सप्त कादै – पासुरम् १ – भाग ३

श्री: श्रीमते शठकोप नम: श्रीमते रामानुजाय नम: श्रीमद् वरवर मुनये नम:

शृंखला

<<सप्त कादै – पासुरम् १ – भाग २

तत्पश्चात, जैसे “अवदारणमन्ये तु मध्यमान्तम् वदन्तिहि” और “अस्वातन्तर्यंतु जीवानाम् आधिक्यम् परमात्मन:। नमसाप्रोच्यते तस्मिन् नहन्ताममतोज्जिता” ।। [नम: जीवात्मा के पारतन्त्र्यम् (दासता) और परमात्मा के स्वातन्त्र्यम् (मुक्ति) की व्याख्या करता है। इस प्रकार नम: में अहंकार (शरीर को आत्म स्वरूप से भ्रमित होना) और ममकार (अधिकार की भावना) समाप्त हो जाते हैं], विळाञ्जोलैप् पिळ्ळै कृपापूर्वक उकारम् (प्रणवम् में) का अर्थ की पुष्टि करते हैं जो स्पष्ट रूप से दूसरों के प्रति दासता के निवारण को प्रकट करता है और भगवान के प्रति दासता का समर्थन करता है, और नम: जो स्पष्ट रूप से स्वयं के लिए अस्तित्व में रहने के योग्य न होकर और (भगवान के प्रति) परतन्त्र होने जैसे तथ्यों की व्याख्या प्रस्तुत करता है जो अचित (तत्व) के जैसा है, जिसका यहाँ स्पष्टीकरण किया है और पिछले भाग में नहीं समझाया गया।

अंदरङ्ग संबंधम् काट्टि-उकारम् के अर्थ का स्पष्टीकरण किया है, आत्मा और परमात्मा के बीच अनन्य दासता को दर्शाता है, आत्म दास्यता को समाप्त करने, अचित के जैसे पूर्ण समर्पित होने तक, भागवतों के प्रति अनन्य दासता होने तक; अष्टश्लोकी में कहा गया है “उकारोनन्यार्हम् नियमयति संबंध मनयो:” (उकारम् विष्णु और जीव के बीच के अनन्य संबंध को दर्शाता है); यद्यपि संबंध दूसरों के प्रति दासता की समाप्ति का आश्वासन नहीं देता और जबकि कोई स्वयं के लिए बाधाओं को सहन नहीं कर सकता, यहाँ विळाञ्जोलैप् पिळ्ळै इस प्रकार से समझाते हैं, जिसे “अन्तरङ्गम्” कहा जाता है।

यहाँ उकारम् का प्रयोग अवधारणार्थम् (नियामक प्रकृति दिखाते हुए) के जैसे स्थान प्रमाणम् के अनुसार किया है, ((अन्य स्थानों पर वैसा ही प्रयोग करना); उदाहरणतः उ का प्रयोग एव (केवल) के स्थान पर कहीं भी करना)। इसे केवल आयोग व्यवच्छेदम् (सम अस्तित्व) के स्थान पर अन्ययोग व्यवच्छेदम् (अनन्य भेद- एक विशेषता जो विशेष रूप से इस श्रेणी द्वारा धारण की जाती है) के रूप में क्यों माना जाता है? (तात्पर्य यह है कि, “जीवात्मा केवल भगवान का दास है” ऐसे कहने के बदले, “जीवात्मा केवल भगवान का अनन्य दास है” ऐसे कहा गया है।) जब एक वस्तु और उसकी विशेषता को एक ही स्थिति में समान रुप से समझाया जाता है, तब आयोग व्यवच्छेदम् प्रस्तुत हो सकता है और अन्य में जहाँ स्थिति एक जैसी नहीं है, ऐसा नियम लागू नहीं होता, अतः यह कहने में त्रुटि होगी कि यह एवाकार (उकारम्) अन्ययोग व्यवच्छेदम् हो सकता है। यह स्पष्ट रूप से अनुच्छेद में दर्शाया है जैसे “देवदत्तम् प्रत्येव दण्डनम्” (दण्ड का लक्ष्य देवदत्त की ओर है।)

