श्रीः श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्रीवानाचल महामुनये नमः
हमने पूर्व भाग में आऴ्वार्, अरुळिच्चॆयल्/दिव्यप्रबंधम् (आऴ्वारों के दिव्य काव्य रचना) और वेदों के ४ विभाजन के समान दिव्यप्रबंधम् का विभाजन, इन विषयों के बारे में देखा। जहाँ वेद विशाल है, संस्कृत भाषा में है, और सबके लिए उपलब्ध नहीं है, दूसरी ओर दिव्यप्रबंधम् तमिऴ् में है और विशाल नहीं है और सबके द्वारा सहजता से सीखा जा सकता है।
दिव्यप्रबंधम् आऴ्वारों की भक्ति पारवशता की अभिव्यक्ति है, और उन्होंने हम पर बड़ी कृपा के भाव से उसे पासुरों का रूप दिया!
आऴ्वारों का काल द्वापर युग के अंतिम चरण से कलयुग का आरंभ तक का समय था, और उनके पाशुरों को पुनर्जीवित श्रीमन्नाथमुनि द्वारा किया गया, जब उन्होंने १२,००० बार कण्णिनुण् सिऱुत्ताम्बु का पाठ कर श्रीशठकोप स्वामी से पूरे दिव्यप्रबंध अर्थ सहित प्राप्त किया।
श्रीमन्नाथमुनि, पुण्डरीकाक्ष, राम मिश्र, यामुनाचार्य, रामानुजाचार्य, एम्बार, पराशर भट्टर्, वेदान्ती जीयर्, कलिवैरी दास, वडक्कु तिरुवीधिप्पिळ्ळै, पिळ्ळै लोकाचार्य आदि पूर्वाचार्यों द्वारा इसका प्रचार हुआ है। पिळ्ळै लोकाचार्य ने बड़ी कृपा से आऴ्वार् के प्रबंधों से और आचार्यों की व्याख्याओं से प्राप्त ज्ञान पर आधारित कई रहस्य ग्रन्थों की रचना की। नम्पिळ्ळै (कलिवैरी दास) के दूसरे शिष्य पेरिवाच्चान् पिळ्ळै ने सारे ४००० पाशुरों की व्याख्या लिखी। इसके पश्चात् श्रीशैलेश स्वामी और श्री वरवरमुनि स्वामी द्वारा भी प्रचार किया गया। श्री वरवरमुनि स्वामी ने कलिवैरी दास के तिरुवाय्मोऴि की संपूर्ण व्याख्या ईडु ३६००० पडि को कंठस्थ कर लिया था और इस पर श्रीरंगम में मंदिर में एक वर्ष काल तक प्रवचन दिया था, यह उल्लेखनीय है। नम्पेरुमाळ् ने भी उस एक वर्ष के लिए अपने सारे उत्सवों को रद्द कर केवल ईडु व्याख्यानम् सुना, और समापन के समय एक छोटे बालक के रूप में प्रकट होकर “श्रीशैलेश दयापात्रं” तनियन् (मंगलाचरण) अपने आचार्य श्री वरवरमुनि स्वामी को समर्पित कर उनको सम्मानित किया। वरवरमुनि स्वामी ने व्याख्या सहित दिव्यप्रबंधम् के सारे पांडुलिपियों को एकत्रित किया और उनके अनेक प्रतियाँ बनाकर संरंक्षण की।
४००० दिव्यप्रबंधम् का विभाजन इस प्रकार है: पहला सहस्त्र, दूसरा सहस्त्र, इयऱ्-पा और तिरुवाय्मोऴि (सहस्त्रगीति)।
इयऱ्-पा संगीत रहित है, और अन्य ३००० संगीत बद्ध हैं और उनका आज भी अरैयर् सेवा में हम श्रवण कर सकते हैं। इयऱ्-पा का भगवान की शोभायात्रा में पाठ किया जाता है।
अब हम इस परिचय के दूसरे भाग को देखते हैं। हम प्रत्येक प्रबंधम् के परिचय सहित संक्षेप वर्णन देखते हैं।
