रामानुस नूट्रन्ददि (रामानुज नूत्तन्दादि) – सरल व्याख्या – पाशुर 31 से 40

श्री: श्रीमते शठकोपाय नम: श्रीमते रामानुजाय नम: श्रीमत् वरवरमुनये नम:

रामानुस नूट्रन्दादि (रामानुज नूत्तन्दादि) – सरल व्याख्या

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पाशूर ३१: श्रीरंगामृत स्वामीजी अपने हृदय को आनन्द से कहते हैं कि वों जो अन्गिनत  जन्मों से कष्ट भोग रहे हैं श्रीरामानुज स्वामीजी कि कृपा से उनके शरण प्राप्त् हो गये हैं।

आण्डुगळ् नाळ् तिन्गळाय् निगळ् कालमेल्लाम् मनमे

ईण्डु पल् योनिगळ् तोऱु उळल्वोम् इन्ऱु ओर् एण् इन्ऱिये

काण् तगु तोळ् अण्णल् तेन् अत्तियूरर् कळल् इणैक् कीळ्

पूण्ड अन्बाळन् इरामानुसनैप् पोरुन्दिनमे

हे मन! दिनों, मासों और वर्षों के रूप से बीते हुये सारे भूतकाल में नाना प्रकार की योनियों में जन्म लेकर नानाविद  क्लेशों का अनुभव किये हुए हमने, आज एकाएक ही सुंदर भुजवाले श्रीहस्तिगिरिनाथ श्रीवरदराज भगवान के पादभक्त, श्रीरामानुज  स्वामीजी का आश्रय लिया। ओह! हमारा भाग्य अचिंतनीय है!

पाशूर ३२: कुछ जन, जिन्होंने श्रीरंगामृत स्वामीजी को आनन्द में देखा, श्रीरामनुज स्वामीजी को प्राप्त किया और उन्हें कहा, “हम भी श्रीरामानुज स्वामीजी को प्राप्त करना चाहते हैं पर हममें आत्मगुण नहीं हैं जो आप में हैं”। वें कहते हैं “जो श्रीरामानुज स्वामीजी को प्राप्त करते हैं उनमें आत्मगुण स्वयं से आजायेगा”।

पोरुन्दिय तेसुम् पोऱैयुम् तिऱलुम् पुगळुम् नल्ल

तिरुन्दिय ग्यानमुम् सेल्वमुम् सेरुम् सेऱु कलियाल्

वरुन्दिय ग्यालत्तै वण्मैयिनाल् वन्दु एडुत्तु अळित्त

अरुन्दवन् एन्गळ् इरामासुनै अडैबवर्क्के

धर्ममार्ग का तिरस्कार करनेवाले कलि से पीड़ित भूमि की अपनी निर्हेतुक कृपा से उद्धार पूर्वक रक्षा करनेवाले, (शरणागति नामक) श्रेष्ठतपस्या से विभूषित और हमारे नाथ श्री रामानुज स्वामीजी का आश्रयण करनेवालों को स्वरूपानुरूप तेज, क्षमागुण, जितेंद्रियत्व रूप बल, यश, परमविलक्षण सदासद्विवेक और (भक्तिरूप) ऐश्वर्य अपने आप मिल जायेंगे।

 पाशूर ३३: इस गाथा का दो प्रकारों से अर्थ हो सकता है – श्रीरामानुज स्वामीजी में पंचायुधों की भी शक्ति पूर्ण है; अथवा आप साक्षात पंचायोधों के अपरावतार हैं। यद्यपि श्री स्वामीजी को शेषावतार मानना ही प्रमाण- सम्मत है। तथापि आपके प्रभावों का अनुसंधान करने वाले महान लोग आपके विषय में ऐसे नानाप्रकार के उल्लेख करते हैं कि आप कदाचित् विष्वकसेनजी का अथवा भगवान के पांचों आयुधों का अवतार होंगे इत्यादि। इस विषय की विस्तृत चर्चा “शेषावतारच्चिरप्पु” नामक द्राविडीग्रंथ में की गयी है