वैकल्पिक रूप से- अंतरंग संबंध का तात्पर्य नव विधा संबंध (नवधा संबंध) से है जो तिरुमंत्र में प्रकृति, प्रत्यक्ष और धातु शब्दों में दिखाए गए हैं जैसे “पिताच रक्षक शेषी भर्ताज्ञेयो रमापति:।

स्वाम्याधरो मम आत्मा च भोक्ता चाद्य मनूधित:।।” (तिरुमंत्रम् में समझाया गया है कि श्रीमन्नारायण पिता, रक्षक, स्वामी, पति, ज्ञान की वस्तु, अधिकारी, आश्रय, परमात्मा और चेतन के भोक्ता हैं)।

तिरुमंत्रम् में नौं प्रकार के सभी  संबंधों की स्पष्ट व्याख्या की गई है-

  1. पिता पुत्र संबंधम् (पिता-पुत्र संबंध)- पहले शब्द में, प्रणवम्, पहले अक्षर में, प्रकृति (शब्द उत्पत्ति, प्राकृतिक) अवस्था में, जैसे कि सुभालोपनिषत् में कहा है “पिता नारायण:” (नारायण पिता हैं), श्रीविष्णु पुराण १.९.१२६ “देव देवो हरि: पिता” (हरि जो स्वामियों के स्वामी हैं) और पेरिय तिरुमोऴि १.१.६ “एम्बिरान् एन्दै” (मेरे हितकारी, मेरे पिता)
  2. रक्ष्य रक्षक संबंधम् (रक्षित- रक्षक संबंध)– ऐसे ही अकारम् में, धातु (क्रिया मूल) दृष्टिकोण में अर्थात् “अव रक्षणे”, जैसे कि तैत्तिरीय उपनिषद् आनन्दवल्लि में कहा गया है “कोह्येवान्यात् क: प्राण्यात्” (कौन इस परमानन्द के बिना जीवित रहेगा?) श्री विष्णु पुराण १.२२.२१ “न ही पालन सामर्थ्यमृते सर्वेश्वरम् हरिम्” (श्रीमन्नारायण के अतिरिक्त कौन रक्षा कर सकता है) और तिरुवाय्मोऴि २.२.८ “करुत्तिल् तेवुम् एल्लप् पोरुळुम् वरुत्तित्त मायप् पिरानै” (दर्शनीय सक्षम सर्वोत्तम एम्पेरुमान् जिन्होंने अपने एक संकल्प के द्वारा देवताओं और अन्य जीवों को बनाया)।
  3. शेष शेषी संबंधम् (दास-स्वामी संबंध)- प्रणवम् के लुप्त चतुर्थी (गुप्त कारक) में प्रत्यय (अंतसर्ग) जैसे कि कहा गया है श्वेतश्वतर उपनिषद “पतिम् पतीनाम्” (स्वामियों के स्वामी), श्रीविष्णुसहस्रनामम् “जगत् पतिम् देवदेवम्” (ब्रह्माण्ड के स्वामी और स्वामियों के स्वामी) और तिरुवाय्मोऴि १.१.१ “अमरर्गळ् अधिपति” (नित्यसूरियों के नाथ)
  4. भर्तृ भार्या संबंधम् (पति-पत्नी संबंध) – प्रणवम् के दूसरे अक्षर में, उकारम्, यद्यपि यह अवधारण है (नियम/अनन्यता), जैसे कि “भगवत एवाहम्” (मैं केवल भगवान के लिए हूँ), श्री रामायणम् सुन्दर काण्ड “लोक भर्तारम्” (जगत-पति) और पेरियाऴ्वार् तिरुमोऴि ५.४.२ “परवै एरु परम्पुरुडा नी एन्नैक् कैक् कोण्ड पिन्” (ओह गरुड़ाऴ्वार् की सवारी करने वाले! आप मुझे स्वीकार करने के बाद)
