श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्रीवानाचल महामुनये नम:
भगवान श्रीमन्नारायण स्वयं द्वारा भक्ति और ज्ञान से अनुगृहीत आऴ्वारों के दिव्य काव्य संग्रह को दिव्यप्रबंध कहा जाता है।
दिव्यप्रबंध क्या है?
दिव्यप्रबंध को तमिऴ् में अरुळिच्चॆयल् भी कहा जाता है। प्रबंध का अर्थ है जो बंधक बनाता है। आऴ्वार् के प्रबंध स्वयं भगवान श्रीमन्नारायण को अपने अनुयायियों के साथ बाँधने में और भक्तों को भगवद् अनुभव (भगवान से संबंधित विषय) में संलग्न कर उन्हें भगवान के साथ संगठन करने में सक्षम हैं। अतः वे प्रबंध कहलाते हैं।
दिव्य प्रबंध आलौकिक हैं, क्योंकि वे संसारिक दोषों से मुक्त हैं, और हमें अकलंकित, पवित्र भक्ति में निमग्न कराने में सहायक हैं।
आऴ्वार् कौन हैं?
भगवान ने कुछ साधकों को चुनकर उन्हें “मयर्वऱ मदिनलम्”, अर्थात सच्चे ज्ञान और भक्ति प्रदान कर अनुग्रहित किया और पूर्णतः अज्ञान दूर कर दिया। उन्हें आऴ्वार् बनाया। “आऴ्वार्” शब्द का अर्थ है, वे जो भगवद् अनुभव में लीन हैं। वे भावातिरेक भक्ति की अवस्था में हैं, अर्थात् वे भगवान के दिव्य सौंदर्य और कल्याण गुणों के चिंतन में भावविभोर हैं।
कुल १२ आऴ्वार् हैं।
पॊइगै आऴ्वार् (सरो योगी), भूतत्ताऴ्वार् (भूत योगी), पेयाऴ्वार् (महदाह्वय योगी), तिरुमऴिसै आऴ्वार् (श्री भक्तिसार), नम्माऴ्वार् (श्रीशठकोप स्वामी), कुलशेखर आऴ्वार्, पेरियाऴ्वार् (श्रीविष्णुचित्त स्वामी), तॊण्डरडिप्पोडि आऴ्वार् (श्री भक्ताङ्घ्रिरेणु), तिरुप्पाणाऴ्वार् (योगीवाहन् स्वामी), तिरुमङ्गै आऴ्वार् (श्री परकाल स्वामी) ये हैं दस आऴ्वार्। मधुरकवि आऴ्वार् और आण्डाळ् (गोदाम्बा) को भी इस सूची में मिलाए जाने पर आऴ्वार् कुल १२ बनते हैं।
मधुरकवि आऴ्वार् और आण्डाळ् दोनों भी आचार्य के प्रति निष्ठावान थे, अर्थात अपने आचार्य के प्रति निष्ठा रखी और भक्ति की। आण्डाळ् भूमि देवी का अवतार होते हुए, अपने आचार्य, विष्णुचित्त स्वामी के शिक्षा और मार्गदर्शन के आधार पर, उसकी भगवान के प्रति आलौकिक भक्ति थी। इसी प्रकार, मधुरकवि आऴ्वार् भी श्रीशठकोप स्वामी के प्रति आचार्य भक्ति में पूर्णतया लीन थे।
श्री वरवरमुनि स्वामी अपने उपदेश रत्तिन मालै में आऴ्वारों की और उनके कार्यों की प्रशंसा करते हैं:
आऴ्वार् युग युग जियें! दिव्य प्रबंधम् (दिव्य रचनायें) जिसकी उन्होंने दया पूर्वक रचना की चिरकाल तक रहें! जो यथोचित शब्द सारे संसार का उद्धार करते हैं जिन्हें हमारे आचार्यों ने कहा, जो आऴ्वारों के पथ पर आये चिरकाल तक रहें! इन सबका आधार वेद, जो अपने आप में श्रेष्ठ हैं, युग युग तक रहें!