आचार्य वन्दना ही तनियन् है। यहाँ, गुरुपरम्परा को वन्दन करते हैं। सामान्य तनियन् और किसी प्रबंधम् के लिए रचे विशेष तनियन् ऐसे दो प्रकार हैं। भगवान श्रीरंगनाथ (पेरिय पेरुमाळ्) ने श्री वरवरमुनि स्वामी को अपने आचार्य के रूप में मानते हुए एक तनियन् समर्पित किया।
श्रीशैलेश दयापात्रम् धीभक्त्यादिगुणार्णवम् ।
यतीन्द्र प्रवणम् वन्दे रम्यजामातरम् मुनिम् ॥
पहले इसी तनियन् से दिव्य प्रबंधम् का पाठ आरंभ होता है।
सरल अर्थ: मैं रम्यजामातृ मुनि (श्री वरवरमुनि) की वन्दना करता हूँ, जिन्होंने श्री शैलेश स्वामी की कृपा प्राप्त की है, जो ज्ञान, भक्ति और वैराग्य जैसे गुणों से परिपूर्ण हैं, और जिनका यतीन्द्र (रामानुजाचार्य) से अत्यधिक लगाव है।
रम्यजामात्रुयोगीन्द्रपादरेखामयम्सदा ।
तदा यत्तात्मसत्तादिम् रामानुजमुनिम् भजे ॥
तोताद्रि जीयर् (पोन्नडिक्काल् जीयर्) के अष्टदिग्गजों में एक, दोड्डैय्यंगार् अप्पै द्वारा रचित)
यह तनियन् प्रथम तोताद्रि जीयर् पर रचित है- श्री तोताद्रि स्वामी जो श्री वरवरमुनि स्वामी के दिव्य चरणकमलों की रेखा हैं।
लक्ष्मीनाथ समारंभाम् नाथ यामुन मध्यमाम् ।अस्मदाचार्य पर्यंताम् वन्दे गुरुपरंपराम् ।
श्रीवत्सचिह्न स्वामी (श्री कूर्त्ताऴ्वान्) द्वारा कृपापूर्वक प्रदान किया गया तनियन्
सरल अर्थ: महालक्ष्मी के नाथ श्रीमन्नारायण से आरंभ होकर, उसके पश्चात् आचार्य जैसे श्रीमन्नाथमुनि, यामुनाचार्य को लेकर, और मध्य में रामानुजाचार्य जो इस गुरुपरम्परा रूपी हार के मध्य में जड़े रत्न के समान होते हुए, मेरे आचार्य भी हैं, मैं इस समस्त गुरुपरम्परा की वन्दना करता हूँ। यह तनियन् हमारे लिए भी उपयुक्त है, क्योंकि हम हमारे आचार्य की वन्दना कर सकते हैं।
योनित्यमच्युत पदाम्भुज युग्मरुक्म
व्यामोहतस्तदितराणि तृणाय मेने ।
अस्मद्गुरोर्भगवतोऽस्य दयैकसिंधोः
रामानुजस्य चरणौ शरणम् प्रपद्ये ||
यह तनियन् रामानुजाचार्य की कीर्ति को दर्शाता है। स्वयं नम्पेरुमाळ् ने हमारे सम्प्रदाय का नाम “रामानुज दर्शनम्” रखा है। यह तनियन् कूरत्ताऴ्वान् ने रचाया है।
सरल अर्थ: मैं मेरे आचार्य भगवत् रामानुजाचार्य के दिव्य चरणकमलों की शरण लेता हूँ, जिनकी अच्युत भगवान के सुवर्ण चरणों के प्रति असीम भक्ति है, जो भगवान के चरणकमलों के अतिरिक्त अन्य सभी विषयों को तृण के समान मानते हैं और जो अपार करुणा का सागर हैं।
माता पिता युवतयस्तनया विभूतिः
सर्वम् यदेव नियमेन मदन्वयानाम् ।
आद्यस्य नः कुलपतेर्वकुळाभिरामम्
श्रिमत्तदन्घ्रि युगळम् प्रणमामि मूर्ध्ना ॥
यह तनियन् यामुनाचार्य द्वारा रचित, श्री शठकोप स्वामी के प्रति समर्पित है।
सरल अर्थ: श्री शठकोप स्वामी, जो प्रपन्न जनों के कुलपति हैं, वे मेरे सर्वस्व हैं – माता, पिता, संतान, संपत्ति सब कुछ श्री शठकोप स्वामी हैं। वे स्वयं को वकुल पुष्पों से सुसज्जित करते हैं और मैं सदैव उनके चरणकमलों को अपने सिर पर धारण करता हूँ!
