु इऱै
सेर्मिन् उयिर्क्कु अदन् नेर् निऱै इल्ले

अहंकार ममकार का त्याग कर आचार्य के श्रीचरणकमलों में आश्रय लें। जीवात्मा के लीये इससे ज्यादा उचित और संतोष प्रदायक और कुछ नही हैं।  

चौथा पासुरम: इस प्रकार, मोहबंधनों से मुक्त जीवात्मा से पूजीत एम्पेरुमान के गुणों का, आळ्वार वर्णन कर रहे हैं।  

इल्लदुम् उळ्ळदुम् अल्लदु अवन् उरु
एल्लैयिल् अन्नलम् पुल्गु पऱ्ऱु अऱ्ऱे

भगवान स्थिर चित् व अस्थिर अचित् दोनों से भिन्न हैं. तथा, मोहबंधनों से विमुक्त हो कर, भक्ति भाव के साथ आनंदप्रदायक भगवान का आश्रय लें।

पाँचवा पासुरम: इस पासुरम में नम्माळ्वार समझाते हैं कि एम्पेरुमान को प्राप्त करना ही उचीत लक्ष्य होना हैं।  

अऱ्ऱदु पऱ्ऱु एनिल् उऱ्ऱदु वीडु उयिर्
सेऱ्ऱदु मन्नुऱिल् अऱ्ऱु इऱै पऱ्ऱे

भगवत विषय को छोड अन्य विषयों का मोहबंधनों को परित्याग करने के बाद, आत्मा कैवल्य मोक्ष (संसारं से विमुक्त खुद के आनंद में मग्न रहना) का अधीकारी हो जाता हैं। कैवल्य मोक्ष की इच्छा रहित, अन्य बंधनों से विमुक्त, एम्पेरुमान के साथ निश्चल दृढ़ संबंध बनाये रखने के लिये उनके प्रति शरणागति करें।  

छठवाँ पासुरम : सभी के प्रति एम्पेरुमान के सम भाव का नम्माळ्वार विवरण कर रहे हैं।  

पऱ्ऱु इलन् ईसनुम् मुऱ्ऱवुम् निन्ऱनन्
पऱ्ऱु इलै आय् अवन् मुऱ्ऱिल् अडन्गे

सर्वेश्वर होते हुये भी, वे अपनी दिव्य महिषियों के प्रति मोह छोड़, उनसे जुड़े हुये नित्यसूरियो से भी मोह छोड़, अभी नये आये हम लोगों के संग अटल रहते हैं | हमें अपना पालक पोषक मानते है | हमें देख उन्हे आनन्द होता है | आप भी साँसारिक बंधनों से, मोह से विमुक्त हो, सर्वेश्वरको अपना धारक, पोषक और स्वयं को उन्ही का भोग्य समझ उनमें ही मगन हो जाओ।  

सातवाँ पासुरम: नम्माळ्वार कहते हैं की भगवान के वैैभव (उभय विभूति) से घबराये बगैर, हमें हमारे, भगवान और उभय विभूति के सम्बंंध ध्यान रखते हुये यह समझना चाहीये की हम भी उन्ही की सम्पत्तियों में से एक हैं।  

अडन्गु एळिल् सम्बत्तु अडन्गक् कण्डु ईसन्
अडन्गु एळिल् अह्देन्ऱु अडन्गुग उळ्ळे

भगवान् के अति सुंदर दिव्य वैभव का, इस ज्ञान के संग ध्यान करें कि सर्वस्व उन्हीके अधीन हैं, और इस संबंध ज्ञान के संग उनकी संपत्ति का अंश बने।  भगवान और स्वयं के बीच के सम्बंध का ज्ञान होने पर, हम उनकी दिव्य संपत्ति के अंश बन सकतें हैं।  

आठवाँपासुरम: नम्माळ्वार भगवान की पूजा करने, और सेवा करने की विधी बतला रहे हैं।  

उळ्ळम् उरै सेयल् उळ्ळ इम् मून्ऱैयुम्
उळ्ळिक् केडुत्तु इऱै उळ्ळिल् ओडुन्गे

जन्म से ही हमें प्राप्त बुुद्धी वाक्और तन के प्रयोजन को समझ कर साँसारिक सुख के मोहबंधनों से विमुक्त होकर, हमारें लिए उचित यही है कि, स्वामि के प्रति सम्पूर्ण तरह से शरणागत बनें।  

नौवां पासुरम: नम्माळ्वार बतला रहे हैं कि भगवान की आराधना से भव बाधायें मिट जाती हैं।

ओडुन्ग अवन् कण् ओडुन्गलुम् एल्लाम्
विडुम् पिन्नुम् आक्कै विडुम् पोळुदु एण्णे

सर्वस्व भगवान को समर्पण करने से अविद्या मिट जाती है, और आत्म ज्ञान असीम हो जाता हैं।  इसके पश्चात भगवान की शरणागति कर इस जीवन के अंत में ही उनके कैंकर्य की प्रार्थना कर सकतें हैं।  

दसवाँ पासुरम : नम्माळ्वार भगवान के गुण स्वभाव बतला रहे है, भगवान को प्राप्त करना ही परम ध्येय होना चाहीये।

एण् पेरुक्कु अन्नलत्तु ओण् पोरुळ् ईऱिल
वण् पुगळ् नारणन् तिण् कळल् सेरे

इस संसार की अनन्त कोटि जीवात्माओं के र्सवस्व स्वामी नारायण ही है।
अनन्त गुणों से सम्पन्न आनन्द प्रदायक भगवान नारायण के श्रीचरणकमलों में शरणागती करें।

ग्यारहवाँ पासुरम : इस दशक की फलश्रुति करते हुये नम्माळ्वार कहते हैं कि इस तिरुवाय्मोळि के हज़ार पासुरमो में वीशेष इन दस पासुरमो के अद्भुत ज्ञान को समझना ही फल हैं।  

सेर्त् तडत् तेन् कुरुकूर्च् चटकोपन् सोल्
सीर्त् तोडै आयिरत्तु ओर्त्त इप् पत्ते

अति सुन्दर उपवन और तालाबों से घिरे सुन्दर आळ्वारतिरुनगरी के सेत नम्माळ्वार, कृपा कर , १००० पासुरम के भावपुर्ण अर्थो को  सुन्दर छंद  रुप  में प्रसादित कीये है। 

अडियेन प्रीती रामानुज दासी 

आधार: http://divyaprabandham.koyil.org/index.php/2020/05/thiruvaimozhi-1-2-tamil-simple/

archived in http://divyaprabandham.koyil.org

प्रमेय (लक्ष्य) – http://koyil.org
प्रमाण (शास्त्र) – http://granthams.koyil.org
प्रमाता (आचार्य) – http://acharyas.koyil.org
श्रीवैष्णव शिक्षा/बालकों का पोर्टल – http://pillai.koyil.org

तिरुवाय्मोळि – सरल व्याख्या – १.१ – उयर्वर

Published by:

श्री: श्रीमते शटकोपाय नम: श्रीमते रामानुजाय नम: श्रीमत वरवरमुनये नम:

कोयिल तिरुवाय्मोळि

<< तनियन

bhagavan-nammazhwar

सर्वेश्वर जो श्रिय:पति हैं सबसें सर्वश्रेष्ठ हैं, सारें कल्याण गुणों के निवास स्थान हैं, दिव्य रूप के हैं, श्रीवैकुण्ट और संसारम दोनों के नेता हैं, वेदों से प्रकाशित हैं, सर्वव्यापी हैं, सर्व नियन्ता हैं, सारें चेतनों औरअचित वस्तुओँ के अंतर्यामी हैं और उन्पर शासन करतें हैं। आलवार एम्पेरुमान के बारे में इन पहलुओं की व्याख्या करते हैं और इस दशक में उन्हें दिव्य ज्ञान और भक्ति प्रदान करने के बारे में सोचकर आनंदित हो जाते हैं।  

हमारें पूर्वाचार्यों

द्वारा समझाया गया है: यह पदिगम तिरुवाय्मोळी की सारांश है।  इस्की पहली ३ पासुरम इस पदिगम की सारांश हैं, और पहला पासुरम पहले तीन पासुरमो का सारांश हैं। पहले पासुरम का सारांश उसकी पहली पंक्ति है।  

 पहला पासुरम: इसमें असंख्येय कल्याण गुणों कि अस्तित्व, निर्हेतुक कृपा, नित्यसूरियों पर एकादिपत्यता, नित्य दिव्य मंगळ रूपों की धारणा इत्यादि एम्पेरुमान की सर्वेश्वर होनें की विषय को प्रकट करने वालि गुणों पर हैं. ऐसा कहने के बाद, नम्माळ्वार अपने हृदय को ऐसे एम्पेरुमान की हमेशा सेवा करने का निर्देश देते हैं।

उयर्वर उयर्नलं उड़ैयवन यवन अवन

मयर्वर मदिनलं अरुळिनन यवन अवन 

अयर्वरुम अमररगळ अदिपति यवन अवन 

तुयरऱू सुडरडि तोळुदेळु एन मनने 

ओह मेरे मन! एम्पेरुमान के चरण कमलों में हाथ जोड़कर प्रणाम करें और उत्थान करें। जो शास्त्रों में श्रेष्ट मानें जाने वाले अन्य विषयों को अस्तित्वहीन करनेवाले श्रेष्ठता के निवास मानें जातें हैं वें एम्पेरुमान हैं। मेरे अज्ञान को संपूर्ण रूप में अपने निर्हेतुक कृपा से मिटाकर सच्ची ज्ञान और भक्ति देनें वालें वें ही हैं।  नित्यसूरिया जिन्की विस्मरण जैसे दोष न हो उनके सर्व स्वामी वें ही हैं।

 दूसरा पासुरम: नम्माळ्वार भगवान (जो यहाँ “यवन” शब्द से प्रकटित हैं ) को अन्य सारे तत्वों से विशिष्ट बतातें हैं।

मननग मलम अर मलर मिसै एळुदरुम 

मननुणर्वु अळविलन  पोरीयुणर्वू  अवैयिलन 

इननुणर मुळुनलं एदिर निगळ कळिविनुम 

इननीलन एनन उयिर मिगु नरै इलने 

काम, क्रोध जैसे दोषों से रहित परिपक्व, आत्मा के स्वरूप को समझने वाले, मन से भी भगवान असीमित हैं।  अचित तत्त्वों को समझने वाले इन्द्रियों से वें असीमित हैं।  अत: वे चित और अचित से अलग हैं।  वें ही सम्पूर्ण ज्ञान तथा सम्पूर्ण आनंद मानें जातें हैं और इन्के समान श्रेष्ट कोई भी भूत , वर्तमान एवं भविष्य काल में नही हैं।  वे ही मेरे आधार हैं। इस दशक में सारें पासुरमो के अंत में “अवन तुयररु सुडरडि तोळुदेळु” को जोड़नी चाहिए

तीसरा पासुरम। नम्माळ्वार एम्पेरुमान के सँसार के सात संबंध की वर्णन करतें हुए यह निर्माण करतें हैं कि भगवान किसी भी वस्तु या काल से सीमित नहीं हैं।  

इलनदु उडैयनिदु एन निनैवु अरियवन 

निलनिडै विसुंबिडै उरुविनन अरुविनन 

पुलनोडु पुलनलन ओळीविलन परन्द 

अन नलनुडै ओरुवणै नणुगिनम नामे 

“दूर होने के कारण भगवान इसमें नहीं हैं” और “निकट होने के कारण भगवान इस वस्तु में हैं”, के जैसे सीमित वादों से भगवान समझें नहीं जा सकतें।  वें साँसारिक और अन्य अन्य मण्डलों में , सारें चित (जो कारणों को अदृश्य हैं) और अचित (जो कारणों को दृश्य हैं) के स्वामी हैं. अत: चित और अचित उन्के लक्षण और वें सर्व व्यापी हैं। ऐसे कल्याण गुणों से संपन्न विशिष्ट भगवान के प्रति शरणागति अनुष्ठान करना हमारा भाग्य हैं।

चौथा पासुरम: नम्माळ्वार यह स्पष्ट करतें हैं कि,सारे वस्तुओँ के सवरूप ( मूल गुण) को भगवान के नियंत्रण में होने को सामानाधिकरण्यम के द्वारा समझाया गया है।

ध्यान: सामानाधिकरण्यम का अर्थ है एक सेअधिक गुणों में समन्वय होना. इसका और एक अर्थ : एक वस्तु को समझाने वालें दो या अधिक शब्द।