अडै आर् कमलत्तु अलर् मगळ् केळ्वन् कै आळि एन्नुम्

पडैयोडु नाण्दगमुम् पडर् तणुडुम् ओण् सार्न्ग विल्लुम्

पुडैयार् पुरि सन्गमुम् इन्दप् पूदलम् काप्पदऱ्कु एन्ऱु

इडैये इरामानुस मुनि आयिन इन्निलत्ते

सुंदर दल परिपूर्ण कमलपुष्प में अवतीर्ण श्री महालक्ष्मी के वल्लभ भगवान के श्री हस्त में विराजमान श्रीसुदर्शन चक्र, नाण्दग (तलवार )खड्ग, रक्षण करने में निरत गदा, सुंदर शांर्गधनुष, और मनोहर श्री पांचजन्य शंख, ये सब (पंचायुध) इस भूतलकी रक्षा करने के लिए श्री रामानुज स्वामीजी में आविष्ट हो गये; ( अथवा श्री रामानुज स्वामीजी के रूप में अवतीर्ण हो गये)।

पाशूर ३४: श्रीरामानुज स्वामीजी का कलिपुरुष पर विजय पाना कोई बड़ी बात नहीं है; और इससे आपको कोई विशेष ख्याति भी नहीं मिलेगी। परंतु मेरे अनुष्ठित उस कलिसे भी प्रबल पापों का विनाश करना उससे कई गुना अधिक कठिन काम है; जिसके पूरा होने से आपका यश विशेषतः उज्वल बना। समझना चाहिए कि नैच्यानुसंधान का यह एक विलक्षण प्रकार है।

निलत्तैच् चेऱुत्तु उण्णुम् नीसक् कलियय् निनैप्पु अरिय

पलत्तैच् चेऱुत्तुम् पिऱन्गियदु इल्लै एन् पेय्विनै तेन्

पुलत्तिल् पोऱित्त अप्पुत्तगच् चुम्मै पोऱुक्कियपिन्

नलत्तैप् पोऱुत्तदु इरामानुसन् तन् नयप् पुगळे

श्रीरामानुज स्वामीजी के कल्यानगुण, इस भूतल की पीडा करनेवाले नीच कलिपुरुष के कल्पनातीत बल का ध्वंस करने से प्रकाशमान नहीं हुए; किंतु मेरे अनुष्ठित प्रबल पापों का लेख, यमलोक गत (चित्रगुप्त के पास रहने वाली) पुस्तकों की गठरी जला देने के बाद ही वे बहुत प्रकाशमान होने लगे।

पाशूर ३५: पूर्वगाथोक्त प्रकार मेरे पूर्वकाल के सभी पाप नष्ठ हो गये; और भविष्यत् में भी पाप न लगेंगे; क्यों कि मैं ने देवतान्तरप्रावण्य, क्षुद्रमानवस्तुति इत्यादि अकार्यों से दूर होकर श्रीरामानुज स्वामीजी के पादारविन्दो का आश्रय लिया।

नयवेन् ओरु देय्वम् नानिलत्ते सिल मानिडत्तैप्

पुयले एनक् कवि पोऱ्ऱि सेय्येन् पोन् अरन्गम् एन्निल्

मयले पेरुगुम् इरामानुसन् मन्नु मा मलर्त्ताळ्

अयरेन् अरुविनै एन्नै एव्वाऱु इन्ऱु अडर्प्पदुवे

मैं  तो दूसरे किसी देव का भक्त न बनूंगा; क्षुद्र मानवों की, ‘हे मेघ के सदृश वर्षण करने वाले!’ इत्यादि मिथ्यास्तुति नहीं करूंगा; और ‘श्रीरंग’ शब्द सुननेमात्र से उस पर व्यामोहित होनेवाले श्री रामानुज स्वामीजी के सुंदर पादारविन्दों को नहीं भूलूंगा। अतः प्रबल पाप मुझको कैसे घेर सकेंगे?