श्रीशठकोप स्वामी के दिव्य प्रबंधों का वेदों से संबंध:
श्रीशठकोप स्वामी आऴ्वारों के अग्रणी या प्रवर्तक माने जाते हैं। उनके दिव्य संग्रहों को चर्तुवेदों के समान माने जाते हैं,
- तिरुवाय्मॊऴि (सहस्त्रगीति) – ११०२ श्लोक – साम वेद के समान
- तिरुविरुत्तम् – १०० श्लोक – ऋग्वेद
- पेरिय तिरुवन्तादि – ८७ श्लोक – अथर्ववेद
- तिरुवासिरियम् – ७ श्लोक – यजुर्वेद
जिस प्रकार वेदों के ६ अंग (षडङ्ग) होते हैं, उसी प्रकार श्रीपरकाल आऴ्वार् की ६ रचनाएँ श्रीशठकोप स्वामी के ४ रचनाओं के अंग माने जाते हैं। वेदों के ६ अंग हैं:- १) शिक्षा (सही उच्चारण और स्वरों का अध्ययन) २) व्याकरण, ३) छन्द (लय/मात्रा), ४) निरुक्त (शब्दों और मंत्रों का व्युत्पत्ति विज्ञान), ५) ज्योतिष और ६) कल्प (अनुष्ठान)। श्रीपरकाल स्वामी की रचनाएँ हैं पेरिय तिरुमोऴि, तिरुक्कुऱुन्ताण्डगम्, तिरुवेऴुक्कूट्रिरुक्कै, सिरियत् तिरुमडल्, पेरियत् तिरुमडल्, तिरुनेडुन्ताण्डगम्।
भगवान के पाँच रूप और उनके प्रमाण:
- प्रमेय – भगवान ही प्रमेय अर्थात् लक्ष्य हैं
- प्रमाण हैं वे ग्रंथ जो हमारा भगवान की ओर मार्गदर्शन करते हैं
- प्रमाता अर्थात आचार्य/गुरु
भगवान के पाँच रूप – पर, व्यूह, विभव, अंतर्यामी और अर्चा विग्रह।
इन पाँचों रूप के लिए पाँच प्रकार के प्रमाण उपलब्ध हैं
- पर रूप (परमपदधाम में विद्यमान परम स्वरूप) के लिए वेद प्रमाण है
- व्यूह रूप (क्षीरसागर में विद्यमान रूप) के लिए पंचरात्र आगम प्रमाण है
- विभव अवतारों के लिए इतिहास और पुराण प्रमाण हैं
- अंतर्यामी रूप के लिए मनु स्मृति प्रमाण है
- अर्चा रूप के लिए आऴ्वारों के दिव्यप्रबंध पाशुर प्रमाण हैं ।
आऴ्वार् अर्चा रूप के अनुभव में लीन रहे, और उनके दिव्यप्रबंध रचनाएँ उनके इन अनुभवों से भरे हृदय के प्रतिबिंब हैं। दिव्यदेशम् (दिव्यक्षेत्र) अर्थात् भगवान के वे दिव्य धाम जिनका आऴ्वारों ने मंगलाशासन (अपने प्रबंधों के माध्यम से भगवान की प्रशंसा) किया है। ये दिव्यप्रबंध आऴ्वारों के अर्चावतार अनुभवों का एक सुंदर कोष हैं।
दिव्यप्रबंध कैसे सहायक है?
मणवाळ मामुनिगळ् (श्री वरवरमुनि स्वामी) के दैनिक क्रियाओं का एक अभिलेख है वरवरमुनि दिनचर्या जिसे एऱुम्बियप्पा (देवराज गुरु) ने लिखा है, जो वरवरमुनि स्वामी के अष्टदिग्गजों (आठ प्रधान शिष्य) में से एक थे। वे वरवरमुनि स्वामी को प्रणाम करते हैं और वरवरमुनि स्वामी के दिनचर्या को पूर्व दिनचर्या (प्रातः काल की गतिविधियाँ) और उत्तर दिनचर्या (संध्याकाल की गतिविधियाँ) में समझाते हैं।
एऱुम्बियप्पा अपने कार्यों में दिव्यप्रबंध का महत्त्व समझाते हैं। वे बताते हैं कि दिव्यप्रबंधों का उद्देश्य है हमें वैराग्य पाने में सहायता करना- अर्थात हमारे लक्ष्य तक पहुँचने हेतु सांसारिक सुख-भोगों से विरक्त होना। इतना ही नहीं, दिव्यप्रबंध में अतिशय महत्त्वपूर्ण रहस्य त्रयम् (तीन तत्व – तिरुमंत्रम्, द्वयम्, चरम श्लोकम्) के तात्पर्यों को भली-भाँति समझाया गया है
पूर्व दिनचर्या २७ में, एऱुम्बियप्पा कहते हैं,
तत्वम् दियप्रबंधानां सायं संसार वैरिणाम्।
सरसं सरहस्यानां व्याचक्षाणां नमामि तम्।।
(दास मणवाळ मामुनिगळ् श्री वरवरमुनि स्वामी को वन्दन करता है, जिन्होंने निःसंदेह रूप से यह समझाया कि दिव्यप्रबंध सत्य [अर्थात भगवान और उनके अनुयायी ही हमारा उद्देश्य होना] के सार हैं और वे इस संसार में हमारे पुनर्जन्मों को समाप्त कर देंगे। ये दिव्यप्रबंध रहस्य त्रयम् के अर्थ को दर्शाते हैं इसमें कोई संदेह नहीं है।)
क्या ऐसा कोई प्रबंध है जो जीवन में विरक्ति लाने का उल्लेख करता हो? श्रीशठकोप स्वामी अपने तिरुविरुत्तम् के पहले पासुरम् में ही सांसारिक जीवन में विरक्ति प्रदर्शन करने का तात्पर्य दर्शाते हैं,
पॊय्निन्ऱ ज्ञानमुम् पॊल्ला ऒऴुक्कुम् अऴुक्कुडम्बुम्
इन्निन्ऱ नीर्मै इनियाम् उऱामै उयिरळिप्पान्
ऎन्निन्ऱ योनियुमाय्प् पिऱन्दाय् इमैयोर् तलैवा
मॆय्न्निन्ऱु केट्टरुळाय् अडियेन् सॆय्युम् विण्णप्पमे
सरल व्याख्या:
हे सृष्टि की रक्षा करने के लिए अनेकानेक अवतार लेने वाले! हे नित्यसुरियों (श्री वैकुंठ में नित्य वास करने वाले) के स्वामी! हमारे दुःखों का स्रोत और मिथ्या ज्ञान, दुराचरणों, अशुद्धता पूर्ण शरीरों आदि से परिपूर्ण जन्म चक्र हमें नहीं मिलना चाहिए। तुम्हें दृढ़ता पूर्वक स्थित होकर अपने इस दास का निवेदन सुनना होगा!