 नाम अवन इवन उवन अवळ् इवळ् उवळ् एवळ्

ताम अवर इवर उवर अदु इदु उदु एदु

वीम अवै इवै उवै अवै नलं तींगु अवै

आम अवै आय अवै आय नींर अवरे

भगवान ही (जो अन्तर्यामी हैं ) सारे तत्व (पुल्लिंग, स्त्रीलिंग , चित, अचित, अनित्य) बने गए हैं जिन्हें अलग-अलग शब्दों से उनकी निकटता को इंगित करने के लिए पहचाना जाता है। जो कि अच्छे हैं या बुरे और जो अतीत में मौजूद थे, अब मौजूद हैं या भविष्य में अस्तित्व में आएंगे। सारे शब्द भगवान को ही संकेत करते हैं, और अन्य सारे शब्द भी उन्हीं को संकेत करतें हैं। अर्थात सारे वस्तु सारे समय पर भगवान के संपूर्ण अधिकार में हैं। 

पाँचवा पासुरम: रक्षा के रूप में एम्पेरुमान का सबको सहारा देना वैयाधिकरण्यं से समझाया गया है।  

ध्यान दे: वैयाधिकरण्यं अर्थात, दो या और अवस्थाओं का भिन्न अध:स्तर होना। इसका और एक अर्थ है दो या और शब्दों जो भिन्न तत्वों को समझाते हैं।  

अवरवर तमदमदु अरिवरि वगै वगै 

अवरवर इरैयवर एनवडि अड़ैवरगळ 

अवरवर इरैयवर कुरैविलर इरैयवर 

अवरवर विदि वळि अड़ैय निँरनरे 

भिन्न-भिन्न अधिकारि (योग्य व्यक्ति) अपने ज्ञान और इच्छा के अनुसार भिन्न-भिन्न देवताओँ से शरण लेते हैं। उन्हीं देवताओँ का उन शरणागतों की  इच्छाओँ की पूर्ती करना उचित होगा। लेकिन भगवान ही हैं  जो सबके स्वामी हैं, जो उन देवताओं में अंतर्यामी के रूप में रहते हैं, और निश्चित करतें हैं कि कर्मानुसार इन व्यक्तियों कि इच्छाएं सफल हो।  

छटवा पासुरम : नम्माळ्वार समझाते हैं कि कर्म /अकर्म सारे सामानाधिकरण्यम द्वारा भगवान् के नियंत्रण में है।  

नींरनर इरुंदनर किडंदनर तिरिंदनर 

निंड्रिलर इरुंदिलर किडंदिलर तिरिंदिलर 

एँरुमोरियलविनर एन निनैवरियवर 

एँरुमोरियलवोडु नींर एम् तिडरे 

एम्पेरुमान सारे तत्वों के कर्म (जैसे खड़ा होना, बैठना, लेट जाना, पैदल चलना) और अकर्म (खड़ा न होना, नहीं बैठना, लेटे न रहना , पैदल न चलना) के नियंता हैं।  ऐसे एम्पेरुमान अचिंत्य और सारे अन्य तत्वों से विशिष्ट हैं।  ये  हमारे भगवान हैं जो शास्त्रों से स्थापित किये गए हैं और शास्त्र ही सबसे विश्वसनीय साक्ष्य हैं।  

सातवाँ पासुरम :  प्रकृति और भगवान के बीच शरीर और आत्मा के रिश्ते के रूप में यह सामानाधिकरण्यम समझाया गया है।  

तिडविसुंबु एरि वळि नीर निलम इवै मिसै 

पडरपोरुळ मुळुवदुमाय अवै अवै तोरुम 

उडनमिसै उयिर एनक् करंदेंगुम परंदुळन 

सुडर्मिगु सुरुदियुळ इवै उंड सुरने 

भगवान परमात्मा हैं जो प्रकृति मंडल (सृष्टिकर्ता) बन जातें हैं ; पहले अग्नि, जल, आकाश , वायु, पृथ्वी को आधार के रूप में सृष्टि कर, उन्मे व्याप्त हो जाते हैं। भगवान सर्वत्र व्याप्त होते हैं जैसे आत्मा शरीर में व्याप्त होती हैं। वें सर्वत्र के भीतर और बाहर उपस्थित हैं। वें उज्जवल वेदों के लक्ष्य हैं। ये एम्पेरुमान प्रळय काल में सर्वत्र की भोग करतें हैं, और “सुरा” (भगवान) कहलातें हैं।  

आठवाँ पासुरम: नम्माळ्वार कहतें हैं कि ब्रह्मा और रुद्र जो व्यष्टि सृष्टि (भिन्न रूपों के सृष्टि ) और व्यष्टि संहारम (भिन्न रूपों के संहारम) के लिए ज़िम्मेदार हैं, भगवान के नियंत्रण में हैं।  

सुरर अरिवरू निलै विण मुदल मुळुवदुम 

वरन मुदलाय अवै मुळुदुंड परपरन 

पुरम ओरु मूंरेरित्तु अमरर्क्कुं अरिवु इयंदु 

अरन अयन एन उलगु अळित्तु अमैत्तु उळने 

भगवान मूल प्रकृति जैसो के कारण हैं (यह ब्रह्मा रद्रादियों के ज्ञान के पार है), और सारे प्रकृति मंडल की सँहार करते हैं ; देवताओं के स्वामी हैं, रूद्र के रूप में तीन पुरियों के सँहार किये (त्रिपुर संहारम), सर्वत्र के सँहार करतें हैं, पुन: सर्वत्र कि सृष्टी किए, देवताओँ को ज्ञान दिये। ब्रह्म रुद्रादियों के अंतर्यामी होते हुए भगवान ये सब करतें हैं।  

नौवीं पासुरम: नम्माळ्वार माद्यमिक बौद्ध तत्ववादियों (शून्यवादी) की खंडन किए।  ये वेद बाह्यो (वेदों को अस्वीकार करने वालें) में से प्रथम हैं।

उळन एनिल उळन अवन उरुवम इव्वुरुवुगळ 

उळन अलन एनिल अवन अरुवम इव्वरुवुगळ 

उळन एन इलन एन इवै गुणं उड़ैमैयिल 

उळन इरु तगैमैयोडु ओळिविलन परंदे 

भगवान ही अस्तित्व (आळ्वार के वैदिक सिद्धाँत)और अनस्तित्व (अवैदिक सिद्धांत)  के आधार हैं – इसलिए उन्के प्रसंग करते समय, उन्की अस्तित्व को मानना उचित हैं। कभी अनस्तित्व न होते हुए वे सर्वत्र व्यापी हैं। और इस प्राकृतिक मंडल में  उन्के आकार और निराकार आविर्भाव के संग हैं।  

दसवाँ पासुरम : इस पासुरम में  नम्माळ्वार भगवान के सर्व-व्यापकता को समझातें हैं।  

परंद तण परवै उळ नीर तोरुम परंदुळन 

परंद अंडम इदु एन निल विसुंबु ओळिवु अर

करंद सिल इडम तोरुम तिगळ पोरुळ् तोरुं 

करंदु एंगुम परंदुळन इवै उंड करने 

परमात्मा इस अखंड ब्रह्मांड में जितने सुख से हैं , उसी तरह शीतल सागर के हर बूँद में सूक्ष्म रूप में भी हैं।  हर छोटे से छोटे स्थान में हैं, और इन जगहों में उपस्थित स्व उज्जवल जीवात्माओ (इन जीवात्माओं के ज्ञान के पार )में भी हैं। सर्वव्यापी होने के कारण, सँहार के समय सर्वत्र भोग करके भी स्थिर रहें।  

ग्यारहवीं पासुरम : आळ्वार कहतें हैं कि, भगवान के परत्व को संक्षेपण करने वाले इन दस पासुरमो को सीखने/कहने/समझने का फल मोक्ष है।  

कर विसुंबु एरि वळि नीर निलम इवै मिसै 

वरनविल तिरलवलि अळि पोरै आइ निन्र 

परन अड़ि मेल कुरुकूर्च चटकोपन सोल 

निरैनिरै आयिरत्तु इवै पत्तुम वीडे 

ये १० पासुरम (अत्यंत कृपा संग गाये गए , और जो सम्पूर्ण कल्याण करने वाले हैं ) नम्माळ्वार (जो आळ्वारतिरुनगरी में जन्में) एम्पेरुमान के दिव्य चरण कमलों में समर्पित किए गए हैं। जो पञ्चभूतों (आकाश, वायु, अग्नि, जल, और भूमि) और उन्के गुणों (नाद , ताकत , गर्मी, शीतलता, और सहनशीलता) के निवास हैं; जिन्के ये सभी लक्षण हैं।  

अडियेन प्रीती रामानुज दासी

आधार: http://divyaprabandham.koyil.org/index.php/2020/05/thiruvaimozhi-1-1-tamil-simple/

archived in http://divyaprabandham.koyil.org

प्रमेय (लक्ष्य) – http://koyil.org
प्रमाण (शास्त्र) – http://granthams.koyil.org
प्रमाता (आचार्य) – http://acharyas.koyil.org
श्रीवैष्णव शिक्षा/बालकों का पोर्टल – http://pillai.koyil.org

तिरुवाय्मोळि – सरल व्याख्या – तनियन

Published by:

श्री: श्रीमते शटकोपाय नम: श्रीमते रामानुजाय नम: श्रीमत वरवरमुनये नम:

कोयिल तिरुवाय्मोळि

Nammalwar-emperumanar

भक्तामृतं विश्वजनानुमोदनम सर्वार्थदम श्री शटकोप वांग्मयम |

सहस्र शाकोपनिषद समागमम नमाम्यहम द्राविड़ वेद सागरं ||

तिरुवाय्मोळि जो श्रीमन नारायण के भक्तों को अमृत समान है , जो सबको आनंद देने वालि है , जो सबको सारे मंगलमय फल देने वालि हैं, जो साम वेद और चांदोग्य उपनिषद् के सहस्र शाकों (हज़ार शाखाएं) के समान हैं, जो नम्माळ्वार के दिव्य शब्दों से बरी हैं, और जो द्राविड़ (तमिळ) वेदों की समुद्र हैं।

तिरुवळुदि नाडेन्नुम तेनकुरुगूर एनृम

मरुविनिय वण्पोरुनल एनृम अरुमरैगळ

अंदादि सैदान अडि इणैये एप्पोळुदुम

सिंदियाय नेंजे तेळिंदु

हे मन! स्पष्टता के सात नम्माळ्वार के दिव्य चरण कमलों पर ध्यान करो, जो तिरुवळुदि नाडु और तिरुक्कुरुगूर नामक सुँदर , पवित्र प्रदेश और उसमें बहनें वालि तामिरभरणी नदी पर ध्यान करतें, अंदादि रूप में वेदों के अर्थ अपने तिरुवाय्मोळि में प्रकट किये|

मनत्तालुम वायालुम वण्कु रुगूर पेणुं 

इनत्तारै अल्लादु इरैंजेन दनत्तालुम 

ऐदुम कुरैविलेन एंदै शटकोपन 

पादंगळ् यामुडैय पट्रू 

मेरे स्वामी नम्माळ्वार  के चरण कमलों के प्रति शरणागति करने से मेरी धन की भी कोई कमी नहीं हैं के में आळ्वारतिरुनगरि के सेवा करनेवालों से असंगत लोगों की पूजा करूँ।

एइंद पेरुं कीर्ति इरामानुस मुनि तन 

वायंद मलर पादं वणंगुगिंरेन आईंद पेरुं 

सीरार सडगोपन सेंतमिळ वेदं दरिक्कुम 

पेराद उळ्ळम पेर 

सर्वश्रेष्ठ कल्याण गुणों से भरे एम्पेरुमानार के दिव्य चरण कमलों को पूजता हूँ जिस्से ऐसा मन पाऊँ जिसे निष्कलंक और कल्याण गुणों से सम्पूर्ण नम्माळ्वार से रचित सुँदर तमिळ वेदं जो तिरुवाय्मोळी हैं, उसके सिवाय अन्य कोई विषय में दिलचस्प न हो |

वान तिगळुं सोलै मदिळ् अरंगर वण्पुगळ् मेल 

आन्र तमिळ मरैगळ आयिरमुम ईन्र 

मुदल ताय सडगोपन मोयंबाल वळर्त 

इद ताय इरामानुसन 

सप्त प्राहारों, आस्मान को छूने वाले पेड़ो से भरे वाटिकाओं के मध्य शयन करने वाले पेरिय पेरुमाळ के दिव्य गुणों पर रचित तमिळ वेदं के नाम से मानें जानें वालें तिरुवाय्मोळि के जनम देने वाली माँ स्वामि नम्माळ्वार और सुरक्षण कर पालन पोषण करने वाली चुस्त माँ एम्पेरुमानार हैं |

मिक्क इरै निलैयुम मेय्याम उयिर निलैयुम

तक्क नेरियुम तड़ैयागि तोक्कियलुम 

ऊळ् विनैयुम वाळ्विनैयुम ओदुम कुरुगैयर कोन 

याळिन इसै वेदत्तियल 

आळ्वारतिरुनगरी के वासियों के नेता नम्माळ्वार हैं।  वीणा के जैसे सुरीले तिरुवाय्मोळि पॉंच तत्त्वों की विषय प्रकट करती हैं, वें हैं- सर्वेश्वर श्रीमन नारायण के सच्चा स्वरूप (परमात्म स्वरूप), नित्य जीवात्मा की सच्चा स्वरूप, भगवान तक पहुँचाने वाले मार्ग कि सच्ची स्वरूप (उपाय स्वरूप), कर्मों के रूप में आने वाले आपत्तियाँ (विरोधि स्वरूप) और सर्वश्रेष्ठ उद्देश्य (उपेय स्वरूप).