भूतं सरस्चमह्दाह्वय भट्टनाथ श्रीभक्तिसार कुळशेखरयोगिवाहन् |
भक्तांघ्रिरेणु परकालयतीन्द्रमिश्रान् श्रीमत् परांकुश मुनिं प्रणतोSस्मी नित्यं ||
यह तनियन् श्री शठकोप स्वामी को दिव्य अवयवी (शरीर) के रूप में और इतर आऴ्वारों को उनके दिव्य अवयवों के रूप में दर्शाया है। यहाँ, रामानुजाचार्य को श्रीशठकोप स्वामी के दिव्य चरण माना गया है।
अब हम पहले सहस्त्र (मुदलायिरम्) की ओर बढ़ते हैं, जिसमें निम्नलिखित प्रबंधम् समाविष्ट हैं –
- तिरुप्पल्लाण्डु (विष्णुचित्त स्वामी)
- कण्णिनुण् सिऱुत्ताम्बु (श्री मधुरकवि स्वामी)
- पेरियाऴ्वार् तिरुमोऴि (विष्णुचित्त स्वामी)
- तिरुप्पावै (श्री गोदाम्बा)
- नाच्चियार् तिरुमोऴि (श्री गोदाम्बा)
- पेरुमाळ् तिरुमोऴि (कुलशेखर आऴ्वार्)
- तिरुमालै (भक्ताङ्घ्रिरेणु स्वामी)
- तिरुप्पळ्ळियेऴुच्चि (भक्ताङ्घ्रिरेणु स्वामी)
- अमलनादिपिरान् (योगिवाहन स्वामी)
- तिरुच्चन्द विरुत्तम् (श्रीभक्तिसार आऴ्वार्)
श्रीमन्नाथमुनि ने इसका विभाजन किया। प्रथम प्रबंधम् तिरुप्पल्लाण्डु है। उसके बाद, कण्णिनुण् सिऱुत्ताम्बु। आऴ्वार् तिरुनगरी और तिरुनारायणपुरम् के मंदिरों में सदैव कण्णिनुण् सिऱुत्ताम्बु का पाठ पहले किया जाता है।
हम तिरुप्पल्लाण्डु देखते हैं- इसे हमारे सम्प्रदाय में प्रणवम् के समान माना जाता है। उपदेश रत्तिनमाला के १९वें पाशुरम् में, श्री वरवरमुनि स्वामी ने यही बात कही और इसकी तुलना प्रणवम् के साथ की है। जिस प्रकार वेदों का पाठ प्रणवम् से आरंभ होकर, अंत भी उसी से होता है, दिव्यप्रबंधम् का पाठ भी तिरुप्पल्लाण्डु से आरंभ होकर, अंत भी उसी से होता है। इसी प्रकार, जैसे प्रणव में संपूर्ण वेदों का सार है, वैसे ही तिरुप्पल्लाण्डु में संपूर्ण दिव्यप्रबंधम् का सार है।
श्री विष्णुचित्त स्वामी का जन्म श्रीविल्लिपुत्तूर् में हुआ और वे भगवान के पुष्प कैंङ्कर्य करते थे। वे कृष्ण भगवान में अत्यधिक संलग्न थे, और श्रीमद्भागवत कथा में मालाकार के चरित्र से भावुक होकर सबसे पवित्र और महान पुष्प सेवा करने सुनिश्चित किया।
इसी समय एक दिन, पाण्ड्य राजा ने घोषित किया कि, उसका संदेह – इस संसार के फल (परिणाम) और परमपदधाम के फल के अंतर – का यदि कोई स्पष्टीकरण दें और पर तत्त्व का निर्णय करें, तो उनको स्वर्ण मुद्राओं की पोटली मिलेगी। उनके मंत्री सेल्व नम्बि ने उन्हें यह योजना दी। भगवान के आदेशानुसार विष्णुचित्त स्वामी वहाँ जाते हैं, और परतत्व निर्णय कर, धन प्राप्त करते हैं। राजा ने आऴ्वार् को राजहाथी के ऊपर बिठाकर नगर भ्रमण कराया। उसी समय, भगवान महालक्ष्मी के साथ गरुड़ारूढ़ होकर वहाँ प्रत्यक्ष हुए। इस दृश्य को देखकर विष्णुचित्त स्वामी अपनी भक्ति भावना से घबरा गए कि कहीं भगवान को कोई हानि न पहुँचे, और वहीं पल्लाण्डु पल्लाण्डु (युग-युग जीयो) गाकर मंगलाशासन करने आरंभ कर देते हैं। ऐसे नहीं हैं कि मंगलाशासन केवल बड़ों द्वारा ही छोटों को किया जाए, अपने हृदय में भक्तिपूर्वक स्नेह भाव से कोई भी मंगलाशासन कर सकते हैं, और इसलिए विष्णुचित्त स्वामी भगवान का मंगलाशासन करने सबसे ज्यादा योग्य हैं, और इसी कारण से उन्हें पेरियाऴ्वार् का नाम प्राप्त हुआ! परियाऴ्वार् के समस्त पासुरम् मंगलाशासन से पूर्ण हैं। वे भगवान का मंगलाशासन करने सेवार्थियों के अनेक समूहों को एकत्रित करना चाहते हैं।