शब्दार्थ:
पॊय्निन्ऱ – जो असत्य होते हुए
ज्ञानमुम् – ज्ञान
पॊल्ला ऒऴुक्कुम् – दुराचरण
अऴुक्कु – अशुद्ध
उडम्बुम् – शरीर
इन्निन्ऱ – इस स्वभाव के
नीर्मै – गुण
इनि – अब से
याम् – हम
उऱामै – नहीं प्राप्त करेंगे
उयिर् – सृष्टि की गई सारी वस्तुएँ
अळिप्पान् – रक्षा करने के लिए
ऎन्निन्ऱ – अनेक प्रकार के
योनियुमाय् – योनियाँ/अनेक जन्म
पिऱन्दाय् – हे जिसने अवतार लिया!
इमैयोर् – नित्यसूरियाँ
तलैवा – स्वामी!
मॆय् – सत्य
निन्ऱु – दृढ़ता पूर्वक होते हुए
केट्टरुळाय् – कृपापूर्वक सुनें
अडियेन् – यह दास (मैं)
सॆय्युम् – द्वारा किया गया
विण्णप्पमे – निवेदन
जितना अधिक हम ऐसे पाशुरों को पढ़ते हैं उतना ही हमें सांसारिक सुख-भोगों से विरक्ति प्राप्त होगी और भगवद् अनुभवों में राग प्राप्त होगा। जब हम भगवान के कल्याण गुणों, अवतार लीलाओं को देखते हैं, हमें हर्ष होता है…. आत्मा के पवित्र आनन्द का अनुभव करेंगे और भगवद् सेवार्थी होने की अपनी भूमिका समझ पाएँगे।
जब हम शरीर के स्थान पर आत्मा की दृष्टिकोण से देखेंगे तब हम भगवान की सेवा करने का अनुभव कर सकेंगे, जैसे कि आण्डाळ् ने “वैयत्तु वाऴ्वीर्गाळ्” में उक्त किया है, हम इस संसार में रहकर भी एक संतुष्ट जीवन जी सकते हैं जब हम भगवान के अनुभवों में लीन होते हैं। साथ ही, हम देह त्यागने के पश्चात श्रीवैंकुण्ठ में भगवान की सेवा करने का सुख भोगेंगे।
आत्मा के इस जन्म का और इस जन्म के पश्चात् का लक्ष्य बड़ी सुंदर ढंग से दिव्यप्रबंधों में समझाया गया है।
आत्मा भगवान का दास है और आत्मा का कार्य है भगवान के दिव्य चरणकमलों की सेवा। इसी को तिरुमंत्रम् (अष्टाक्षरी मंत्र) में दर्शाया गया है।
- तिरुमंत्रम् में – आत्मा भगवान का सेवक है और उसे भगवान के दिव्य चरणकमलों में शरणागत होना चाहिए।
- द्वय मंत्रम् में – हम यह सीखते हैं कि हमें माता श्रीमहालक्ष्मी (पेरिय पिराट्टि/तायार्) के पुरुषकार/माध्यम से ही भगवान कीशरण लेनी चाहिए, और यह शरणागति कर उनकी सेवा करने का हेतु उनकी (भगवान और माँ श्रीमहालक्ष्मी की) प्रीति/आनंद एकमेव है।
- चरम श्लोकम् में – भगवद्गीता में कृष्ण कहते हैं, “अन्य सभी धर्मों को त्यागकर केवल मेरे पादकमलों को पकड़े रहो। मैं तुम्हें तुम्हारे सभी पापों से मुक्त करूँगा। चिंतित न हो।”
अतः, इन रहस्य त्रयम् के अर्थों के माध्यम से, हम यह समझ सकते हैं कि नित्य विभूति (संसार मंडल) और लीला विभूति (श्री वैकुंठ) दोनो स्थानों में आत्मा की भूमिका भगवान का सेवक बने रहना है। आत्मा का मुख्य पात्र है परमपदधाम में नित्य सेवा करते रहना।
दिव्यप्रबंध का किस प्रकार विभाजन किया गया है?