अडियेन प्रीती रामानुज दासी

आधार: http://divyaprabandham.koyil.org/index.php/2020/05/thiruvaimozhi-thaniyans-tamil-simple/

archived in http://divyaprabandham.koyil.org

प्रमेय (लक्ष्य) – http://koyil.org
प्रमाण (शास्त्र) – http://granthams.koyil.org
प्रमाता (आचार्य) – http://acharyas.koyil.org
श्रीवैष्णव शिक्षा/बालकों का पोर्टल – http://pillai.koyil.org

வரவரமுனி சதகம் 10

Published by:

ஸ்ரீ: ஸ்ரீமதே சடகோபாய நம:  ஸ்ரீமதே ராமானுஜாய நம: ஸ்ரீமத் வரவரமுநயே நம:

வரவரமுனி சதகம்

<< பகுதி 9

Image result for manavala mamunigal vaanamaamalai

मुग्धालोकं मुखमनुभवन्मोदते नैव देव्याः |
स्निग्धालापं कपिकुलपतिं नैव सिञ्चत्यपाङ्गैः ||
त्वामेवैकं वरवरमुने ! सोदरं द्रष्टुकामो |
नाथो नैति क्वचिदपि रतिं दर्शने यूथपानाम् || ९१॥

முக்தாலோகம் முகமநுபவந் மோததே நைவ தேவ்யா: |
ஸ்நிக்தா லாபம் கபிகுலபதிம் நைவ ஸிஞ்ச்யத்யபாங்கை:||
த்வாமேவைகம் வரவரமுநே ஸோதரம் த்ரஷ்டு காமோ:|
நாதோ நைதி க்வசிதபி ரதிம் தர்சநே யூதபாநாம் ||  91

அழகிய பார்வையுடன் கூடிய தேவியான பிராட்டியின் முகத்தை அநுபவித்து ஸந்தோஷிப்பதில்லை. அன்பு நிறைந்த பேச்சாளரான ஸுக்ரீவனையும் கடாக்ஷங்களால் நனைப்பதில்லை. ஹே வரவரமுநியே! உம்மை ஒருவரையே, ஸஹோதரனை, பார்க்க விரும்பி முதலிகள் தலைவரான ஸ்ரீராமன் ஓரிடத்திலும் மகிழ்ச்சியைப் பெறுவதில்லை.

एवं देवः स्वयमभिलशन्नेष ते शेषवृत्तिं |
जज्ञे भूयस्त्वदनुजगदानन्दनो नन्दसूनुः ||
दूरिभावं वरवरमुने ! दुस्सहं पूर्वजस्ते |
धन्यस्त्यक्त्वा धयतु न चिराच्छाक्षुषा राघवस्त्वाम् || ९२॥

ஏவம் தே ஸ்வயமபிலஷந் நேஷ தே ஸேஷவ்ருத்திம் |
ஜஃனே பூய: ததநு ஜகதாநந்தநோ நந்த ஸூநு: ||
தூரீ பாவம் வரவரமுநே துஸ்ஸஹம் பூர்வஜஸ்தே |
தந்யஸ் த்யக்த்வா தயது ந சிராத் சக்ஷுஸா ராகவஸ் த்வாம் ||  92

இந்த மாதிரி தேவரான ஸ்ரீராமர் தாமாகவே செய்ய விரும்பி மறுபடி உலகத்துக்கு ஆனந்தத்தை அளிக்கவல்ல நந்தகுமாரனாக ஆனார். ஹே வரவரமுநியே! பொறுக்க முடியாத இந்தப் பெருமையை உமது தமையனான ஸ்ரீராமர் விட்டுக் கண்ணால் உம்மை மகிழ்விக்கட்டும்.

पारम्पायं प्रणयमधुरे पादपद्मे त्वदीये |
पश्येयं तत्किमपि मनसा भावयन्तं भवन्तम् ||
कामक्रोधप्रकृतिरहितैः काङ्क्षितत्वत्प्रसादैः |
सद्भिस्साकं वरवरमुने ! सन्ततं वर्तिषीय || ९३॥

பாயம் பாயம் ப்ரணய மதுரே பாத பத்மே த்வதீயே |
பச்யேயம் தத் கிமபி மநஸா பாவயந்தம் பவந்தம் ||
காமக்ரோத ப்ரக்ருதி ரஹிதை: காங்க்ஷித த்வத் பிரஸாதை: |
ஸத்பிஸ்ஸாகம் வரவரமுநே! ஸந்ததம் வர்த்திஷீய || 93

அன்பு கனிந்த உமது திருவடித் தாமரையைப் பருகிப் பருகி, எதையோ மனத்தால் நினைத்துக்கொண்டிருக்கும் உம்மைப் பார்க்க வேண்டும். காமத்துக்கும் கோபத்துக்கும் ப்ரக்ருதியில்லாத, வேண்டிய உமது அருள் பெற்ற நல்லவர்களோடு எப்போதும் இருக்கவேண்டும், வரவரமுநியே!

पश्यत्वेनं जनकतनया पद्मगर्भैरपाङ्गैः
प्रारब्धानि प्रशमयतु मे भागधेयं रघूणाम् ||
 आविर्भूयादमलकमलोदग्रमक्ष्णोः पदं मे-
दिव्यं तेजो वरवरमुने ! देवदेव ! त्वदीयम् || ९४॥

பச்யத்வேநம் ஜநகதநயா பத்மகர்பைரபாங்கை: |
ப்ராரப்தாநி ப்ரஸமயது மே பாகதேயம் ரகூணாம் ||
ஆவிர் பூயா தமல கமலோ தக்ர மக்ஷ்னோ: பதம் மே |
திவ்யம் தேஜோ வரவரமுநே  ஸந்ததம் வர்த்திஷீய || 94

என்னைப் பிராட்டி குளிர்ந்த கடாக்ஷங்களால்  பார்க்கவேண்டும். ஸ்ரீராமர் எனது ப்ராரப்த பாபங்களை ஒழிக்கட்டும். வரவரமுநியே! எனது கண்களுக்கு உமது நிர்மலமான தாமரை  போன்ற ஒளி எதிரில் எப்போதும் தோன்றுவதாக.

रामः श्रीमान्रविसुतसखो वर्द्धतां यूथपालैः
देवीं तस्मै दिशतु कुशलं मैथिली नित्ययोगात् ||
सानुक्रोशो जयतु जनयन् सर्वतस्तत्प्रसादं |
सौमित्रिर्मे स खलु भगवान्सौम्यजामातृयोगी || ९५॥

ராம: ஸ்ரீமாந் ரவி ஸுத ஸ கோ வர்த்ததாம் யூத பாலை: |
தேவீ தஸ்மை திசது குசலம் மைதிலீ நித்ய யோகாத் ||
ஸாநுக்ரோஶோ ஜயது ஜநயந் ஸர்வதஸ் தத் ப்ரஸாதம் |
ஸௌமித்ரிர் மே ஸகலு பகவாந் ஸௌம்யஜாமாத்ரு யோகீ || 95

ஸுக்ரீவ நண்பனான அந்த ஸ்ரீராமர் வாநர முதலிகளுடன் ஓங்கட்டும். நித்யம் உடனிருந்து பிராட்டி க்ஷேமத்தை அளிக்கட்டும். எல்லா வகையிலும் அவர் அருள் கூடிய ஸுமித்ரா புத்ரரான (உமக்கு) மணவாள மாமுனிகளுக்கு வெற்றி உண்டாகட்டும்.

यस्मादेतद्यदुपनिषदामप्रमेयं प्रमेयं |
कुर्वाणस्तत्सकलसुलभं कोमलैरेव वाक्यैः ||
नीरोगस्त्वं वरदगुरुणा नित्ययुक्तो धरित्रीं |
पाहि श्रीमन् ! वरवरमुने ! पद्मयोनेर्दिनानि || ९६॥

யஸ்மா தேதத் யதுப நிஷாதாம் அப்ரமேயம் ப்ரமேயம் |
குர்வாணஸ் தத் ஸகல ஸுலபம் கோமளைரேவ வாக்யை: ||
நீரோகஸ்த்வம் வரத குருணா நித்ய யுக்தோ தரித்ரீம் |
பாஹி ஸ்ரீமந் வரவரமுநே பத்ம யோநேர் திநாநி || 96

ஹே ஸ்ரீமானான வரவரமுநியே! எதிலிருந்து இந்த உலகம் ஏற்பட்டதோ, எது உபநிஷத்துகளுக்கும் எட்டாத விஷயமோ அதை ம்ருதுவான வார்த்தைகளால் எல்லாருக்கும் எளிதாக்கிக்கொண்டு நீர் ரோகமற்றவராக வரத குருவுடன் நித்யமாகச் சேர்ந்துகொண்டு இந்த பூமியை ப்ரஹ்மாயுள் உள்ளவரை பாலநம் செய்வீராக.

अपगतमतमानैः अन्तिमोपाय निष्टैः
अधिगतपरमार्थैः अर्थकामान्  अपेक्षैः ||
निखिलजनसुहृद्भिः निर्जित क्रोध लोभैः
वरवरमुनि भृत्यैः अस्तु मे नित्य योगः || ९७॥

அபகத கதமாநைரந்திமோபாய நிஷ்டை:
அதிகத பரமார்த்தைரர்த்த காமாநபேக்ஷை: ||
நிகில ஜந ஸுஹ்ருத்பி: நிர்ஜித க்ரோத லோபை:
வரவரமுநி ப்ருத்யை ரஸ்து மே நித்ய யோக:|| 97

மதம் மானம் என்று சொல்லக்கூடிய துர்க்குணங்களற்றவர்கள், சரமோபாயம் என்று சொல்லக்கூடிய ஆசார்ய நிஷ்டை உள்ளவர்கள், உண்மைப் பொருள் அறிந்தவர்கள், அர்த்தம் காமம் இவற்றை வெறுத்தவர்கள், எல்லா ஜனங்களுக்கும் நண்பர்களாயுள்ளவர்கள், –இவர்களுடன் எனக்கு ஸம்பந்தம் நித்யமாக இருக்கவேண்டும்.

वरवरमुनिवर्य चिन्तामहन्तामुषम् तावकीम्-
अविरतमनुवर्तमानानुमानावमानानिमान्  ||
निरुषधिपदभक्तिनिष्ठाननुष्ठाननिष्ठानहं |
प्रतिदिनमनुभूय भूयो न भूयासमायासभूः || ९८॥

வரவரமுநிவர்ய சிந்தா மஹம் தாம் உஷம் தாவகீம்
அவிரதமநுவர்த்த மாநா நமாநா வ மாநா நிமாந் ||
நிரவதி பத பக்தி நிஷ்டாந் அநுஷ்டா நநிஷ்டாநஹம்
ப்ரதி திந மநு பூய பூயோ ந பூயாஸ மாயா ஸ பூ: || 98

வரவரமுநியே! உமது விஷயமான சிந்தையை எப்போதும் அநுபவித்துக்கொண்டு ஓயாது அஹங்காரம் அவமானம் இவைகளை விட்டு உமது திருவடிகளில் பக்தி செலுத்துகின்ற அநுஷ்டான நிஷ்டர்களான இந்த பாகவதர்களை தினந்தோறும் அநுபவித்துக்கொண்டு மறுபடியும் ச்ரமத்துக்குக் காரணம் ஆகாதவனாக ஆகக் கடவேன்.