पाशूर ३६: श्रीरंगामृत स्वामीजी से कहा गया था कि “आप कहते हैं आप उनको भूल नहीं पायेंगे। कृपया आप उनके स्वभाव के विषय में हमें बताये ताकि हम भी उन्हें प्राप्त कर सके”। वें बड़ी नम्रता से बताते हैं।

अडल् कोण्ड नेमियन् आरुयिर् नादन् अन्ऱु आरणच् चोल्

कडल् कोण्ड ओण्पोरुळ् कण्डु अळिप्प पिन्नुम् कासिनियोर्

इडरिन् कण् वीळ्न्दिडत् तानुम् अव्वोण् पोरुळ् कोण्डु अवर्

पिन् पडरुम् गुणन् एम् इरामानुसन् तन् पडि इदुवे

भक्तजनविरोधियों का निरसन करने में समर्थ चक्रराज से अलंकृत ,समस्त चेतनों के ईश्वर भगवान ने पहले एक समय, जब  वे अर्जुन के सारथि बने थे, वेदसागर में निगूढ़ श्रेष्ठ अर्थों का विवेचन कर गीताजी के द्वारा उनको प्रकाशित किया; उसके बाद भी इस भूतलवासी जन संसार सागर में ही मग्न रहे। यह देखकर दयाविष्ट श्री रामानुज स्वामीजी स्वयं उस गीता के श्रेष्ठ अर्थ लेकर उन संसारियों के अनुसरण कर, उनकी रक्षा करने लगे । यह है हमारे आचार्य सार्वभौम की कृपाका प्रकार।

 पाशूर ३७: श्रीरंगामृत स्वामीजी से यह पूछा गया कि कैसे उन्होंने श्रीरामानुज स्वामीजी के दिव्य चरण कमलों को प्राप्त किया, जो ऐसे हैं। वें कहते हैं वें पूर्ण ज्ञान  के साथ नहीं प्राप्त किया। जो यह समझते हैं कि जो श्रीरामानुज स्वामीजी के दिव्य चरण कमलों से जुड़े हैं , वे  इच्छित हैं ,मुझे भी श्रीरामानुज स्वामीजी का दास बना दिया।

पडि कोण्ड कीर्त्ति इरामायणम् एन्नुम् भक्ति वेळ्ळम्

कुडि कोण्ड कोयिल् इरामानुसन् गुणम् कूऱुम् अन्बर्

कडि कोण्ड मामलर्त् ताळ् कलन्दु उळ्ळम् कनियुम् नल्लोर्

अडि कण्डु कोण्डु उगन्दु एन्नैयुम् आळ् अवर्क्कु आक्किनरे

सारे संसार में विस्तृत यशवाले श्रीरामायण नामक भक्तिसमुद्र के नित्यनिवासस्थान श्रीरामानुज स्वामीजी के कल्यानगुणों का ही कीर्तन करनेवाले भक्तों के सुगंधि व श्रेष्ठ पादारविन्दों में दृढ़ भक्तिवाले महात्मा लोगों ने वस्तुस्थिति समझ कर (अर्थात् यह समझकर की यह आत्मवस्तु श्रीरामानुजस्वामीजी का ही शेषभूत है) श्रीरंगामृत स्वामीजी को भी सादर उनका (श्री रामानुजस्वामीजी का) दास बना दिया ।

 पाशूर ३८: श्रीरामानुज स्वामीजी को श्रेष्ठ मानकर श्रीरंगामृत स्वामीजी उनसे पूछते कि क्यों उन्होंने रंगामृत को इतने दिनों तक उनके शरण में नहीं लिया। 

