आर्ति प्रबंधं ३६

श्री:  श्रीमते शठकोपाय नम:  श्रीमते रामानुजाय नम:  श्रीमद्वरवरमुनये नम:

आर्ति प्रबंधं

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 उपक्षेप

पिछले पासुरम में, मामुनि कहते हैं कि, “मरुळाले पुलन पोग वांजै सेय्युं एनदन”, जिस्से वें श्री रामानुज से, क्रूर पापों से प्रभावित इन्द्रियों के निमंत्रण से अपने बुद्धि को बहलाने केलिए  विनति करतें हैं। परंतु इसके पश्चात भी पापों का असर रहती  हैं। मामुनि कहतें हैं कि, उन्कि मन इन सारे नीच साँसारिक रुचियों के पीछे जाती है।  इतने संकट पहुँचाने वाले इन पापों की कारण पर मामुनि विचार करतें हैं और अंत में कहतें हैं कि इस प्रश्न का उत्तर वें नहीं जानते।  

पासुरम ३६

वासनयिल उट्रामो माळाद वलविनैयो

येदेंररियेन ऐतिरासा! तीदागुम

आईंपुलनिल अडियेन मनंतन्नै

वनबुडने तानदरुम वंदु

शब्दार्थ

ऐतिरासा – हे एम्पेरुमानारे

तीदागुम – वह जो आत्मा केलिए हानिकारक है

आईंपुलनिल – जो “पाँच इन्द्रियाँ” कहलातीं हैं और प्रभाव करति रहतीं हैं

अडियेन – मेरे

मनंतन्नै – मन के

आसै – (साँसारिक खुशियों) की इच्छा

वनबुडने – (ये इन्द्रियाँ) सशक्त रूप से

तान वंदु – अपने इच्छा से, बिना कोई दबाव के

अदारुम – मुझमे निरंतर  निवास करने कि तय किये

(इन विषयों में रुचि की, मामुनि श्री रामानुज से कारण पूछते हैं)

उट्रामो – क्या यह बंधन आधारित है

वासनयिल – पूर्व समय के असंख्येय पापों पर ?

वलविनैयो – क्या मेरे प्रसिद्द कर्म संबंधित पाप है

माळाद – जो हैं किसी सहायता के पार ( किसी प्रकार के तप से भी जो निकाल नहीं जा सकता )

येदेंरु – वह क्या है ?

अरियेन – मुझे पता नहीं ( अर्थात मामुनि, श्री रामानुज को इसका कारण पता कर, इसकी नाश करना चाहते हैं)

सरल अनुवाद

मामुनि श्री रामानुज से पूछते हैं कि, यह जानते भी कि यह सब  शास्त्रों से हानिकारक माने जाते  हैं ,उन्की मन और बुद्धि , पापों के प्रभाव से साँसारिक रुचियों के पीछे क्यों जातें हैं । इन इन्द्रियों और पापों के लगातार कष्ट कि कारण न जानते हुए, वे श्री रामानुज से कारण ढूंढ़ने कि और उनको नाश कर अपनाने कि  विनति करते हैं।  

स्पष्टीकरण

कुछ विषय आत्मा केलिए हानिकारक माने जातें हैं। “आईंकरुवी कंडविंबं” (तिरुवाय्मोळी ४.९. १०) वचनानुसार , पाँच इन्द्रियों के प्रभाव में आत्मा साँसारिक सुखों के पीछे जाता है। आत्मा इन रुचियों केलिए तरसता है।  शास्त्रों में यहीं सब हानिकारक कहे गए हैं।  “हरंदिप्रसपम मन” वचनानुसार ये इन्द्रियाँ मुझे हर दिशा में खींचतीं हैं।  मैं आप्के चरण कमलों को एकमात्र राह समझ कर शरणागति करता हूँ। मामुनि इस्के कारण का अनुमान करते हैं। क्या  कूरत्ताळ्वान के “धुर्वासनात्रदि मतस सूखमिन्दिरयोत्तम हातुम नमे मदिरलं वरदादिराज:” वचनानुसार अनादि काल के पापों के छाल में फसना ही कारण हैं ? या नम्माळ्वार के “मदियिलेन वलविनये माळादो” (तिरुवाय्मोळि १.४. ३) वचनानुसार क्या मेरे कर्म इतने शक्तिशाली हैं कि न तप से मिटा सके न फल अनुभव कि कष्ट को झेल कर छुटकारा पायें? कारण कि मुझे जानकारी नही हैं। हे रामानुज, आपसे विनति हैं कि आप इस पर विचार करें और कारण को नाश करें।  पिछले और इस पासुरम में “ आईंपुलनिल” इन्द्रियों से पाने वाली साँसारिक सुख हैं।  

अडियेन प्रीती रामानुज दासी

आधार :  http://divyaprabandham.koyil.org/index.php/2017/02/arththi-prabandham-36/

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