वरवरमुनिवर्यपादावुपादाय सौदामिनी-
विलसतिविभवेषु वित्तेषु पुत्रेषु मुक्तेषणाः ||
कतिचन यतिवर्यगोष्ठीबहिष्ठीकृतष्ठीवना |
निजहति जनिमृत्युनित्यानुवृत्या यदत्याहितम् || ९९॥

வரவரமுநிவர்ய பாதாவுபாதாய ஸௌதாமிநீ
விலஸித விபவேஷு வித்தேஷு புத்ரேஷு முக்தேஷணா: ||
கதி ச நயதி வர்ய கோஷ்டீ பஹிஷ்டீ க்ருதஷ்டீ வநா:
விஜஹதி ஜநி ம்ருத்யு நித்யாநுவ்ருத்யாய தத்யாஹிதம் || 99

வரவரமுநியே! உமது திருவடிகளைச் சரணமாக ஏற்று, மின்னல்போல் விளங்குகிற பெருமைகளிலும், தனங்களிலும், புத்ரர்களிடத்திலும் ஆசையை விட்டவர்களுக்கு எம்பெருமானாருடைய கோஷ்டியிலிருந்து கொண்டு சிலர் பிறவி மரணம் இவை தொடர்ந்து வருவதால் ஏற்படும் பயத்தை விடுகிறார்கள்.

निरवधिनिगमान्तविद्यानिषद्यानवद्यशयान् |
यतिपतिपदपद्मबन्धानुबन्धानुसन्धायिनः ||
वरवरमुनिवर्यसम्बन्धसम्बन्धसम्बन्धिनः |
प्रतिदिनमनुभूय भूयो न भूयासमायासभूः || १००॥

நிரவதி நிகமாந்த வித்யா நிஷத்யாந வத்யாசயான் |
யதிபதி பத்ம பந்தாநு பந்தாநு ஸந்தாயிந: ||
வரவர முநிவர்ய ஸம்பந்த ஸம்பந்த ஸம்பந்தின: |
ப்ரதிதிநமநுபூய பூயோ ந பூயாஸமாயாஸபூ: || 100

எல்லையற்ற வேதாந்த வித்யையைக் கற்றவர்களும், குற்றமற்ற மனம் படைத்தவர்களும், எதிராசருடைய திருவடித்தாமரைகளில் ஸம்பந்தத்தை தினந்தோறும் நினைப்பவர்களும் (ஆன) – ஹே வரவரமுநியே! உமது ஸம்பந்தம் பெற்றவர்களையும் தினந்தோறும் அநுபவித்துக்கொண்டு மறுபடி ஆயாஸத்தை அடைந்தவன் ஆகமாட்டேன்.

यन्मूलमाश्वजमास्यवतारमूलं |
कान्तोपयन्तृयमिनः करुणैकसिन्धोः ||
आसीदसत्सु गणितस्य ममाऽपि सत्ता-
मूलम् तदेव जगदभ्युदयैकमूलम् || १०१॥

யன்மூலமாஸ்வயுஜமாஸ்யவதார மூலம் |
காந்தோ பயந்த்ரு யமிந:கருணைக ஸிந்தோ: ||
ஆஸீத ஸத்ஸுகணிதஸ்ய மமாபி ஸத்தா மூலம் |
ததேவ ஜகதப்யுதயைக மூலம் || 101

கருணைக்கடலான ஸ்ரீ மணவாள மாமுனிகளுக்கு ஐப்பசி மாதத்தில் எந்த மூலம் அவதாரத் திருநக்ஷத்ரம் ஆகிறதோ – அஸத் என்பவைகளில் கணக்கிடப்பட்ட எனக்கு ஸத்தைக்கு அதுவே காரணமாக ஆயிற்று, அதுவே ஜகத்துக்கு க்ஷேம காரணமாகவும் ஆகிறது.

यदवतरनमूलम्  मुक्ति मूलं प्रजानां |
शठरिपुमुनि दृष्ठाम्नाय साम्राज्य मूलम् ||
कलिकलुष समूलोन्मूलनेमूलमेतत् |
स भवतु वरयोगी नः समर्तार्थमूलम् || १०२॥

யதவதரணமூலம் முக்தி மூலம் ப்ரஜானாம் |
சடரிபு முநி த்ருஷ்டாம்நாய ஸாம்ராஜ்ய மூலம் ||
கலி கலுஷ ஸமூலோன் மூலனே மூலமேதத் |
ஸ பவது வரயோகீ ந: ஸமர்த்தார்த்த மூலம் || 102

எந்த வரவரமுநி அவதாரத் திருநக்ஷத்ரமான மூலமானது ப்ரஜைகளுடைய முக்திக்கு காரணமாகவும், நம்மாழ்வாருடைய திவ்ய ஸூக்தியான ஸாம்ராஜ்யத்துக்கு மூலமாகவும் கலியுகத்தால் ஏற்பட்ட பாபத்தை வேருடன் களையக்  கூடியதாகவும் இருக்கிறதோ அப்படிப்பட்ட மணவாளமாமுனிகள் நமக்கு எல்லாப் பொருள்களுக்கும் மூலமாகிறார்.

मूलं शठारिमुखसूक्तिविवेचानायाः |
कूलं कवेरदुहितुस्समुपागतस्य ||
आलम्बनस्य मम सौम्यवरस्य जन्म |
मूलं विभाति सतुलं वितुलश्च चित्रम् || १०३॥

மூலம் சடாரி முக ஸூக்தி விவேசநாயா: |
கூலம் கவேரதுஹிது: ஸமுபாகதஸ்ய ||
ஆலம்பநஸ்ய மம ஸௌம்ய வரஸ்ய ஜந்ம |
மூலம் விபாதி ஸதுலம் விதுலம் ச சித்ரம் || 103

ஆழ்வாருடைய திருமுகத்திலுதித்த வாக்குகளைப் பரிசீலிப்பதற்குக் காரணமாயும் காவேரி நதியின் கரையை அடைந்த எனது ஆலம்பனமான ஸ்ரீ மணவாள மாமுனிகளுடைய அவதாரமான மூல திருநக்ஷத்ரம் துலா மாதத்துடன் கூடி நிகரற்றதாக, ஆச்சர்யமாக இருக்கிறது.

अनुदिनमनवद्यैः पद्यबन्धैरमीभिः –
वरवरमुनितत्वं व्यक्तमुद्धोषयन्तम् ||
अनुपदमनुगच्छनप्रमेयः श्रुतीनाम्-
अभिलषितमशेषं सयते  शेषशायी || १०४॥

அநுதிநமநவத்யை: பத்ய பந்தைரமீபி: |
வரவரமுநி தத்வம் வ்யக்த முத்கோஷயந்தம் ||
அநுபதமநுகச்சந் நப்ரமேயம் ச்ருதீநாம் |
அபிலஷித மஸேஷம் ச்ரூயதே ஸேஷசாயீ || 104

தினந்தோறும் குற்றமற்ற இந்த ச்லோகங்களால் மணவாள மாமுனிகளுடைய உண்மையை வெளிப்படையாகப் ப்ரகாசிப்பித்துக்கொண்டு அடிதோறும் பின்தொடர்ந்துகொண்டு வேதங்களுடைய அப்ரமேயமான வஸ்து(வான) ஸேஷ சாயீ கேட்கப் படுகிறார்.

जयतु यशसा तुङ्गं रङ्गं जगत्रयमङ्गलम् |
जयतु सुचिरं तस्मिन्भूमा रमामणिभूषणम् ||
वरदगुरुणा सार्द्धं तस्मै शुभान्यभिवर्द्धयन् |
वरवरमुनिः श्रीमान्रामानुजो जयतु क्षितौ || १०५॥

ஜயது யசஸா துங்கம் ரங்கம் ஜகத் த்ரய மங்களம் |
ஜயது ஸுசிரம் தஸ்மிந் பூமா ரமாமணி பூஷணம் ||
வரத குருணா ஸார்த்தம் தஸ்மை ஸுபாந்யபிவர்த்தயந் |
வரவரமுநி: ஸ்ரீமாந் ராமாநுஜோ ஜயது க்ஷிதௌ || 105

உயர்ந்த கீர்த்தியையுடைய மூவுலகங்களுக்கு மங்களகரமான ஸ்ரீரங்க திவ்ய தேசம் ஜய சீலமாக இருக்கட்டும். வெகு காலமாக அங்கே  பூ தேவி ஸ்ரீ தேவிகளுக்கு ஆபரணம் போன்ற பெருமாளும் ஜய சீலமாக இருக்கட்டும். வரத குருவுடன் அங்கே சுபங்களை வ்ருத்தி செய்துகொண்டு ஸ்ரீமானான ராமாநுஜ முநியும் மணவாள மாமுநியும் வாழட்டும்.

पठति शतकमेतत् प्रत्यहम् यः सुजानन् |
स हि भवति निधानं सम्पदामीप्सितानाम् ||
प्रशमयति विपाकं पातकानां गुरूणां |
प्रथयति च निदानं पारमाप्तुं  भवाब्धेः || १०६॥

படதி ஸததமேதத் ப்ரத்யஹம் ய: ஸுஜந்மா  |
ஸஹி பவதி நிதாநம் ஸம்பதாமீப்ஸிதாநாம்  ||
ப்ரஸமயதி விபாகம் பாதகாநாம் குரூணாம் |
ப்ரதயதி ச நிதாநம் பாரமாப்தும் பவாப்தே: || 106

எந்த நற்பிறவி எடுத்தவன் இந்த நூறு ச்லோகங்களையும் தினந்தோறும் படிக்கிறானோ அவனுக்கு, இது விருப்பமான ஸம்பத்துகளுக்குக் காரணமாகிறது. பெரிய பாபங்களுடைய பரிபாக தசையைத் தணிக்கிறது. ஸம்ஸார ஸாகரத்தின் கரையைக் கடக்க முக்ய காரணமாகத் திகழ்கிறது.

इति श्री सौम्यजामातृयोगीन्द्रचरणाम्बुजषट्पदैरष्टदिग्गजान्तर्भूतिश्र्चरमपर्वनिष्ठाग्रेसरैः
श्रीदेवराजाचार्यगुरुवर्यैः प्रसादितं श्रीवरवरमुनिशतकं समाप्तम् ||

ஸ்ரீ வரவர முநி சதகம் ஸமாப்தம் |
வரவர முனி சதகம்: தாமல் ஸ்வாமியின் எளிய பொழிப்புரை முற்றியது|
எறும்பியப்பா திருவடிகளே சரணம் | ஸ்ரீ தேவராஜ குரவே நம: |
ஆழ்வார் எம்பெருமானார் ஜீயர் திருவடிகளே சரணம் |

வலைத்தளம் – http://divyaprabandham.koyil.org

ப்ரமேயம் (குறிக்கோள்) – http://koyil.org
ப்ரமாணம் (க்ரந்தங்கள்) – http://granthams.koyil.org
ப்ரமாதா (ஆசார்யர்கள்) – http://acharyas.koyil.org
ஸ்ரீவைஷ்ணவக் கல்வி வலைத்தளம் – http://pillai.koyil.org

வரவரமுனி சதகம் 9

Published by:

ஸ்ரீ: ஸ்ரீமதே சடகோபாய நம: ஸ்ரீமதே ராமாநுஜாய நம: ஸ்ரீமத் வரவரமுநயே நம:

வரவரமுனி சதகம்

<< பகுதி 8

Image result for manavala mamunigal azhvaar tirunagari

अन्तस्ताम्यन्रघुपतिरसावन्तिके त्वामदृष्ट्वा |
चिन्ताक्रान्तो वरवरमुने ! चेतसो विश्रमाय ||
त्वन्नामैव श्रुतिसुखमिति श्रोतुकामो मुहुर्मां |
कृत्यैरन्यैः किमिह तदिदं कीर्तयेति ब्रवीति || ८१||

அந்தஸ்தாம் யந் ரகுபதி ரஸாவந்திகே த்வாமத்ருஷ்ட்வா |
சிந்தாக்ராந்தோ வரவரமுநே சேதஸோ விச்ரமாய ||
த்வந் நாமைவ ச்ருதி ஸுகமிதி  ச்ரோது காமோ முஹுர்மாம் |
க்ருத்யைரந்யை: கிமிஹ ததிதம் கீர்த்தயேதி ப்ரவீதி || 81.

மனதிற்குள் தபித்துக் கொண்டிருக்கும் இந்த ரகுபதி அருகில் உம்மைக் காணாமல் கவலையுற்றவராக, உள்ளம் ஆறுதலடைய வந்து உமது திருநாமமே காதுக்கு இனிமையானது என்று கேட்க விரும்பியவராக, அடிக்கடி வேறு வ்யாபாரங்களால் என்ன பயன்? அந்தத் திருநாமத்தையே கூறுவாயாக என்று சொல்லுகிறார்.

भुङ्क्ते नैव प्रथमकवले यस्त्वया नोपभुक्ते |
निद्रा नैव स्पृशति सुत्दृदं त्वां विना यस्य नेत्रे ||
हीनो येन त्वमसि सलिलोत्क्षिप्तमीनोपमानः |
कोऽसौ सोढुं वरवरमुने! राघवस्त्वद्वियोगम् || ८२||

புங்க்தே நைவ ப்ரதமகபலே  யஸ்த்வயா நோப புக்தே |
நித்ரா நைவ ஸ்ப்ருசதி ஸுஹ்ருதம் த்வாம் விநா யஸ்ய  நேத்ரே ||
ஹீநோ யேந த்வமஸி ஸலிலோ க்ஷிப்த மீநோப மாந: |
கோஸௌ ஸோடும் வரவரமுநே! ராகவஸ்த்வத்  வியோகம் || 82.