यद्यपि वेद एक ही शास्त्र है, वेदव्यास जी ने उसका ४ भागों में विभाजन किया, ताकि मनुष्य उसका सहजता से अनुसरण कर सके।
वेदव्यास जी ने वेदों को ४ भाग में विभाजित किया: ऋग, यजुर्, साम, अथर्वण ।
उसी प्रकार, श्रीमन्नाथमुनि ने दिव्यप्रबंध का ४ भागों में विभाजन किया।
मुदल् आयिरम् (प्रथम सहस्त्र), इरण्डाम् आयिरम् (द्वितीय सहसत्र), इयऱ्-पा (तृतीय सहस्त्र) और तिरुवाय्मोऴि (सहस्गीति/चतुर्थ सहस्त्र)।
इन चार भागों में निम्नलिखित समाविष्ट हैं:
- प्रथम सहस्त्र में नाथमुनि स्वामी ने पेरियाऴ्वार्, आण्डाळ्, कुलसेखराऴ्वार्, तोण्डरडिपोडि आऴ्वार्, तिरुमऴिसै आऴ्वार् (तिरुच्चन्दविरुत्तम्), तिरुप्पाणाऴ्वार् और मधुरकवि आऴ्वार् इनके रचनाओं को समाविष्ट किए हैं।
- द्वितीय सहसत्र में नाथमुनि स्वामी ने पूरे पेरिय तिरुमोऴि, तिरुक्कुऱुन्ताण्डगम् और तिरुनेडुन्दाण्डगम् को समाविष्ट किया।
- तृतीय सहस्त्र में उन्होंने इयऱ्-पा अर्थात गद्य रूप के गीतों को समाविष्ट किया। इन्हें सामान्यतः किसी राग या ताल में नहीं बिठाया जाता।
तमिऴ् साहित्य के तीन श्रेणियाँ हैं:
- इयल् – गद्य
- इसै – संगीत
- नाटकम् – नाटक
इयऱ्-पा में, प्रथम तीन आऴ्वारों (पोय्गै आऴ्वार्, भूतत्ताऴ्वार्, पेयाऴ्वार्), तिरुमऴिसै आऴ्वार् (नान्मुगन् तिरुवन्दादि), नम्माऴ्वार् (तिरुविरुत्तम्, तिरुवासिरियम् और पेरिय तिरुवन्दादि) और तिरुमङ्गै आऴ्वार् (तिरुवेऴुक्कूट्रिरुक्कै, सिरियत् तिरुमडल् और पेरियत् तिरुमडल्) के कार्यों को समाविष्ट किया गया है।
चतुर्थ सहस्त्र में उन्होंने पूरे तिरुवाय्मोऴि (सहस्त्रगीति), नम्माऴ्वार् की रचना, को समाविष्ट किया।
क्या हैं पत्तु/पदिगम्/दशकम्?
क्या ठीक ४००० छंद हैं?
नम्माऴ्वार् कहते हैं “आयिरत्तुळ् इप्पत्तु” – “सहस्त्र गीतों में से ये १०” परंतु वास्तव में तिरुवाय्मोऴि में कुल ११०२ पासुरम् (छंद) हैं।
तिरुवाय्मोऴि के प्रत्येक पदिगम् (दशकम्) में ११ पासुरम् हैं। एकमात्र केशवन् तमर् (तिरुवाय्मोऴि २.७) दशक में १३ पासुरम् हैं।
पदिगम् (दशकम्) क्या है?
१० या ११ छंद मिलकर तमिऴ् में एक पदिगम् (दशकम्) कहलाते हैं।
पत्तु क्या है?
दस दशकम्, अर्थात १०० छंदों के समूह को पत्तु (१० तमिऴ् में) कहते हैं। तिरुवाय्मोऴि में १० पत्तु हैं। पेरिय तिरुमोऴि में ११ पत्तु हैं।
पेरियाऴ्वार् तिरुमोऴि में ५ पत्तु हैं, परंतु वे ५०० छंद नहीं हैं, ४६१ हैं।
दिव्यप्रबंध किस प्रकार हमें प्राप्त हुए?
प्रथम तीन आऴ्वार् (मुदल् आऴ्वार्) और तिरुमऴिसै आऴ्वार् द्वापरयुग के अंतिम चरण में अवतरित हुए। नम्माऴ्वार् से प्रारंभ होकर इतर सभी आऴ्वार् कलयुग में आए।
इन आऴ्वारों ने हमें दिव्यप्रबंध दिया और इसकी समृद्धी बनी रही। तिरुमङ्गै आऴ्वार् के समय में भी हमें यह ज्ञात होता है कि उन्होंने श्रीरङ्गम् में अध्ययन उत्सव आरंभ किया। वे श्रीशठकोप स्वामी के परमपदम यात्रा के वैभव को सम्मानित करना चाहते थे और नम्पेरुमाळ् समक्ष यह प्रार्थना की। वैकुंठ एकादशी से प्रारंभ कर अगले १० दिनों तक उन्होंने श्रीशठकोप स्वामी के पासुरों का पाठ कर उनका महिमामंडन किया।
कालांतर में ये पासुर् धीरे-धीरे लुप्त हो गए, और अपना महत्त्व खोने लगे, और अति कम व्यक्ति ही जानते और वे भी इन पासुरम् के बारे में बहुत कम जानते। श्रीमन्नाथमुनि ने इन पासुरों को श्रीशठकोप स्वामी से प्राप्त किया और इनमें रुचि पुनःस्थापित किया।
महाभारत में दर्शाया गया है: अर्जुन को एक संदेह निर्माण हुआ कि कृष्ण कौन है, उसकी क्या शक्ति है? भगवद्गीता के चौथे अध्याय में कृष्ण कहते हैं, “मैंने सर्वप्रथम विवस्वान को यह ज्ञान प्रदान किया, उससे मनु – इक्ष्वाकु, एक समय में यह ज्ञान लुप्त हो गया, इसीलिए मैं अब तुम्हें बता रहा हूँ।”
अर्जुन अपना संदेह व्यक्त करते हुए कहता है, किस प्रकार मनु के काल में कृष्ण हो सकते थे। कृष्ण इसके उत्तर में कहते हैं:
श्री भगवान उवाच
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ॥
(मैंने अनेक जन्म व्यतीत किए हैं; तुम ने भी, अर्जुन! मुझे वे सब स्मरण हैं, पर तुम्हें नहीं हैं, परन्तप (जो शत्रुओं को जलाता है)!)