  5. ज्ञातृ ज्ञेय संबंध (ज्ञाता-ज्ञात संबंध) – प्रणवम् के तीसरे अक्षर में, धातु के अनुसार, “मनु अवबोधने” (जानते हुए) जैसे कि बृहदारण्यक उपनिषद में कहा गया है ६-५-६ “निधिद्यासितव्य:” (ध्यान किया जाना) महाभारत १७८.११ “ध्येयो नारायणस् सदा” (सदा नारायण को ध्यानो) और तिरुवाय्मोऴि ८.८.३ “उणर्विन् उळ्ळे निऱुत्तिनेन्” ( मैंने उनको अपने विचारों में विद्यमान रखा)
  6. स्व स्वामी संबंधम् (स्वामित्व- स्वामी संबंध) – तिरुमंत्र के दूसरे शब्द में, नमः, जैसे कठोपिनषद् २.१.१२ में कहा गया है “इशानो भूत भव्यस्य” (वे वर्तमान और भविष्य में मार्गदर्शक हैं), विष्णु तत्वम् “स्वत्वम् आत्मनि संजातम् स्वामित्वम् ब्रह्मनि स्थितम्” ( किसी का होना- स्वत्व का गुण, आत्मा के लिए स्वाभाविक है; स्वामी होने का गुण ब्रह्म के लिए स्वाभाविक है) और तिरुवाय्मोऴि ६.१०.१० “उलगम् मून्ऱुडैयाय्” (जो त्रिलोकीनाथ हैं)
  7. शरीर शरीरी संबंधम् (शरीर-आत्मा संबंध) – तिरुमंत्र के तीसरे शब्द में, नारायणाय, नार विषय में, जैसे कि उपनिषद ७ “यस्यात्मा शरीरम्…….. यस्य पृथिवी शरीरम्” (जिनके लिए यह आत्मा एक शरीर है, यह पृथ्वी एक शरीर है), श्रीरामायणम् के युद्ध काण्डम् ११७.२६ “जगत सर्वम् शरीरम् ते” (सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड आपका शरीर है) तिरुवाय्मोऴि १.२.१ “उम्मुयिर् वीडुडैयानिडै” ( स्वयं को उस के शरणागत करो जो मोक्ष प्रदान करता है)
  8. आधार अधेय संबंधम् (समर्थक-समर्थित संबंध) – अयनम के विषय में (तीसरे शब्द का), जैसे कि छान्दोग्योपनिषद् में कहा गया है “सदायतना:” (प्रत्येक का धाम भगवान है), श्रीभगवत्गीता ७.७ “मयि सर्वम् इदम् प्रोतम् सूत्रे मणिगण इव” (ये सब तत्व मुझ पर ऐसे पिरोये हैं जैसे एक सूत्र में रत ्न पिरोये हैं) तिरुवाय्मोऴि ८.७.८ “मूवुल्गुम् तन् नेऱिया वयिट्रिल् कोण्डु निन्ऱोऴिन्दार्” (वह जिसके अन्दर तीनों लोक समाए हैं वह रक्षक-रक्षित संबंध की उपेक्षा किए बिना धारण करता है।)
  9. भोक्तृ-भोग्य संबंधम् (भोक्ता -भोगा हुआ संबंध)- प्रत्यक्ष चतुर्थी, आय में, जैसे तैत्तिरीय उपनिषद् में “अहम् अन्नम् अहम् अन्नम्” (मैं भोजन हूँ, मैं भोजन हूँ),  श्रीभगवत्गीता ५.२९ “भोक्तारम् यज्ञ तपसाम्” (मैं यज्ञ के बलि और तपस्याओं का भोक्ता हूँ) और तिरुवाय्मोऴि १०.७.३ “एन्नै मुटृम् उयिर् उण्डु” (मेरा सम्पूर्ण उपभोग करना)

अडियेन् अमिता रामानुज दासी

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