ஹே வரவரமுநியே! உம்மால் அநுபவிக்கப் படாத போது முதல் கவளத்தில் எவன் அநுபவிக்கிறதில்லையோ, நண்பனான உம்மை விட்டு எவர் கண்களைத் தூக்கம் தொடுவதில்லையோ எவர் நீர் இல்லாமல் ஜலத்திலிருந்து எடுத்துப்  போடப்பட்ட மீன்போல் துடிக்கிறாரோ – உமது பிரிவைப் பொறுக்கவல்ல இந்த ராகவன் யார்?

पत्रं मूलं सलिलमपि यत्पाणिनोपात्दृतं ते |
मात्रा दत्तादपि बहुमतं पत्युरेतद्रघूणाम्  ||
शाखागेहं समजनि विभोः सम्मतं सौघशृङ्गं |
भूत्वा वासो महदपि वनं भोगभूमिस्त्वयाऽभूत् || ८३||

பத்ரம் மால்யம் ஸலில மபியத் பாணிநோ பாஹ்ருதம் தே |
மாத்ரா தத் தாதபி பஹுமதம் பத்யுரேதத் ரகூணாம் ||
சாகா கேஹம் வரவரமுநே ஸம்மதம் ஸௌரச்ருங்கம் |
பூத்வா வாஸோ மஹதபி வநம் போக பூமிஸ் த்வயா பூத் || 83

ஹே வரவரமுநியே! உமக்குக் கையால் அளிக்கப்பட்ட இலையாகிலும் புஷ்பமாகிலும் ஜலமேயாகிலும் தாயால் அளிக்கப் பட்டதைவிட மேலாக எண்ணப்பட்டது. இது  ஸ்ரீராமனுக்கு விளையாடுகிற வீடு மாளிகையாகி பெரிய காடும் உம்முடன் வாழ போக பூமியாகிவிட்டது.

अध्वश्रान्तिं हरसि सरसैरार्द्रशाखासमीरैः |
पादौ संवाहयसि कुरुषे पर्णशालां विशालाम् ||
भोज्यं दत्वा वरवरमुने ! कल्पयन् पुष्पशय्यां |
पश्यन्धन्यो निशिरघुपतिं पासि पत्नीसहायम् || ८४||

அத்வ ச்ராந்திம் ஹரஸி ஸரஸை ரார்த்ர சாகா ஸமீரை: |
பாதௌ ஸம்வாஹயஸி குருஷே பர்ணசாலாம் விசாலாம் ||
போஜ்யம் தத்வா வரவரமுநே! கல்பயந் புஷ்ப சய்யாம் |
பச்யந் தன்யோ நிசி ரகுபதிம் பாத்தி பத்நீ ஸஹாயம் || 84

ஹே வரவரமுநியே! ஈரமான கிளைகளில் பட்டு வருகின்ற ரஸத்துடன் கூடிய காற்றால் வழி நடந்த ச்ரமத்தைப் போக்குகின்றீர்; பாதங்களைப் பிடிக்கின்றீர்; விசாலமான பர்ணசாலையை அமைக்கின்றீர். உணவை அளித்து இரவில் புஷ்பப் படுக்கையை ஏற்படுத்தி தேவிகளுடனிருக்கும் ஸ்ரீ ராமனைக்கண்டு புண்யசாலியாக ரக்ஷித்துக்கொண்டிருக்கிறீர்.

पश्यन्नग्रे परिमितहितस्निग्धवाग्वृत्तियोगं |
सद्यः शोकप्रशमनपरं सान्त्वयन्तं भवन्तम् ||
प्राज्ञो जज्ञे स खलु भगवान्दूयमानो वनान्ते |
पश्चात्कर्तुं वरवरमुने ! जानकीविप्रयोगम् || ८५||

பச்யந் நக்ரே பரிமித ஹித: ஸ்நிக்த வாக் வ்ருத்தி யோகம் |
ஸத்யச் சோக ப்ரஸமந: பரம் ஸாந்த்வயந்தம் பவந்தம் ||
ப்ராக்ஞயோ ரக்ஜியே ஸகலு பகவாந் தூயமாநோ வநாந்தே |
பஸ்சாத் கர்த்தும் வரவரமுநே ஜாநகீ விப்ரயோகம் || 85

ஹே வரவரமுநியே! சுருக்கமும், ஹிதமும், அன்பும் நிறைந்த, (வார்த்தை) தற்சமயம் சோகத்தைக் குறைக்க வல்ல நல்வார்த்தை கூறுகிற உம்மை எதிரில் பார்த்து அந்த பகவானான ஸ்ரீராமனே காட்டில் வருந்துபவராக  இருந்தும் பிராட்டியின் பிரிவை மறைப்பதற்கு அறிஞராக ஆனார்.

सुग्रीवो नश्शरणमिति यत्सूनृतं भ्रातुरर्थे |
पम्पातीरे पवनजनुषा भाषितं शोभते ते ||
कालातीते कपिकुलपतौ देव तत्रैव पश्चात्
चापं धून्वन्वरवरमुने यद्भवान्निग्रहेऽभूत् || ८६||

ஸுக்ரீவோ ந: ஶரணமிதி ய: ஸூந்ருதம் ப்ராதுரர்த்தே |
பம்பா தீரே பவந ஜநுஷா பாஷிதம் சோபதே தே ||
காலாதீதே கபிகுல பதௌ தேவ தத்ரைவ பஶ்சாத் |
சாபம் தூந்வந் வரவரமுநே யத் பவாந் நிக்ரஹே பூத் || 86

ஹே வரவரமுநியே! தம் ப்ராதாவுக்காக எங்களுக்கு ஸுக்ரீவன் ரக்ஷகனாக வேண்டும் என்று பம்பைக் கரையில் வாயு குமாரனான ஹநுமானுடன் வார்த்தை அழகாக இருக்கிறது. காலம் கடந்தபின் அந்த ஸுக்ரீவனிடத்தில் அங்கேயே பிறகு வில்லை அசைத்துக்கொண்டு அவனை அடக்குவதில் முயற்சி உள்ளவராக ஆனீர்.

यस्मिन्प्रीतिं मदभिलषितमार्यपुत्रो विधत्ते |
येनोपेतः स्मरति न पितुस्सोऽतिवीरो गतिर्मे ||
इत्येवं त्वां प्रति रघुपतिप्रेयसी सन्दिशन्ती-
व्यक्तं देवी वरवरमुने तत्वमाह त्वदीयम् || ८७||

யஸ்மின் ப்ரீதிம் மதபிலஷிதாம் ஆர்ய புத்ரோ விதத்தே |
யே நோ பேத: ஸ்மரதி ந பிது:ஸோS தி வீரோ கதிர்மே ||
இத்யேவம் த்வாம் ப்ரதி  (ரகுபதி) ப்ரேயஸீ ஸந்திஸந்தீ |
வ்யக்தம் தேவீ வரவரமுநே தத்வமாஹ த்வதீயம் || 87

ஹே வரவரமுநியே! ஸ்ரீ ஸீதாப்பிராட்டி உம்மைப் பற்றிக் கூறுவது: பெருமாள் எனக்குப் ப்ரியமான அன்பை எவரிடத்தில் செலுத்துவாரோ, எவருடன் கூடியபோது தம் தந்தையையும் நினைப்பதில்லையோ, அப்படிப் பட்ட வீரரே எனக்குக் கதி ஆகிறார்– என்று உம்மைப் பற்றி இவ்வாறு கூறுகிறார். வெளிப்படையான உமது விஷயமான உண்மையைக் கூறுகிறார்.

बानैर्यस्य ज्वलनवदनैर्वाहिनी वानराणां
वात्यावेगभ्रमितजलदस्तोमसाधर्म्यमेति ||
सोऽयं भग्नो वरवरमुने ! मेघनादश्शरैस्ते
रक्षोनाथः कथमितिरथा हन्यते राघवेण || ८८||

பாணைர் யஸ்ய ஜ்வலந வதநைர்வாஹிநீ  வாநராணாம் |
வாத்யா வேக ப்ரமிதஜலதஸ் தோம ஸாதர்ம்ய மேதி ||
ஸோ யம் பக்நோ வரவரமுநே மேகநாதச் சரைஸ்தே
ரக்ஷோநாத: கதமிதரதா ஹான்யதே ராகவேண || 88

அக்நியை முகத்தில் வைத்துக்கொண்டுள்ள எவருடைய பாணங்களால் வாநரங்களுடைய சேனை சுழற்காற்றின் வேகத்தால் சுழற்றப்பட்ட மேகக் கூட்டங்களின் ஸாம்யத்தைப் பெறுகிறதோ அப்படிப்பட்ட இந்த்ரஜித் உம்மால் கொல்லப்பட்டான். இல்லாவிட்டால் ராமனால் எப்படி ராவணன் கொல்லப்படுவான்?

पृथ्वीं भित्वा पुनरपि दिवं प्रेयसीमश्नुवानां
दृष्ट्वा श्रीमद्वदनकमले दत्तदृष्टिः प्रसीदन् ||
प्रेमोदग्रैर्वरवरमुने ! भृत्यकृत्यैस्त्वदीयैः |
नीतः प्रीतिं प्रतिदिनमसौ शासिता नैर्ऋतीनाम् || ८९||

ப்ருத்வீம் பித்வா புந ரபி திவம் ப்ரேயஸீ மச்னுவானாம் |
த்ருஷ்ட்வா ஸ்ரீமத் வதன கமலே தத்த த்ருஷ்டி: ப்ரஸீதந் ||
ப்ரேமோ தக்ரை: வரவரமுநே ப்ருத்ய க்ருத்யைஸ் த்வதீயை:
நீத: ப்ரீதிம் ப்ரதி திநமஸௌ சாஸி தாநை ருதாநாம். 89

ஹே வரவரமுநியே! மறுபடி பூமியைப் பிளந்துகொண்டு ஸ்வர்கத்தை அடைகின்ற காதலியைப் பார்த்துக்கொண்டு ஒளி வீசுகின்ற முகத் தாமரையைப் பார்த்துக்கொண்டு அன்பு நிறைந்த உமது அடிமைக் கார்யங்களால் அரக்கர்களுக்கு சிக்ஷகரான இந்த ஸ்ரீராமர் தினந்தோறும் ப்ரீதியை அடைவிக்கப் படுகிறார்.  

सोदर्येषु त्वमसि दयितो यस्य भृत्यस्सुत्दृद्वा |
सोढव्योऽभूत्त्वयि सहचरे जानकीविप्रयोगः ||
ध्यायन्ध्यायन्वरवरमुने ! तस्य ते विप्रयोगं |
मन्येऽनिद्रामरतिजनितां मानयत्यग्रजोऽयम् || ९०||

சோதர்யேஷு த்வமஸி தயிதோ யஸ்ய ப்ருத்யுஸ் ஸுஹ்ருத்வா |
ஸோடவ்யோ பூத் த்வயி ஸஹ சரே ஜாநகீ விப்ரயோக: ||
த்யாயம் த்யாயம் வரவரமுநே! தஸ்ய தே விப்ரயோகம்  |
மந்யே நித்ரா மரதி ஜநிதாம் மாநயத்யக்ரஜோயம் ||  90

எவருடைய நண்பனோ பணியாளோ அந்த ராமனுக்கு ஸஹோதரர்களில் நீர் அன்புக்குரியவர் ஏனென்றால் நீர் உடன் இருக்கும்போது பிராட்டியின் பிரிவு அவருக்குப் பொறுக்கத் தக்கதாக இருந்தது. ஹே வரவரமுநியே! உமது பிரிவை நினைத்து நினைத்து வெறுப்பாலுண்டான நித்ரையாக இந்த மூத்த ஸஹோதரர் கௌரவிக்கிறார்.