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥
(जब भी और जहाँ भी, हे भारत!, धर्म झुकने और अधर्म बढ़ने लगता है, तब (और वहाँ) मैं स्वयं को प्रकट करता हूँ)
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥
(धर्म के पथ पर चलने वालों के लिए और दुष्टों का विनाश (दंडित) करने के लिए, और धर्म स्थापना के लिए मैं युग-युग में अवतार लेते रहता हूँ)
इस प्रकार, भगवान अपने अवतार रहस्य और अपनी महानता को समझाते हैं। चौथे अध्याय में, भगवान समझाते हैं कि ज्ञान जो कुछ काल के लिए लुप्त रहा उसे पुनर्जीवित करना पड़ा। उसी प्रकार, प्रबंधम् भी लुप्त हो गए और भगवान ने नाथमुनि स्वामी के माध्यम से उसे पुनर्जीवित किया।
मेल्नाडु (तिरुनारायणपुरम् के आसपास का क्षेत्र) से कुछ श्रीवैष्णव काट्टुमन्नार् मंदिर की यात्रा करते हैं और वहाँ के भगवान मन्ननार् के लिए तिरुवाय्मोऴि (५.८) पदिगम् “आरावमुदे…” गाते हैं। इन पासुरों के अर्थों से भाव विभोर होकर नाथमुनि स्वामी उन श्रीवैष्णवों से इनके विषय में पूछने पर, वे उत्तर देते हैं कि वे इन ११ पासुरों के अतिरिक्त और कुछ नहीं जानते। वे बताते हैं कि यदि नाथमुनि स्वामी कुरुगापुरी क्षेत्र (तिरुक्कुरुगूर) गए, तो इस पर अधिक विवरण मिलने की संभावना है। नाथमुनि स्वामी मन्ननार् से आज्ञा लेकर आऴ्वार् तिरुनगरी (कुरुगापुरी) की ओर प्रस्थान करते हैं। वहाँ उनकी भेंट पराङ्कुश दासर् से होती है, जो मधुरकवि आऴ्वार् के शिष्य थे और वे नाथमुनि स्वामी को कण्णिनुण् सिऱुत्ताम्बु सिखाते हैं और उन्हें तिरुप्पुलियाऴ्वार् (इमली का वृक्ष जहाँ श्रीशठकोप स्वामी रहा करते थे) के सामने आसन लेकर, बिना रुके १२००० बार इसके पाठ करने को कहते हैं। नाथमुनि स्वामी अष्टांग योग के ज्ञानी होने के कारण वे श्रीशठकोप स्वामी की ध्यान करते हैं और सफलतापूर्वक कण्णिनुण् सिऱुत्ताम्बु पाठ की १२००० आवृत्ति करते हैं। नाथमुनि स्वामी से प्रसन्न होकर श्रीशठकोप स्वामी प्रकट होते हैं और उन्हें आशीर्वाद के रूप में अष्टांग योग, अर्थों सहित ४००० दिव्यप्रबंधम् का पूर्ण ज्ञान प्रदान करते हैं। जिस प्रकार शठकोप स्वामी भगवान द्वारा दिव्य ज्ञान से अनुग्रहित हैं, उस प्रकार नाथमुनि स्वामी शठकोप स्वामी द्वारा उसी दिव्य ज्ञान से अनुगृहीत हैं। इसे श्री वरवरमुनि स्वामी (मणवाळ मामुनिगळ्) अपने उपदेश रत्तिनमाला में कहते हैं – “अरुळ् पॆट्र नाथ मुनि” (नाथमुनि जिन्होंने शठकोप स्वामी की कृपा प्राप्त की)। इस प्रकार नाथमुनि स्वामी शठकोप स्वामी के शिष्य बने।
अष्टांग योग साधक होने के कारण, नाथमुनि स्वामी संपूर्ण ४००० दिव्यप्रबंधम् को ग्रहण कर पाए और वे प्रबंध उनके मन में दृढ़ हो गए। वे काट्टुमन्नार् कोयिल् लौटते हैं और भगवान मन्ननार् के आगे इन ४००० प्रबंध प्रस्तुत करते हैं। मन्ननार् नाथमुनि स्वामी से अति प्रसन्न होकर उन्हें इसका विभाजन करने और सभी ओर प्रचार करने का आदेश देते हैं। वे ३००० पासुरम् को संगीत-बद्ध करते हैं और अपने भागिनेय कीऴैयगत्ताऴ्वान् और मेलैयगत्ताऴ्वान् को सिखाते हैं। इनके माध्यम से वे इसका प्रचार करते हैं और अरैयर् सेवा (भगवान के सान्निध्य में ४००० दिव्रप्रबंध को अभिनय सहित पाठ करने का प्रकार) की स्थापना करते है, और बचे १००० पासुरों का भी प्रचार करते हैं। नाथमुनि स्वामी ये अपने शिष्य श्री पुण्डरीकाक्ष (उय्यक्कोण्डार्) को सिखाते हैं, पुण्डरीकाक्ष अपने शिष्य श्री राम मिश्र (मणक्काल् नम्बि) को सिखाते हैं, और राम मिश्र अपने शिष्य, नाथमुनि के पौत्र, यामुनाचार्य (आळवन्दार्) को सिखाते हैं।