पेरियाऴ्वार् का तनियन् एक मुख्य विषय को दर्शाता है – आऴ्वार् का ज्ञान किसी आचार्य के छत्रछाया में पढ़कर प्राप्त किया हुआ ज्ञान नहीं है। वे स्वयं भगवान द्वारा चुने गए और अकलंकित ज्ञान अनुग्रहीत किए गए हैं। उनकी एक और विशेषता है – वे भगवान श्रीरंगनाथ के ससुरजी हैं। तिरुप्पल्लाण्डु के पहले दो पाशुरों में पेरियाऴ्वार् अकेले ही मंगलशासन करते हैं। तीसरे पासुरम् में वे उनके जैसे अन्य भागवतों को बुलाते हैं। चौथे पासुरम् में वे कैवल्यार्थियों को बुलाते हैं, जो केवल अपने आत्म स्वरूप के अनुभव में संलग्न हैं, भगवान की सेवा करने में नहीं। पाँचवें पासुरम् में, वे सारे ऐश्वर्यार्थियों को बुलाते हैं, जो इस संसार में नए धनों को पाने में और खोए हुए धनों को खोजने में मग्न हैं। छठे से आठवें पासुरम् तक, वे सभी एक-एक करके आते हैं। नौवें से बारहवें पासुरम् तक, पेरियाऴ्वार् इन सभी के साथ मिलकर मंगलाशासनम् करते हैं। ग्यारहवें अर्थात् अंतिम पासुरम् में, वे इस प्रबंधम् से प्राप्त फल के बारे में बताते हुए, इसे विराम देते हैं – भगवान का मंगल गाने से क्या लाभ मिलते हैं? हम भगवान का मंगलाशासन करने का अवसर इस संसारऔर परमपदधाम में भी प्राप्त करेंगे! ऐसा करना हमारे स्वरूप के अनुसार होगा! एक जीवात्मा के लिए, परमात्मा का सेवक होते हुए, सदैव अपने स्वामी के शुभचिंतक होना आवश्यक है! एक जीव को अपनी सेवाओं से अपने स्वामी का श्रेय अधिकाधिक बढ़ाने की महत्त्वाकांक्षा रखनी चाहिए! इसलिए, जीवात्मा द्वारा भगवान का शाश्वत मंगलाशासन इस प्रबंधम् का फल है!
कण्णिनुण् सिऱुत्ताम्बु
हमें कण्णिनुण् सिऱुत्ताम्बु मधुरकवि आऴ्वार् द्वारा दिया गया है। उनका जन्म आऴ्वार् तिरुनगरी के निकट तिरुक्कोळूर् दिव्य क्षेत्र में हुआ। वहाँ के भगवान श्री वैत्तमानिधिप्पेरुमाळ् हैं। आऴ्वार् यहाँ से उत्तर भारत को यात्रा पर जाकर, वहाँ कैंकर्य कर रहे थे! वहाँ निवास करते समय एक दिन, वे नित्य अनुष्ठान करते समय, उनका ध्यान दक्षिण ओर में एक तेजोमय प्रकाश की ओर आकर्षित हुआ। जिज्ञासा के कारण उन्होंने उस ओजस्वी प्रकाश का अनुसरण किया, और अंततः वे आऴ्वार् तिरुनगरी तक आ पहुँचे! जैसे ही वहाँ पहुँचने पर प्रकाश अदृश्य हो जाता है, वे उस नगर वासियों से पूछताछ करने लगते हैं कि क्या कोई महान, ज्ञानी पुरुष वहाँ रहता है! नगरवासियों ने तिरुप्पुलियाऴ्वार् (दिव्य इमली का वृक्ष जिसके नीचे श्री शठकोप मुनि निवास करते थे) की ओर इंगित किया और नम्माऴ्वार् (श्री शठकोप स्वामी) जो वहाँ ध्यान अवस्था में रह रहे थे, उनके बारे में बताया। मधुरकवि आऴ्वार् नम्माऴ्वार् से वय में बड़े थे। मधुरकवि आऴ्वार् को नम्माऴ्वार् को देखते ही एक अवर्णनीय आनंद की अनुभूति होती है क्योंकि वे आऴ्वार् का एक महान ज्ञानी और भगवान के महान भक्त होने का अनुभव कर पाए! उनके ध्यान अवस्था से उन्हें बाहर लाने के लिए, मधुरकवि आऴ्वार् ने एक छोटा कंकड़ उनके सामने फेंका। नम्माऴ्वार् ने अपनी आँखें खोलीं और मधुरकवि आऴ्वार् को देखा! तब मधुरकवि आऴ्वार् ने उनसे एक प्रश्न पूछा-
“सॆत्तदिन् वयिट्रिल् सिरियदु पिऱन्दाल्, ऎत्तैत् तिन्ऱु ऎङ्गे किडक्कुम्?”