வலைத்தளம் – http://divyaprabandham.koyil.org

ப்ரமேயம் (குறிக்கோள்) – http://koyil.org
ப்ரமாணம் (க்ரந்தங்கள்) – http://granthams.koyil.org
ப்ரமாதா (ஆசார்யர்கள்) – http://acharyas.koyil.org
ஸ்ரீவைஷ்ணவக் கல்வி வலைத்தளம் – http://pillai.koyil.org

வரவரமுனி சதகம் 8

Published by:

ஸ்ரீ: ஸ்ரீமதே சடகோபாய நம: ஸ்ரீமதே ராமாநுஜாய நம: ஸ்ரீமத் வரவரமுநயே நம:

வரவரமுனி சதகம்

<< பகுதி 7

Image result for manavala mamunigal tirupati

पश्यन्नेवं प्रभवति जनो नेर्ष्यितुं त्वत्प्रभावं |
प्राज्ञैरुक्तं पुनरपि हसन्दर्शयत्यभ्यसूयाम् ||
नश्यत्यस्मिन्  वरवरमुने ! नाथ ! युक्तं तदस्मिन् |
प्रत्यक्षं तत्परिकलयितुं तत्वमप्राकृतं ते || ७१||

பஶ்யந்நேவம் ப்ரபவதி ஜநோ நேக்ஷிதும் த்வத் ப்ரபாவம் |
ப்ராஞைருக்தம் புநரபி ஹஸந் தர்சயத்யப்யஸூயாம் ||
நஸ்யத்(யஸ்மின்) யேவம் வரவரமுநே நாதயுக்தம் ததஸ்மிந் ||
ப்ரத்யக்ஷம் யத் பரிகலயிதும் தத்வ மப்ராக்ருதம் தே. || 71

பார்த்துக்கொண்டிருக்கும்போதே உமது பெருமையை அறிய முடியவில்லை. பெரியோர்கள் சொல்லக்கேட்டுச் சிரித்துக்கொண்டு பொறாமையைக் காட்டுகிறான். நாதா வரவரமுநியே இப்படி இவன் அழிகிறான். அது இவனிடத்தில் யுக்தமே. ஏனென்றால் உமது அப்ராக்ருதமான உண்மையை இந்த்ரியங்களால் அறியப்போகாதல்லவா?

सत्वोन्मेषप्रमुषितमनःकल्मषैः सत्वनिष्ठैः |
सङ्गं त्यक्त्वा सकलमपि यः सेव्यसे वीतरागैः ||
तस्मै तुभ्यं वरवरमुने ! दर्शयन्नभ्यसूयां |
कस्मै कृत्वा किमिव कुमतिः कल्पतामिष्टिसिद्ध्यै || ७२||

ஸத்வோன்மேஷ ப்ரமுஷித மந:கல்மஷைஸ் ஸத்வ நிஷ்டை: |
ஸங்கம் த்யக்த்வா ஸகலமபிய: ஸேவ்யஸே வீத ராகை: ||
தஸ்மை துப்யம் வரவரமுநே தர்சயந் நப்யஸூயாம் |
கஸ்மை க்ருத்வா கிமிவ குமதி கல்பதாமிஷ்ட ஸித்யை: || 72

ஸத்வ குண வளர்ச்சியால் அபஹரிக்கப்பட்ட மன மலங்களையுடைய ஸத்வ நிஷ்டர்களால், எல்லாப் பற்றையும்விட்டு ஆசையற்றவர்களால் ஸேவிக்கப்படுகிற உமது விஷயத்தில் பொறாமையைக் காட்டிக்கொண்டு கெட்டபுத்தியுள்ள நான் யாருக்கு இஷ்டமானதைச் செய்ய வல்லவன்?

दिव्यं तत्ते यदिह कृपया देवदेवोपदिष्टं |
तत्वं भूयाद्वरवरमुने ! सर्वलोकोपलभ्यम् ||
व्यक्ते तस्मिन् विदधति भवद्वैभवद्वेषिणो ये |
द्वेषं त्यक्त्वा सपदि दुरितध्वंसिनीं त्वत्सपर्याम् || ७३||

திவ்யம் தத்தே யதிஹ க்ருபயா தேவதேவோபதிஷ்டம் |
தத்வம் பூயாத் வரவரமுநே ஸர்வ லோகோபலப்யம் ||
வ்யக்தே தஸ்மிந் விதததி பவத் த்வேஷினோயே |
த்வேஷம் த்யக்த்வா ஸபதி துரித த்வம்ஸிநீம் த்வத் ஸபர்யாம் || 73

ஹே வரவரமுநியே! எல்லா ஜனங்களாலும் அறியக்கூடிய எம்பெருமானால் க்ருபையுடன் உபதேசிக்கப்பட்ட உமக்குத் தத்வமுண்டாக வேணும். வ்யக்தமான அந்தத் தத்வத்தில் உமது பெருமையை த்வேஷிக்கிறவர்கள் உடனே பாபத்தைப் போக்குகின்ற உமது பூஜையை த்வேஷத்தை விட்டுச் செய்கிறார்கள்.

केचित्स्वैरं वरवरमुने! केशवं संश्रयन्ते |
तानप्यन्ये तमपि सुधियस्तोषयन्त्यात्मवृत्त्या ||
त्वत्तो नाऽन्यत्किमपि शरणं यस्य सोयं त्वदीयो
भृत्या नित्यं भवति भवतः प्रेयसां प्रेमपात्रम् || ७४||

கேசித் ஸ்வைரம்வரவரமுநே கேசவம் ஸம்ச்ரயந்தே  |
தாநப்யந்யே தமபி ஸுதிய: தோஷயந்த்யாத்ம வ்ருத்யா ||
த்வத்தோ நான்யத் கிமபி ஸரணம் யஸ்ய ஸோயம் த்வதீய: |
ப்ருத்யோ நித்யம் பவதி பவத: ப்ரேயஸாம் ப்ரேம பாத்ரம் || 74

ஹே வரவரமுநியே சிலர் தாமாகவே எம்பெருமானை ஆச்ரயிக்கிறார்கள். அவர்களையும் எம்பெருமானையும் பிற புத்திமான்கள் தமது கர்மத்தால் மகிழ்ச்சி அடையச் செய்கிறார்கள். உம்மைத் தவிர வேறு ரக்ஷகர் இல்லாத எனக்கு மிக்க  அன்புக்குரியவராயிருக்கிறீர்.

दीने पूर्णां भवदनुचरे देहि दृष्टिं दयाऽऽर्द्रां  |
भक्त्युत्कर्षं वरवरमुने ! तादृशं भावयन्तीम् ||
येन श्रीमन् ! द्रुतमहिमतः प्राप्य युष्मत्पदाब्जं |
त्वद्विश्लेषे तनुविरहितस्तत्र लीनो भवेयम् || ७५||

தீனே பூர்ணாம் பவதநுசரே தேஹி த்ருஷ்டிம் தயார்த்ராம் |
பக்த்யுத்கர்ஷம் வரவரமுநே தாத்ருசம் பாவயந்தீம் ||
யேந ஸ்ரீமந் த்ருத மஹமித: ப்ராப்ய யுஷ்மத் பதாப்ஜம் |
த்வத் விஶ்லேஷே தநு விரஹித: தத்ர லீனோ பவேயம் || 75

ஹே வரவரமுநியே உமது கருணை தோய்ந்த கடாக்ஷத்தைப் பூர்ணமாக எளியவனான உமது பணியாளனான அடியேனிடத்தில் வைப்பீராக. அந்தக் கடாக்ஷமே உம்மிடத்தில் மேலான பக்தியைத் தரவல்லது. அந்தக் கடாக்ஷத்தாலேயே இங்கிருந்து உமது திருவடித் தாமரையை அடைந்து உமது பிரிவு ஏற்படும்போது சரீரமற்றவனாக அங்கேயே மறைந்தவனாவேன்.  

त्वत्पादाब्जं भवतु भगवन् दुर्लभं दुष्कृतो मे |
वासोऽपि स्यात् वरवरमुने ! दूरतस्त्वत्प्रियाणाम् ||
त्वद्वैमुख्याद्विफलजनुषो ये पुनस्तूर्णमेषां |
दूरीभूतः क्वचनगहने पूर्णकामो भवेयम् || ७६||

த்வத் பாதாப்ஜம் பவது பகவந் துர்லபம் துஷ்க்ருதோ மே |
வாஸோபிஸ்யாத் வரவரமுநே! தூரதஸ்த்வத் ப்ரியாணாம் ||
த்வத் வைமுக்யாத் விபல ஜநுஷோ யே புநஸ் தூர்ண மேஷாம் |
தூரீ பூத: க்வசந கஹநே பூர்ண காமோ பவேயம் || 76

மஹா பாபியான அடியேனுக்கு தேவரீர் திருவடித் தாமரை துர்லபமாகவே இருக்கட்டும். அடியேனுக்கு வாஸமோ உமது பக்தர்களுக்கு வெகு தூரத்திலேயே அமையட்டும். எவர்கள் உம்மிடத்தில் பராங் முகமாயிருந்து பிறந்த பயனை வீணாக்குகிறார்களோ அவர்களுக்கு வெகு தூரத்தில் எங்காவது காட்டில் இருந்துகொண்டு என் விருப்பம் நிறைந்தவனாக வேணும்.            

सिम्हव्याघ्रौ सपदि विपिने पन्नगः पावको वा-
कुर्युः प्राणान्तकमपि भयं को विरोधस्ततो मे ||
नैते दोषग्रहणरुचयस्त्वत्प्रियैर्निर्निमित्तैः
नानाजल्पैर्वरवरमुने ! नाशयन्त्यन्तिकस्थान् || ७७||

ஸிம்ஹ வ்யாக்ரௌ ஸபதி விபிநே பந்நக: பாவகோவா  |
குர்யு: ப்ராணாந்தகமபி பயம் கோ விரோதஸ்ததோ மே ||
நை தே தோஷ க்ரஹண ருசயஸ் த்வத் ப்ரியைர் நிர்நிமித்தை: |
நாநா ஜல்பைர் வரவரமுநே நாசயந்த்யந்திகஸ்தாந் || 77

புலி சிங்கம் ஸர்ப்பம் நெருப்பு இவைகள் காட்டில்  உடனே எனக்கு உயிருக்கு ஆபத்தைக் கொடுத்தாலும் அவைகளிடத்தில் எனக்கு பயம் ஏது? வரவரமுநியே! குற்றங்களைக் காணும் இவர்கள் உமக்குப் ப்ரியமில்லாத, காரணமற்ற பல வாதங்களால் அருகிலுள்ளவர்களை அழிப்பதில்லை.

त्वद्भृत्यानामनुभजति यस्सर्वतो भृत्यकृत्यं |
तद्भृत्यानामभिलषति यस्तादृशं प्रेष्यभावम् ||
मद्भ्रुत्योऽसाविति मयि स चेत्सानुकल्पैरपाङ्गैः |
क्षेमं कुर्याद्वरवरमुने ! किं पुनश्शिष्यते मे || ७८||

த்வத் ப்ருத்யாநா மநு பஜதி ய:ஸர்வதோ ப்ருத்ய க்ருத்யம் |
தத் ப்ருத்யாநாமபிலஷதி ய: தாத்ருசம் ப்ரேஷ்ய பாவம் ||
மத்ப்ருத்யோ ஸா விதிமயி ஸ சேத் ஸாநுகம்பை ரபாங்கை: |
க்ஷேமம் குர்யாத் வரவரமுநே| கிம் புன: ஶிஷ்யதே மே ||78

எல்லா விதத்திலும் எவர்கள் தேவரீரிடத்தில் அடிமைத்தொழில் புரிகிறார்களோ அவ்வடியவர்களிடத்தில் அடிமையை எவர் விரும்புகிறார்களோ அவர் அடியேனை இவன் நமது அடியவன் என்று தயையுடன் கடாக்ஷிப்பாரானால் அதுவே க்ஷேமகரம். அடியேனுக்கு வேறு என்ன தேவை?

क्वाऽहं क्षुद्रः कुलिशत्दृदयो  दुर्मतिः क्वात्मचिन्ता |
त्रैयन्तानामसुलभतरं तत्परं क्वाऽऽत्मतत्वम् ||
इत्थम्भूते वरवरमुने! यत्पुनस्स्वात्मरूपं |
द्रष्टुं तत्तत्समयसदृशं देहि मे बुद्धियोगम् || ७९||

க்வாஹம் க்ஷுத்ர: குலிஸ ஹ்ருதய: துர்மதிக்வாத்ம சிந்தா |
த்ரய்யந்தானாமஸுலபதாம் தத்பரம் க்வாத்ம தத்வம் ||
இத்தம் பூ தே வரவரமுநே யத் புநஸ்வாத்ம ரூபம் |
த்ரஷ்டும் தத்தத் ஸமய ஸத்ருசம் தேஹிமே புத்தி யோகம் || 79

மிகவும் அல்பனான நான் எங்கே! உறுதியான நெஞ்சும் கெட்ட புத்தியும் உள்ளவன் ஆத்ம சிந்தை எங்கே! உபநிஷத்துகளுக்கே துர்லபமான ஆத்ம தத்வம் எங்கே! ஹே வரவரமுநியே! நிலைமை இவ்வாறிருக்கும்போது ஸ்வாத்ம ரூபத்தை அறிவதற்கு அந்தந்த சமயத்துக்கு ஏற்றவாறு புத்தியை அளிப்பீராக.