आळवन्दार् संन्यास स्वीकारते हैं और श्रीवैष्णव सम्प्रदाय को बढ़ावा देते हैं। महापूर्ण स्वामी (पेरिय नम्बि), श्री शैलपूर्ण (पेरिय तिरुमलै नम्बि), गोष्ठीपूर्ण स्वामी (तिरुक्कोष्टियूर् नम्बि), मालाधार स्वामी (तिरुमालैयाण्डान्), देय्ववारि आण्डान्, माऱनेरि नम्बि और काँचिपूर्ण (तिरुक्कच्चि नम्बि) उनके प्रमुख शिष्यों में से कुछ हैं।
महापूर्ण स्वामी के शिष्य रामानुजाचार्य (एम्पेरुमानार्) दिव्यप्रबंधों में बहुत लीन रहे, किंतु उन्होंने उनकी व्याख्याएँ नहीं लिखीं। ऐसे कहा जाता है कि रामानुजाचार्य ने तिरुक्कुरुगैप्पिरान् पिळ्ळान् को तिरुवाय्मोऴि के लिए व्याख्या लिखने का आदेश दिया। इसके पश्चात, पराशर भट्टर् ने कुछ मुख्य और अद्भुत व्याख्याएँ दी। भट्टर् ने तिरुक्कुरुगैप्पिरान् पिळ्ळान् की ६००० पडी (१ पड़ी में ३२ अक्षर होते हैं) व्याख्यानम् के आधार पर नञ्जीयर् (श्री वेदान्ती जीयर्) को तिरुवाय्मोऴि सिखाया। भट्टर् नञ्जीयर् से कहते हैं कि तिरुवाय्मोऴि के लिए वे एक व्याख्या लिखें और नञ्जीयर् ने आज्ञा पालन करते हुए ९००० पडी व्याख्या लिखी। नञ्जीयर् के शिष्य नम्पिळ्ळै (श्री कलिवैरी दास), एक महान विद्वान थे; वे कलिवैरी दासर् और लोकाचार्य नामों से भी जाने जाते थे। वे तमिऴ्, संस्कृत, इतिहास, पुराण, व्याकरण आदि विषयों के विद्वान थे। श्रीरंगम में रहकर उन्होंने तिरुवाय्मोऴि का सविस्तार व्याख्या दी और इसका प्रवचन दिया। उनके प्रवचन इतने प्रसिद्ध थे कि बहुधा सभी पूछते कि यह गोष्ठी नम्पेरुमाळ् (श्रीरंगनाथ भगवान की उत्सव मूर्ति) की है या नम्पिळ्ळै की! वे बड़ी संख्या में लोगों को अपने प्रवचनों की ओर आकर्षित करते जैसे नम्पेरुमाळ् आकर्षित करते हैं अपनी शोभायात्रा के लिए। उन्होंने सम्प्रदाय के गूढ़ विषयों का अर्थ समझाया और दिव्यप्रबंधम् को बढ़ावा दिया। उनके प्रमुख शिष्य हैं वडक्कु तिरुवीधिप्पिळ्ळै (श्री कृष्ण पाद), पेरियवाच्चान् पिळ्ळै (श्री कृष्ण) आदि ।
पेरियवाच्चान् पिळ्ळै ने पूरे ४००० पासुरों की व्याख्या लिखी है। दिव्यप्रबंधम् के लिए उनका विशाल योगदान रहा है। व्याख्याओं के बिना हम आऴ्वारों के अरुळिच्चॆयल् (दिव्यप्रबंध) के गूढ़ अर्थों को नहीं समझ सकते। उन्होंने आचार्यों के कार्यों का संग्रह किया, और जो कुछ भी उन्होंने नम्पिळ्ळै के प्रवचनों में श्रवण किया, उनका एक संग्रह बनाया जो एक विस्तार और महान व्याख्या बन गई।