इसके उत्तर में नम्माऴ्वार् ने, अपने सर्वप्रथम शब्दों को कहा – “अत्तैत् तिन्ऱु अङ्गे किडक्कुम्!”
इसका अर्थ है – जब एक जीवात्मा एक अचित (एक शरीर) में रहता है – तब वह किसका सुखद अनुभव लेता है और वह कहाँ निवास करेगा? इसका उत्तर नम्माऴ्वार् देते हैं, “जब तक वह जीवात्मा कर्म में संलग्न रहता है, वह देह के अंदर ही रहेगा और उसका ही सुखद अनुभव करते रहेगा!” यह सुनकर मधुरकवि आऴ्वार् को स्पष्टता मिलती है और आऴ्वार् के महान ज्ञान की अनुभूति करते हैं! वे समझ गए की आऴ्वार् कितने महान हैं और आचार्य के रूप में उनकी सेवा करने लगते हैं! वे उनसे सहस्त्रगीति (तिरुवाय्मोऴि) और अन्य प्रबंध सीखते हैं। वे उन प्रबंधों को भविष्य के लिए लिपिबद्ध करते हैं और आऴ्वार् के लिए कैंङ्कर्य करते रहते हैं। जब ३२ वर्ष की आयु में नम्माऴ्वार् परमपदधाम को प्राप्त करते हैं, तब मधुरकवि आऴ्वार् आऴ्वार् की विरह से अत्यंत दुखी हो जाते हैं। किंतु अपने आचार्य के वैभव को जगत में प्रसार करने हेतु वे “कण्णिनुण् सिऱुत्ताम्बु” प्रबंधम् की रचना करते हैं। यह बहुत छोटा और अत्यंत मधुर प्रबंधम् है। श्री वरवरमुनि स्वामी ने अपने उपदेश रत्नमाला में, २६ वें पासुरम् में इस प्रबंधम् की महिमा दर्शाई है
वाय्त्त तिरुमंदिरत्तिन् मद्दिममाम् पदम् पोल्
सीर्त्त मधुरकवि सॆय्कलैयै – आर्त्त पुगऴ्
आरियर्गळ् ताङ्गळ् अरुळिच्चॆयल् नडुवे
सेर्वित्तार् ताऱ्-परियम् तेर्न्दु
इसका अर्थ है “मधुरकवि आऴ्वार् का प्रबंधम् तिरुमंत्रम् (अष्टाक्षर) के मध्य पद को दर्शाता है, अर्थात नमः। हमारे पूर्वाचार्यों ने नम्माऴ्वार् पर रचित इस प्रबंधम् की महानता को समझा और इसे दिव्यप्रबंधम् में सम्मिलित किया, क्योंकि उन्होंने इसके अंतर्निहित अर्थ की अनुभूति की, जो यह है कि भगवान की सेवा से अधिक भगवान के सेवकों की सेवा करना अधिक श्रेष्ठ है!” मधुरकवि आऴ्वार् का प्रबंधम् उनके आचार्य नम्माऴ्वार् को गौरवान्वित करने के कारण, श्रीमन्नाथमुनि से आरंभ होकर हमारे सभी पूर्वाचार्यों इसे तिरुमंत्रम् के मध्य पद के समान माना है! इस प्रबंधम् में मधुरकवि आऴ्वार् कहते हैं – “देवुमट्रऱियेन् कुरुगूर् नम्बि, पाविन् इन्निसै पाडित् तिरिवने” – अर्थात वे अपने आचार्य कुरुगूर् नम्बि के अतिरिक्त अन्य किसी भगवान को जानते ही नहीं हैं और वे आचार्य की गौरवगाथा गाकर और आचार्य द्वारा रचित प्रबंधों को गाकर अपने जीवन काल को व्यतीत करेंगे। इस प्रकार वे आचार्य भक्ति को भगवद्भक्ति से श्रेष्ठ निर्धारित करते हैं और इसलिए हमारे अन्य आऴ्वारों से मधुरकवि आऴ्वार् महान हैं! हमारे पूर्वाचार्य मधुरकवि आऴ्वार् और वडुग नम्बि (आन्ध्रपूर्ण स्वामी) की अवस्था प्राप्त करने की इच्छा रखते थे! वडुग नम्बि के लिए रामानुजाचार्य सब कुछ थे! मधुरकवि आऴ्वार् के लिए नम्माऴ्वार् सब कुछ थे!
