पूर्वदिनचर्या – श्लोक – १५

श्री:
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद्वरवर मुनये नमः

परिचय

श्लोक  १४                                                                                                                     श्लोक  १६

श्लोक  १५

ध्यात्वा रहस्यत्रितयं तत्वयाथात्म्यदर्पणम् ।
परव्यूहादिकान् पत्युः प्रकारान् प्रणिधाय च ॥ १५ ॥

तत्वयाथात्म्यदर्पणम्   – आत्मा का वास्तविक स्वरूप दर्पण के रूप में प्रतिबिम्बित होता है ,
रहस्यत्रितयं                   तीन रहस्य मूल मंत्र, द्वय मंत्र और चरम मंत्र ,
ध्यात्वा                        अर्थानुसन्धान ,
परव्यूहादिकान्            – पर, व्यूह इत्यादि,
पत्युः                          – पूर्ण ब्रम्हाण्ड के नायक श्रीमन्नारायण भगवान,
प्रकारान्                      – पाँच चरण,
प्रणिधाय च                 – मनन द्वारा ।

एक आत्मा का वास्तविक स्वरूप तीन रूपों द्वारा बताया गया है । यह आत्मा सिर्फ भगवान की दासता को स्वीकार किया है ( अनन्यार्हशेषत्व ), सिर्फ भगवान को उपाय के रूप में स्वीकार किया है ( अनन्यशरणत्व ) और सिर्फ भगवान का ही अनुभव किया है ( अनन्यभोग्यत्व )। मूलमंत्र “ ॐ नमो नारायणाय ” में तीन पद है क्रमशः जो इन चरणों को दर्शाता है । नमः शब्द मोक्ष का उपाय भगवान श्रीमन्नारायण को संबोधित करता है । द्वय मंत्र के पहीले वाक्य के तीन शब्द “ श्रीमन्नारायण चरणौ शरणं प्रपद्ये ” में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है । भगवत गीता के चरम श्लोक की प्रथम पंक्ति में “सर्वधर्मान परीत्यज मामेकं शरणं ब्रज” आता है जिसमें मोक्ष पाने के लिये एक मात्र भगवान श्रीमन्नारायण को उपाय के रूप में स्वीकार किया गया है । इसलिये ये तीन रहस्य आत्मा के वास्तविक रूप को दर्शाते है ।

भगवान के पाँच स्वरूप है, पर, व्यूह, विभव, अंतर्यामी और अर्चावतार ।

  • पर – परमपद में नित्यसुरी और मुक्तामा भगवान श्रीमन्नारायण का अनुभव करते है ।
  • व्यूह – ब्रम्हादि देवताओं की मदद करने के लिये क्षीरसागर में विराजमान है ।
  • विभवम – राक्षस और असुरों का संहार करने के लिये राम, कृष्ण आदि अवतारों को लिया ।
  • अंतर्यामी – चेतन और अचेतनों में, सभी प्राणियों में सर्वव्यापी है और दिव्य मंगल विग्रह का ध्यान करनेवालों के हृदय में विराजमान है ।
  • अर्चा – उपरोक्त चारो प्रकारों से भी अत्यन्त सुलभ रूप धारण करके सेवा ग्रहण करते हुये मंदिरों में, घरों में विराजमान है ।

इसके अलावा छठवाँ चरण बताया गया है , जिसमें आचार्य वैभव का वर्णन है । विष्णुचितसूरी पेरीयालवार तिरुमोली ५.२.८ में कहते है “ पीठक वडै पीरनर पीरम गुरुवगी वन्धु ” याने जो रेशम के कपड़े को धारण करते हुये आचार्य के रूप में विराजमान होकर भगवत विषय के बारे में उपदेश देते है ।

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