इसी प्रकार, वडक्कु तिरुवीधिप्पिळ्ळै, नम्पिळ्ळै से तिरुवाय्मोऴि के प्रवचन सुनते हैं, पाण्डुलिपियाँ बनाते हैं। इस प्रकार वे नम्पिळ्ळै के प्रवचनों पर आधारित सुविस्तार ईडु ३६००० पडि व्याख्या लिखते हैं। ये हैं नम्पिळ्ळै, पेरियवाच्चान् पिळ्ळै और वडक्कु तिरुवीधिप्पिळ्ळै के महान योगदान। वडक्कु तिरुवीधिप्पिळ्ळै के दो पुत्र – पिळ्ळै लोकाचार्य (श्री लोकाचार्य स्वामी) और अऴगिय मणवाळप् पेरुमाळ् नायनार् (श्री रम्यजामातृ देव) हमारे सम्प्रदाय के दो अनमोल रत्न हैं।
पिळ्ळै लोकाचार्य और अऴगिय मणवाळप् पेरुमाळ् नायनार् की महानता यह है कि उन्होंने कृपापूर्वक दिव्यप्रबंधम् के आंतरिक रहस्य अर्थों को संग्रहीत कर रहस्य ग्रन्थों रचना की। इस प्रकार उन्होंने प्रमाण रक्षणम् अर्थात ज्ञान के आधार की रक्षा कर पोषण किया। पिळ्ळै लोकाचार्य ने अपने श्रीवचनभूषणम् में तिरुवाय्मोऴि और दिव्यप्रबंधों के गूढ़ अर्थों को समेटकर उन्हें इस ग्रंथ में लिपिबद्ध किया है। अऴगिय मणवाळप् पेरुमाळ् नायनार् ने आचार्य हृदयम् ग्रंथ में तिरुवाय्मोऴि साथ ही आऴ्वारों और उनके कार्यों की महानता को दर्शाया है।
पिळ्ळै लोकाचार्य के शिष्य तिरुवाय्मोऴिप्पिळ्ळै (श्रीशैलेश स्वामी) ने आऴ्वार् तिरुनगरी को एक दिव्य क्षेत्र में रूपांतरित करने का और श्रीशठकोप स्वामी की मूर्ति को वहाँ प्रतिष्ठित करने का महान कैंङ्कर्य किया है। केरळ के तिरुक्कणाम्बि से आऴ्वार्तिरुनगरी तक श्री शठकोप स्वामी के विग्रह को ले आने में और आऴ्वार् के मंदिर में आराधना का पुनर्निर्माण करने में इनकी महत्त्वपूर्ण सहायता रही है। नगर के पश्चिमी भाग पर श्री रामानुजाचार्य के विग्रह (भविष्यदाचार्य विग्रह जिसे श्रीशठकोप स्वामी ने मधुरकवि आऴ्वार् को अनुग्रहित किया बहुत पहले) को भी प्रतिष्ठित कर, चतुर्वेदी मङ्गळम् (मंदिर के बाहर चारों ओर ४ वीथियाँ) निर्माण कर वहाँ कुछ कुटुंबों के समूह को भी मंदिर सेवा के लिए बसाया।
नम्पिळ्ळै ने ईडु व्याख्यानाम् ईयुण्णि माधवप् पेरुमाळ् को सौंपा, और उन्होंने इसे अपने पुत्र ईयुण्णि पद्मनाभ पेरुमाळ् को सिखाया। नालूर् पिळ्ळै ने, ईयुण्णि पद्मनाभ पेरुमाळ् के शिष्य होते हुए, संपूर्ण ईडु व्याख्यानाम् सीखा और अपने पुत्र नालूर् आच्चान् पिळ्ळै को सिखाया।
तिरुवाय्मोऴि पिळ्ळै ईडु को नालूर् आच्चान् पिळ्ळै से गहनता से सीखा, और इनसे और इनकी सेवा भाव से प्रसन्न होकर नालूर् आच्चान् पिळ्ळै ने इन्हें अपने आराध्य भगवान (इनवायर् तलैवन्) उपहार में दे दिया। इस प्रकार नालूर् आच्चान् पिळ्ळै द्वारा ईडु ३६००० पडि आगे बढ़ा। तिरुवाय्मोऴिप्पिळ्ळै आऴ्वार् तिरुनगरी में निवास करते हैं।
तिरुवाय्मोऴिप्पिळ्ळै का वैभव सुनकर, श्री वरवरमुनि स्वामी (मणवाळ मामुनिगळ्), जो आदिशेष के अवतार, श्री रामानुजाचार्य के पुनरवतार, आऴ्वार् तिरुनगरी जाकर इनके प्रति शरणागति कर इनके शिष्य बनते हैं। श्री वरवरमुनि स्वामी की श्री रामानुजाचार्य प्रति गहरी भक्ति थी, और इस लिए वे यतीन्द्र प्रवण नाम से भी जाने जाते थे। वे आऴ्वार् तिरुनगरी में भविष्यदाचार्य मंदिर में कैंङ्कर्य करते आए। वे दिव्यप्रबंध में निपुण बन गए, विशेष रूप से ईडु ३६००० पडि व्याख्यानाम् के। उन्होंने ईडु व्याख्यानाम् के आधारभूत प्रमाणों को एकत्रित करना और संग्रहीत करना आरंभ किया। अपने आचार्य के अंतिम आज्ञा को ध्यान में रखते हुए, आऴ्वार् से श्रीरंगम जाने के लिए आज्ञा पाकर, वे श्रीरंगम जाते हैं और वहीं निवास करते हुए सम्प्रदाय को बढ़ावा दिया। उन्होंने दिव्यप्रबंध को अधिक प्रमुखता दी।