इस प्रबंधम् में ११ पासुरम् हैं। यह प्रबंधम् नम्माऴ्वार् के वैभव को सुंदर ढंग से प्रकट करता है! “मिक्क वेदियर् वेदत्तिन् उट्पॊरुळ्…” इस पासुरम् में आऴ्वार् कहते हैं कि जो वेदों में निपुण थे उन्होंने इनकी अज्ञानता के कारण इन्हें स्वीकार नहीं किया। किंतु नम्माऴ्वार् ने इन्हें निस्संदेह, पूर्ण रूप से स्वीकार किया, और अत्यंत कृपापूर्वक इनको सर्वश्रेष्ठ ज्ञान प्रदान किया! उन्होंने इन्हें सच्चे रूप में सुधार किया! “पयनन्ऱागिलुम् पाङ्गल्लर् आगिलुम्, तिरुत्ति पणि कॊळ्वान्” – यद्यपि मैं कोई काम का नहीं था, नम्माऴ्वार् ने मुझे सुधारकर कैंङ्कर्य करने के योग्य बनाया।
वे आगे बढ़कर यह कहते हैं कि नम्माऴ्वार् की कृपा भगवद्कृपा और इस संसार में लब्ध किसी भी कृपा से बढ़कर है! भगवान ने हमें भगवद्गीता प्रदान की, जो समझने में कठिन है और केवल कुछ गिने-चुने योग्य लोगों से ही सीखा जा सकता है। किंतु आऴ्वार् ने हमें तिरुवाय्मोऴि प्रदान किया जो समझने में सरल है और सभी के द्वारा सीखा जा सकता है!
अंतिम पासुरम् में वे कहते हैं, “भगवान के अतिप्रिय अपने आचार्य का सबसे प्रिय होते हुए इस दास के द्वारा व्यक्त किए गए आचार्य भक्ति के मतों से जो कोई सहमत हैं, वे निश्चित रूप से वैकुंठ प्राप्त करेंगे।” यहाँ पर हमारे पूर्वाचार्यों एक अद्भुत व्याख्या की है। क्यों मधुरकवि आऴ्वार् ने कहा कि इसपर विश्वास रखकर इसके पाठ करनेवाले को वैकुंठ प्राप्त होगा? क्यों यह नहीं कहा कि उन्हें तिरुकुरुगूर् प्राप्त होगा जहाँ स्वयं आऴ्वार् का निवास है? अऴगिय मणवाळप् पेरुमाळ् नायनार् (श्री रम्यजामातृ देव) आदि व्याख्याओं का मत है कि तिरुकुरुगूर् क्षेत्र पर भगवान आदिप्पिरान् और नम्माऴ्वार् दोनों का राज्य है। किंतु, वैकुंठ में केवल नम्माऴ्वार् का ही राज्य है, क्योंकि श्री वैकुंठ तो वह स्थान है जहाँ वानवर् अर्थात भगवान के सेवकों का ही राज्य होता है। एक और बात यह है कि मधुरकवि आऴ्वार् मात्र उनके आचार्य को
प्रसन्न करने के कारण भगवान का दर्शन करते हैं और इसलिए नहीं कि उन्हें भगवद्कृपा प्राप्त हो। इसलिए यह एक अनमोल प्रबंधम् है जो नम्माऴ्वार् के वैभव को बतलाता है और इसलिए यह प्रणवम् (तिरुप्पल्लाण्डु) के बाद आनेवाले नमः के समान माना जाता है। अन्य प्रबंधम् भगवान के वैभव – उनके दिव्य लीला और दिव्य कल्याण गुण – को बतलाते हैं।
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