आक्कि अडिमै निलैप्पित्तनै एन्नै इन्ऱु अवमे

पोक्किप् पुऱत्तिट्टदु एन् पोरुळा मुन्बु पुण्णियर् तम्

वाक्किल् पिरिय इरामानुस निन् अरुळिन् वण्णम्

नोक्किल् तेरिवरिदाल् उरैयाय् इन्द नुण् पोरुळे

हे भाग्यवानों की वाणी में नित्यनिवास करनेवाले श्री रामानुज स्वामिन्! (अनादिकाल से अहंकारी रहे हुए) मुझको आपने आज ही अपना शेष बना दिया। (इस प्रकार हाल में मुझपर कृपा बरसानेवाले) आप क्यों  इतने दिनों तक मुझको विषयान्तरसंग में ही छोड रखा ? विचार करके देखने पर आपकी कृपा का प्रकार सत्य ही समझने में अशक्य है। आप ही कृपा करके इसका रहस्य समझाइए।

 पाशूर ३९: पुत्रदारगृहक्षेत्रादि सांसारिक क्षुद्रविषयों के मोह में ही फँस कर श्रेय का मार्ग नहीं जाननेवाले मेरे अज्ञान व उसका भी मूल कर्म मिटाकर, मुझको अपना भक्त बनाने की कृपा श्रीरामानुज स्वामीजी के सिवा, दूसरे किसी में क्या कभी रह सकती है? एवं ऐसी विलक्षण कृपा का पात्र क्या मेरे सिवाय दूसरा कोई हुआ है ? ।

पोरुळुम् पुदल्वरुम् भूमियुम् पून्गुळरारुम् एन्ऱे

मरुळ् कोण्डु इळैक्कुम् नमक्कु नेन्जे मऱ्ऱु उळार् तरमो

इरुळ् कोण्ड वेम् तुयर् माऱ्ऱि तन् ईऱु इल् पेरुम् पुगळे

तेरुळुम् तेरुळ् तन्दु इरामानुसन् सेय्युम् सेमन्गळे

यों रटते हुए कि, यह मेरा धन है, ये मेरे पुत्र है, यह मेरा खेत हैं, ये मेरी पुष्पालंकृत सुकेशिनी स्त्रियाँ हैं , इत्यादि, उन्हींमें आशा लगा कर, अपना विवेक खोकर, दुःख पाते रहनेवाले हमारे अज्ञान एवं क्रूर दुःख मिटाकर, हमें अपने अनंत कल्याण गुणों का ही ध्यान करने योग्य ज्ञान भी देकर, श्री रामानुज स्वामीजी जो हमारी रक्षा कर रहे हैं, यह, हे मन ! क्या दूसरों के योग्य है ?

 पाशूर ४०: श्रीरामानुज स्वामीजी के महान  कार्यों को स्मरण कर श्रीरंगामृत स्वामीजी आनंदमय हो जाते हैं।

सेम नल् वीडुम् पोरुळुम् दरुममुम् सीरिय नल्

काममुम् एन्ऱु इवै नान्गु एन्बर् नान्गिनुम् कण्णनुक्के

आम् अदु कामम् अऱम् पोरुळ् वीडु इदऱ्कु एन्ऱु उरैत्तान्

वामनन् सीलन् इरामानुसन् इन्द मण्मिसैये

श्रीरामानुज स्वामीजी श्रीवामन भगवान समान हैं बिना कुछ आशा कर दूसरों की सहायत हैं। सब के क्षेमदायक मोक्ष (संसार से मुक्ती) जो आराम देता है, धर्म, अर्थ (धन) और श्रेष्ठ काम (प्रेम),  ये चार (वैदिकों से) चतुर्विध पुरुषार्थ कहे जाते है।  इन चारों में से भगवद्विषयक काम (अथवा प्रेम) ही काम शब्द का अर्थ है। श्रीरामानुज स्वामीजी बड़ी दया से कहे कि धर्म हीं हमारे पापों को मिटायेगा; अर्थ कार्यों, जैसे दान, आदि  धर्म को आगे बढ़ायेगा; मोक्ष भी इसे आगे बढ़ाएगा और यह सब भगवद काम (भगवान के प्रति प्रेम) के अंतर्गत होगा।

आधार : http://divyaprabandham.koyil.org/index.php/2020/05/ramanusa-nurrandhadhi-pasurams-31-40-simple/

अडियेन् केशव् रामानुज दास्

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