सोढुं ताद्रुग्रघुपरिवृढो न क्षमस्त्वद्वियोगं |
सद्यः काङ्क्षन् वरवरमुने ! सन्निकर्षं तवैषः ||
सायम्प्रातस्तव पदयुगं शश्वदुद्दिश्य दिव्यं |
मुञ्चन् बाष्पं मुकुलितकरो वन्दते हन्त मूर्ध्ना || ८०||

ஸோடும் தாவத் ரகு பரிவ்ருடோ ந க்ஷமஸ்த்வத் வியோகம் |
ஸத்ய காங்க்ஷந் வரவரமுநே ஸந்நிகர்ஷம் தவைஷ: ||
ஸாயம் ப்ராதஸ் தவபத யுகம் ஸச்வ துத்திச்ச திவ்யம் |
முஞ்சந் பாஷ்பம் முகுளித  கரோ வந்ததே ஹந்த மூர்த்நா || 80

ச்ரேஷ்டரான ஹே வரவரமுநியே! உமது பிரிவை ஸஹியாதவராக உடனே உமது ஸேவையை விரும்பி ஸாயங்கால வேளையிலும் காலை வேளையிலும் உமது இரண்டு திருவடிகளையும் உத்தேசித்து அடிக்கடி கண்ணீர் பெருக்கிக்கொண்டு கைகூப்பிய வண்ணம் சிரஸ்ஸால் வணங்குகிறார். ஆச்சர்யம்!

வலைத்தளம் – http://divyaprabandham.koyil.org

ப்ரமேயம் (குறிக்கோள்) – http://koyil.org
ப்ரமாணம் (க்ரந்தங்கள்) – http://granthams.koyil.org
ப்ரமாதா (ஆசார்யர்கள்) – http://acharyas.koyil.org
ஸ்ரீவைஷ்ணவக் கல்வி வலைத்தளம் – http://pillai.koyil.org

வரவரமுனி சதகம்  பகுதி 7

Published by:

ஸ்ரீ: ஸ்ரீமதே சடகோபாய நம: ஸ்ரீமதே ராமாநுஜாய நம: ஸ்ரீமத் வரவரமுனயே நம:

வரவரமுனி சதகம்

<< பகுதி 6

Image result for manavala mamunigal melkote

मन्त्रो दैवं फलमिति मया वाञ्छितं यद्यपि स्यात्
मध्ये वासो मलिनमनसामेवमेवं यदि स्यात् |
यद्वा किन्चित्त्वदनुभजनं सर्वदा दुर्लभं स्यात्
देहं त्यक्तुं वरवरमुने ! दीयतां निश्चयो मे || ६१||

மந்த்ரோ தைவம் பலமிதி  மயா வாஞ்சிதம் யஸ்யபிஸ்யாத்
மத்யே வாஸோ மலிந மநஸாமேவமேவம் யதிஸ்யாத் |
யத்வா கிஞ்சித் த்வதநு பஜநம் ஸர்வதா துர்லபம் ஸ்யாத்
தேஹம் த்யக்தும் வரவரமுநே தீயதாம் நிச்சயோ மே. || 61

மந்த்ரம் தேவதை பலம் இவை என்னால் விரும்பத்தக்கவையாக இருந்தால், கெட்ட எண்ணமுள்ள மனிதர் மத்தியில் எனக்கு வாஸம் இருக்குமானால், அல்லது உமது ஸேவை எனக்கு எல்லா விதத்திலும் துர்லபமாக இருக்குமானால் இந்த உடலை விட்டுப்போக எனக்கு நிச்சயத்தை உண்டாக்குவீராக!

आचार्यत्वं तदधिकमिति ख्यातमाम्नायमुख्यैः
एष श्रीमान् भवति भगवान् ईश्वरत्वं विहाय ||
मन्त्रं दाता वरवरमुने ! मन्त्ररत्नं त्वदीयं
देवः श्रीमान्  वरवरमुनेर्वर्तते देशिकत्वे || ६२||

ஆசார்யத்வம் தததிகமிதி க்யாதம் ஆம்நாய முக்க்யை:
ஏஷ ஸ்ரீமாந் பவதி பகவாந்! ஈஸ்வரத்வம் விஹாய ||
மந்த்ரம் தாதா வரவரமுநே மந்த்ர ரத்நம் த்வதீயம்
தேவஸ்ரீமாந் வரவரமுநிர் வர்த்ததே தேசிகத்வே || 62

வேத வாக்யங்களால் ஆசார்யனாக இருப்பது ஈஶ்வரத் தன்மைக்கு மேற்பட்டது எனக் கூறப்பட்டது என்று இந்த பகவான் ஈஶ்வரத்தன்மையை விட்டு ஹே வரவரமுநியே! உம்மிடத்தில் மந்த்ரத்தைக் கொடுப்பவராயும் உமது த்வயத்தையும் தேவனான ஶ்ரிய:பதியாகவும் ஆசார்யனாக இருப்பதிலும் இருக்கிறார்.

आत्मानात्मप्रमितिविरहात्पत्युरत्यन्तदूरो |
घोरे तापत्रितयकुहरे घूर्णमानो जनोऽयम् ||
पादच्छायां वरवरमुने ! प्रापितो यत्प्रसादात्
तस्मै देयं तदिह किमिव श्रीनिधे विद्यते ते || ६३||

ஆத்மாநாமாத்ம ப்ரமிதி விரஹாத் பத்யுரத்யந்த தூரே
கோரே தாபத்ரிதய குஹரே கூர்ணமாநோ ஜநோயம் ||
பாதச்சாயாம் வரவரமுநே ப்ராபிதோ யத் ப்ரஸாதாத்
தஸ்மை தேயம் ததிஹ கிமிவ ஸ்ரீநிதே வித்யதே தே || 63

ஜீவன் ப்ரக்ருதி என்னும் அறிவில்லாமல் எம்பெருமானுக்கு வெகு தூரத்தில் கடுமையான ஆத்யாத்மிகம், ஆதி தைவிகம், ஆதி பௌதிகம் என்று சொல்லக்கூடிய மூன்று வகையான தாபம் என்னும் பள்ளத்தில் சுழன்று கொண்டிருக்கிற இந்த ஜநம் வரவரமுநியே! எவர் அநுக்ரஹத்தால் எம்பெருமான் திருவடி நிழலை அடைவிக்கப்பட்டதோ அவருக்குக் கொடுக்கவேண்டியது (உமக்கு) இங்கு என்ன இருக்கிறது  எம்பெருமானே!

विख्यातं यद्रघुकुलपते विश्वतः क्ष्मातलेऽस्मिन्
नित्योदग्रं वरवरमुने ! निस्सपत्नं महत्वम् ||
पश्यन्नन्धः प्रकृतिविवशो बालिशो यादृशोऽयं |
तत्वं तस्य प्रकटयसि मे तादृशैरेव योगैः || ६४||

விக்யாதம் யத் ரகுகுல பதேர் விச்வத: க்ஷ்மாதசேஸ்மிந்
நித்யோதக்ரம் வரவரமுநே நிஸ்ஸபத்நம் மஹத்த்வம் ||
பஶ்யந் நந்த ப்ரக்ருதி விவசோ பாலிஸோ யாத்ருசோயம்
தத்வம் தஸ்ய ப்ரகடயஸி மே தாத்ருசைரேவ யோகை: || 64

இந்நிலவுலகில் நாற்புறங்களிலும் சக்கரவர்த்தி திருமகனுடைய எந்தப் பெருமை தினந்தோறும் வளர்ந்து ப்ரஸித்தமாக , எதிரில்லாமல் இருக்கிறதோ அதைப் பார்த்துக்கொண்டும் குருடனான இந்த பாலன் இந்த ப்ரக்ருதி வசமாக இருப்பவனுக்கு அவருடைய உண்மைகளை அப்படிப்பட்ட யோகங்களாலேயே (எனக்கு) வெளிப்படுத்துகிறீர்.

लक्ष्मीभर्तुः परमगुरुतां लक्षयन्ती गुरूणां |
पारम्पर्यक्रमविवरणी या हि वाणी पुराणी ||
अर्थं तस्याः प्रथयसि चिरादन्यतो यद्दुरापं |
दिव्यं तन्मे वरवरमुने ! वैभवं दर्शयित्वा || ६५||

லக்ஷ்மீ பர்த்ரு: பரம குருதாம் லக்ஷயந்தீ குரூணாம் |
பாரம்பர்ய க்ரம விவரணீ யாஹி வாணீ புராணீ ||
அர்த்தம் தஸ்யா: ப்ரதயதி சிராத் அந்யதோ யத்துராபம் |
திவ்யம் தன்மே வரவரமுநே வைபவம் தர்சயித்வா || 65

வரவரமுநியே! எந்தப் புராதன வாக்கான வேதம் குரு  பரம்பரையை விவரிப்பதாகப் பிராட்டியின் கணவனுக்குப் பரம குருவாக இருக்கும் தன்மையைக் குறிக்கிறதோ அதை வேறு ஒருவருக்கும் கிடைக்காத பொருளாக அந்தத் திவ்யமான வைபவத்தைக் காட்டிக்கொண்டு பொருளை விளக்குகிறீர்.

तत्वं यत्ते किमपि तपसा तप्यतामप्यृषीणां |
दूराद्दूरं वरवरमुनेदुष्कृतैकान्तिनो मे ||
व्याकुर्वाणः प्रतिपदमिदं व्यक्तमेवं दयावान्
नाथो नैतत्किमिति जगति ख्यापयत्यद्वितयिम् || ६६||

தத்வம் யத்தே கிமபி தபஸா தப்யதாமப்ய் ருஷீணாம்  |
தூராத் தூரம் வரவரமுநே! துஷ்க்ருதை காந்திநோ மே ||
வ்யாகுர்வாண ப்ரதி பதமிதம் வ்யக்தமேவம் தயாவாந்
நாதோ நைதத் கிமிதி ஜகதி க்யாபயத் யத்விதீயம். || 66

தவத்தினால் தபிக்கப்படுகிற முனிவர்களுக்கும் வெகு தூரத்திலுள்ள தத்வம் (ஆகிய தேவரீர்) பாபத்தையே நிரம்பப் பெற்றிருக்கும் எனக்கு அடிக்கடி தயையுடன் இவ்வாறு விவரித்துக்கொண்டு நாதனாக இருக்கிறீர். இது என்னவென்று இந்த உலகில் ஒருவராகவே வெளிப்படுத்துகிறீர்.

कालेकाले कमलजनुषां नास्ति कल्पायुतं किं |
कल्पेकल्पे हरिरवतरन् कल्पते किन्न मुक्त्यै ||
मृत्वामृत्वा तदपि दुरितैरुद्भवन्तो दुरन्तैः
अद्याऽपि त्वां वरवरमुने ! हन्त नैवाऽऽश्रयन्ते || ६७||

காலே காலே கமலஜநுஷாம் நாஸ்தி கல்பாயுதம் கிம் |
கல்பே கல்பே ஹரிரவதரன் கல்பதே கிம் ந முக்த்யை  ||
ம்ருத்வா ம்ருத்வா ததபி துரிதை ருத்பவந்தோ துரந்தை:
அத்யாபித்வாம் வரவரமுநே ஹந்த நைவாச்ரயந்தே || 67

ஹே வரவரமுநியே! அந்தந்தக் காலத்தில் ப்ரஹ்மாக்களுக்குப் பதினாயிரம் கல்பம் இல்லையா, கல்பந்தோறும் எம்பெருமான் அவதரித்து அவர்களுக்கு முக்தி அளிக்க வல்லவராகவில்லையா? முடிவில்லாத பாபங்களால் அவர்கள் இறந்து இறந்து பிறந்துகொண்டு இப்போதும் தேவரீரை ஆச்ரயிப்பதில்லை. மஹா கஷ்டம்! ஆச்சர்யம்!

कारागारे वरवरमुने ! वर्तमानश्शरीरे |
तापैरेष त्रिभिरपि चिरं दुस्तरैस्तप्यमानः ||
इच्छन्भोक्तुं तदपि विषयानेव लोकः क्षुधार्तो |
हित्वैव त्वां विलुठति बहिर्द्वारि पृथ्वीपतीनाम्  || ६८||

காரா காரே வரவரமுநே வர்த்தமானஸ் சரீரே |
தாபைரேஷத்ரிபிரபி சிரம் துஸ்தரைஸ் தப்யமாந: ||
இச்சந் போக்தும் ததபி விஷயானேவ லோக: க்ஷுதார்த்தோ |
ஹித்வைவ த்வாம் விலுடதி பஹிர்த்வாரி ப்ருத்வீ பதீநாம் || 68

ஹே வரவரமுநியே! உடல் என்னும் சிறையில் இருந்துகொண்டு தாண்டமுடியாத மூவகையான தாபங்களால் வெகு காலமாகத் தடுக்கப்பட்டவனாக இருந்தபோதிலும் இந்த ஜனம் விஷயங்களை அநுபவிப்பதிலே ஆசை கொண்டு பசியால் பீடிக்கப் பட்டவனாக உம்மைவிட்டு அரசர்களுடைய வெளி வாயிற்படிகளில் புரளுகிறான்.