नम्पेरुमाळ् सभी सेवार्थियों, आचार्य पुरुषों, जीयर्, श्रीवैष्णवों के सामने श्री वरवरमुनि स्वामी को आदेश देते हैं कि वे श्री शठकोप स्वामी के तिरुवाय्मोऴि की ईडु ३६००० पडि व्याख्यानम् का प्रवचन दें। साथ ही वे यह भी आदेश देते हैं कि यह प्रवचन बिना किसी रुकावट/बाधा के पूर्ण हो। श्री वरवरमुनि स्वामी, स्वयं को अत्यंत भाग्यशाली अनुभव करते हुए, ईडु व्याख्यानाम् और साथ ही अन्य सभी व्याख्याओं (६००० पडि, ९००० पडि, १२००० पडि और २४,००० पडि) के प्रवचन का प्रारंभ करते हैं। वे गहन अर्थ, पद-पदार्थ, रहस्य अर्थ आदि समझाते हैं। यह कुछ १० महीनों तक चलता गया और अंत में अनि तिरुमूलम् (ज्येष्ठ मास, मूला नक्षत्र) इसके समापन (साट्रुमुऱै) का दिन आया। जैसे ही साट्रुमुऱै पूर्ण हुआ, नम्पेरुमाळ् ने अरङ्गनायकम् नामक एक छोटे बालक का रूप धारण किया, गोष्ठी के सम्मुख उपस्थित हुए और मणवाळ मामुनिगळ् को गौरवान्वित करते हुए “श्रीशैलेश दयापात्रं…” मंगळाचरण (तनियन्) को समर्पित किया।
श्री वरवरमुनि स्वामी के काल के पश्चात्, दिव्यप्रबंधम् की वृद्धि और विकास होता जा रहा है। जिस प्रकार वेदों को अनादि माना जाता है, उसी प्रकार दिव्यप्रबंधम् को भी अनादि माना जाता है, इनका कोई आरंभ और अंत नहीं है। श्री शठकोप स्वामी ने भगवान की कीर्ति करते हुए तिरुधाय्मॊऴि ७.९.१. में वर्णित किया है कि भगवान की महिमा दर्शाने के लिए आऴ्वार् को एक साधन के रूप में प्रयोग किया।
ऎन्ऱैक्कुम् ऎन्नै उय्यक्कॊण्डु पोगिय
अन्ऱैक्कन्ऱॆन्नैत् तन्नाक्कि ऎन्नाल् तन्नै
इन् तमिऴ् पाडिय ईसनै आदियाय्
निन्ऱ ऎन् सोदियै ऎन् सॊल्लि निऱ्-पनो?
(इस प्रकार से प्रथम बार अंगीकार करना कि यह अंगीकरण शाश्वत रहे, विशेषतः मुझे सदैव अनुग्रहित कर और निर्देशित कर, केवल उसी के लिए अस्तित्व होने की तीव्र इच्छा मुझमें जागृत कर, ज्ञान आदि रहित मुझे एक कारण बनाकर मुझसे स्वयं की स्तुति करवाना, जिसका कारण है कि वह स्वयं ही मेरे भीतर मूलकारण के रूप में होते हुए वह स्वयं ही गा रहा है, और इससे स्थिर होकर, स्वाभाविकतया स्वामी होते हुए उसने स्वयं इन मधुर तमिऴ् पाशुरों को गाए हैं। मैं उसके बारे में क्या गाऊँ जिसने स्वयं यह प्रकट किया कि वह कितना दीप्तिमान है, और मुझे दृढ़ रखा? क्या मैं ऐसा कहूँ कि पहले उसने मुझे अंगीकार नहीं किया ताकि मैं उसके प्रति अनुकूल बन सकूँ? क्या मैं ऐसे कहूँ कि उसने इसे आगे नहीं बढ़ाया? क्या मैं कहूँ कि उसने मुझे केवल उसके लिए अस्तित्व होने के लिए नहीं बनाया? क्या मैं ऐसे कहूँ कि ये उसने नहीं गाए जो ये मुझसे गाए गए हैं ऐसे अनुरोध करने? क्या मैं ऐसे कहूँ कि वह इसके कारण दीप्तिमान नहीं बना? कहने का तात्पर्य, “क्या कहकर मैं स्वयं को दृढ़ करूँ/बनाए रखूँ?”)
आधार: https://divyaprabandham.koyil.org/index.php/2023/10/simple-guide-to-dhivyaprabandham-introduction/
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