मध्ये माम्सक्षतजगहनं  विड्भुजामेव भोज्यं |
दीनो वोढुं दृढमिति वपुश्चेष्टते रात्र्यहानि ||
भग्ने तस्मिन् परिणमति यः पातकी यातनाभ्यो |
देही नित्यो वरवरमुने ! केन जिज्ञासनीयः || ६९||

மத்யே மாம்ஸ க்ஷத ஜக ஹநம் விட் பூஜா மேவ போஜ்யம் |
தீநோ வோடும் த்ருடமிதி வபுஸ் சேஷ்டதேராத்ர்ய  ஹாநி ||
பக்னே தஸ்மிந் பரிணமதிய: பாதகீ யாதநாப்யோ |
தேஹீ நித்யோ வரவரமுநே!   கேன ஜிக்னாஸனீய: || 69

ஹே வரவரமுநியே! மத்தியில் மாம்ஸம் இரத்தம் இவைகளால் நிறைந்தும் அமேத்யத்தை ருசிப்பவர்களுக்கே அனுபவிக்கத்  தக்கதுமான இந்த உடலை சுமக்க திடமாக எண்ணி இந்த எளியவன் இரவும் பகலும் நடமாடுகிறான். அது முறிந்தவுடன் எந்தப்  பாபி நரக வேதனைகளில் ப்ரவ்ருத்திக்கிறானோ அவனுக்கு நிலையான உடலையுடைய ஜீவாத்மா எவனால் அறியத்தக்கது? ஒருவரும் அதை அறிய ஆவலுடையாரில்லை என்று பொருள்.                                                        

अल्पादल्पं क्षनिकमसकृद्दुष्कृतान्येव कृत्वा
दुःखोदग्रं सुखमभिलशन्दुर्लभैरिन्द्रियार्थैः ||
मोघं कृत्वा वरवरमुने ! मुक्तिमूलं शरीरं |
मज्जत्यन्धे तमसि मनुजस्त्वाप्रियस्त्वाप्रियाणाम् || ७०||

அல்பாதல்பம் க்ஷணிகமஸக்ருத் துஷ்க்ருதான்யேவ க்ருத்வா
து:கோதக்ரம் ஸுகமபிலக்ஷந் துர்லபை ரிந்திரியார்த்தை: ||
மோஹம் க்ருத்வா வரவரமுநே! முக்திமூலம் ஶரீரம் |
மஜ்ஜத்யந்தே தமஸி மநுஜஸ் தவப்ரியஸ் த்வத் ப்ரியாணாம். 70

ஹே வரவரமுநியே! மிகவும் சிறியவையும் க்ஷணத்தில் செய்யக்கூடியவையுமான  பாபங்களையே அடிக்கடி செய்துவிட்டு துக்கம் நிறைந்த ஸுகத்தை ஆசைப்பட்டு (அடைய முடியாத) இந்திரிய விஷயங்களால் முக்திக்குக் காரணமான சரீரத்தை வீணாக்கி உமதன்பர்களுக்கு வெறுப்பையூட்டிக்கொண்டு அந்த தமஸ் என்னும் நரகத்தில் மூழ்குகிறான்.

வலைத்தளம் – http://divyaprabandham.koyil.org

ப்ரமேயம் (குறிக்கோள்) – http://koyil.org
ப்ரமாணம் (க்ரந்தங்கள்) – http://granthams.koyil.org
ப்ரமாதா (ஆசார்யர்கள்) – http://acharyas.koyil.org
ஸ்ரீவைஷ்ணவக் கல்வி வலைத்தளம் – http://pillai.koyil.org

आर्ति प्रबंधं – ६०

Published by:

श्री:  श्रीमते शठकोपाय नम:  श्रीमते रामानुजाय नम:  श्रीमद्वरवरमुनये नम:

आर्ति प्रबंधं

<< पाशुर ५९

ramanuja.jpg (585×792)

उपक्षेप

आर्ति प्रबंधं के इस अंतिम पासुरम में मामुनिगळ विचार करतें हैं, “ हमें अपने लक्ष्य के विषय में और क्यों तृष्णा हैं? पेरिय पेरुमाळ से श्री रामानुज को सौंपें गए सर्वत्र, श्री रामानुज के चरण कमलों में उपस्थित उन्के सारे बच्चों के भी हैं।” यहीं अत्यंत ख़ुशी प्रकट करतीं हैं इस अति अद्भुध ग्रंथ की अंतिम पासुरम।  

 

मणवाळ मामुनिगळ तिरुवडिगळे शरणम!

पासुरम ६०

इंद अरंगत्तु इनिदु इरु नीयेन्ड्रु अरंगर

एंदै एतिरासर्क्कींद वरं सिंदै सैय्यिल

नम्मदंरो  नेंजमे नट्रादै सोमपुदल्वर

तम्मदंरो तायमुरै तान

 

शब्दार्थ

अरंगर  – पेरिय पेरुमाळ

इंद अरंगत्तु  – कोयिल (श्रीरंगम) में

इनिदु इरु नीयेन्ड्रु  – “श्रीरंगे सुखमास्व” (श्रीरंगम में सुखी रहो )कहें

एंदै एतिरासर्क्कु – मेरे पिता एम्पेरुमानार (से)

नेंजमे  – हे मेरे हृदय

सिंदै सैय्यिल  – अगर हम इस पर विचार करें तो

इंद वरं – पेरिय पेरुमाळ से एम्पेरुमानार को सौंपे गए वरदान

नम्मदंरो  – क्या यह सच नहीं हैं कि यह वर हमारा भी है ?

नट्रादै – एम्पेरुमानार हमारें पिता

तायमुरै तान – क्योंकि हमारें माता-पिता के

सोमपुदल्वर तम्मदंरो  – संपत्ति खुद बच्चों को जाता हैं

(मामुनि अपने हृदय को कहतें हैं, “ अत: हे मेरे प्रिय हृदय। अब हमारे लिए करने केलिए कुछ नहीं हैं, हमारा भोज अब भोज न रहा , क्योंकि श्री रामानुज कृपा से वर देकर, संकटों को मिटा चुके हैं।”)  

 

समाप्ति टिप्पणि

पेरिय पेरुमाल श्री रामानुज को नित्य विभूति (परमपद) और लीला विभूति (परमपद से अन्य सर्वत्र) अपनी सारी संपत्ति सौंपे। इसीलिए धाटी पञ्चकं के ५वे श्लोक से श्री रामानुज, “श्री विष्णु लोक मणि मण्डप मार्ग दायी” कहलातें हैं। एम्पेरुमानार सारें प्रपन्नों के नेता हैं और इन्हीं के प्रति “जीयर” तथा “यतींद्र प्रवणर” दिव्य नामों से पहचाने जाने वाले मणवाळ मामुनिगळ ने प्रपत्ति किया। मामुनि को सर्व श्रेष्ट और अंतिम लक्ष्य परमपदं प्राप्त हुआ और वहाँ भगवान और भागवतों के प्रति नित्य कैंकर्य भी मिला। इसका अर्थ यह है कि यहीं फल हर किसी को मिलेगा जो  एम्पेरुमानार के सद्भाव के पात्र हैं। अर्थात श्री रामानुज के दिव्य चरण कमलों में शरणागति करने पर हर किसी को उनका प्रेम तथा आश्रय प्राप्त होगा जो उन्हें नित्यानंद का निवास परमपदं तक पहुँचायेगा।

 

सरल अनुवाद

इस अंतिम पासुरं में श्री रामानुज के संबंध के कारण, प्रार्थना किये गए सारें वरों के प्राप्ति निश्चित होने के कारण मामुनि आनंद में हैं। यह संभव हैं  क्योंकि, जैसे गद्य त्रयं के पँक्तियो से प्रकट होता हैं : पेरिय पेरुमाळ ने अपनी सारे संपत्ति एम्पेरुमानार को सौंप दिए। एम्पेरुमानार के वत्स होने के कारण मामुनि को ख़ुशी है कि पेरिय पेरुमाळ से एम्पेरुमानार को सौंपे गए वे सारे विषय( शेष जीवन के समय में यहाँ कैंकर्य से लेकर परमपदं में नित्य कैंकर्य तक) वें (मामुनि) भी अनुभव कर सकतें हैं।

 

स्पष्टीकरण

मामुनि अपने हृदय को कहतें हैं, “हे मेरे प्रिय हृदय, “शरणागति गद्य” के शब्दों को स्मरण करतें हुए, हमारे पिता एम्पेरुमानार को पेरिय पेरुमाळ नें जो बताया उस विषय पर ध्यान करो। पहले पेरुमाळ कहें, “द्वयं अर्थानुसन्धानेन सहसदैवं वक्ता यावच्चरीर पादं अत्रैव श्रीरँगे सुखमास्व” .  इस्के पश्चात “शरीर पाद समयेतु” से शुरु और “नित्यकिंकरो भविष्यसि माते भूतत्र समशय: इति मयैव ह्युक्तम अतस्तवं तव तत्वतो मत्ज्ञान दरशनप्राप्तिशु निसशंसय: सुखमास्व” तक पेरुमाळ कहतें हैं। पेरिय पेरुमाळ हमारे पिता एम्पेरुमानार को शेष जीवन केलिए आवश्यक विषय(कैंकर्य ) तथा परमपदं में कैंकर्य भी सौंपे। विचार करने से एहसास होता हैं कि एम्पेरुमानार के बच्चें होने के कारण हमें भी यह सब प्राप्त होगा।  अत: प्रिय हृदय, खुद के रक्षा हेतु हमें कुछ भी नहीं करना है। अत: एम्पेरुमानार के कृपा के कारण हमें सर्व प्राप्त होगा। पेरिय पेरुमाळ परमपद जो नित्य विभूति है और अन्य सारा सृष्टि जो लीला विभूति है दोनों को एम्पेरुमानार को सौंपे। इसीलिए एम्पेरुमानार, धाटी पञ्चकं के ५वे श्लोक “श्री विष्णु लोक मणि मण्डप मार्ग दायी” से प्रशंसा किये जातें हैं। एम्पेरुमानार प्रपन्नों के नेता हैं और उन्के प्रति “जीयर” तथा “यतींद्र प्रवणर”नाम से पहचाने जाने वाले मणवाळ मामुनिगळ शरणागति किये। उन्हें परमपद पहुँच कर भगवान तथा भागवतों को नित्य कैंकर्य करने का सर्वश्रेष्ठ लक्ष्य प्राप्त हुआ।  अर्थात यहीं फल एम्पेरुमानार से सम्बंधित और उन्के सद्भाव के पात्र सारे जनों को यह प्राप्त होगा. और इससे हम समझ सकतें हैं कि एम्पेरुमानार के दिव्य चरण कमलों में शरणागति करने वाले सारे लोगो को स्वामि रामानुज के प्रेम और आश्रय प्राप्त होगा और इस दिव्य शुरुवात के संग ही वें सब निश्चित रूप में नित्यानंद की निवास परमपद को हमेशा केलिए प्राप्त करेँगे।

अनेकों बार एतिरासा! एतिरासा! पुकार कर मामुनिगळ यह संदेश देतें हैं कि एम्पेरुमानार यतियों के नेता हैं। उन्के सारे शिष्य स्वामि यतिराज के दिव्य नामों को लगातार  जप कर उन्को प्रशँसा करतें हैं। स्वामि के शिष्य होने के कारण, मामुनि “यद्यसुधसत्व:” के अनुसार यतिराज के दिव्य नामों को जपना अपना हक़ समझतें हैं। इसलिए मामुनिगळ हमें भी जपने को कहतें हैं:“एतिरासा! एतिरासा !    

जीयर तिरुवडिगळे शरणं

अडियेन प्रीती रामानुज दासी

आधार : http://divyaprabandham.koyil.org/index.php/2017/04/arththi-prabandham-60/

संगृहीत- http://divyaprabandham.koyil.org

प्रमेय (लक्ष्य) – http://koyil.org
प्रमाण (शास्त्र) – http://granthams.koyil.org
प्रमाता (आचार्य) – http://acharyas.koyil.org
श्रीवैष्णव शिक्षा/बालकों का पोर्टल – http://pillai.koyil.org