शरणागति गद्य – चूर्णिका 8-9

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नम:

शरणागति गद्य

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चूर्णिका 8 और 9 लघु है, इसीलिए हम इन्हें साथ में देखेंगे। प्रथम चूर्णिका 8:

अवतारिका (भूमिका)

चूर्णिका 7 श्रवण करने पर भगवान श्रीरामानुज स्वामीजी से पूछते है, “क्या में मात्र आपके लिए ही पिता, माता, संबंधी आदि हूँ?”, जिसके प्रति उत्तर में इस चूर्णिका में श्री रामानुज स्वामीजी कहते है “आप इस ब्रह्मांड के सभी रचनाओं के लिए ये सभी रूप में है” । अब, इस चूर्णिका को देखते है:

पितासी लोकस्य चराचरस्य
त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान I
न त्वत्समोस्त्यभ्यधिक: कुतोन्य
लोकत्रयेप्यप्रतिमप्रभाव II

विस्तारपूर्वक अर्थ

पितासी लोकस्य चराचरस्य – पिता – पिता; असि – है अथवा किया जा रहा है; लोक – संसार; अस्य – यह; चर – वह जो चल सकता है; अचर – वह जो स्थिर है। आपने सभी सत्व जैसे पशु, पौधे, मनुष्य आदि की रचना की है जो चर है अथवा स्थिर रूप में है और इसलिए आप ब्रह्मांड के सभी रचनाओं के पिता है।

त्वमस्य पूज्यस्य – त्वं – आप; अस्य – यह; पूज्य – सम्मानित। आप सभी रचनाओं के लिए पूजनीय है। ये सभी सब प्रकार से आप पर आश्रित है और आप पर निर्भर है।

गुरुर गरीयान – गुरु – शिक्षक (आचार्य); गरीयान – सबसे उच्च, अत्यंत दुर्लभ से प्राप्त। पिछली पंक्ति में पूज्य शब्द का संबंध भगवान से था जिन्हें सभी रचनाओं के पिता कहा गया है; यहाँ (इस पंक्ति में), गरीयान  से अर्थ है उनके ज्ञान प्रदान करने के गुण से है और इसलिए यह पूजनीयता और सम्मान शब्दों की सीमा को परिभाषित करते है।

न त्वत्समोस्त्यभ्यधिक: कुतोन्य –  – नहीं; त्वं – आप; सम – समान; अस्ति – यह; अभ्यधिक – असाधारण अथवा श्रेष्ठ; कुत – कहाँ; अन्य – दूसरे।

ऐसा अन्य कोई नहीं है जो आपके समान है। तो ऐसा कोई कैसे हो सकता है जो आपसे श्रेष्ठ हो? आप सभी से उच्च और श्रेष्ठ है, ऐसा श्रीरामानुज स्वामीजी कहते है।

लोकत्रयेप्य अप्रतिम प्रभाव – लोकत्रयेप्य – तीन भिन्न प्रकार के जीवों में से – बद्धात्मा (हमारी तरह संसारी, जो इस भौतिक संसार में रहते है), मुक्तात्मा (वह जिन्होने संसार से मुक्त होकर श्रीवैकुंठ में स्थान प्राप्त किया) और नित्यात्मा (वे जो कभी भी भौतिक संसार से जुड़े नहीं है और जो सदा से ही नित्य विभूति, श्रीवैकुंठ में निवास करते है); अप्रतिम – अद्वितीय अथवा अतुल्य; प्रभाव – असर।

आपका इस संसार की तीन विभिन्न आत्माओं पर अतुल्य प्रभाव है। आप अत्यंत ही महान है!

आइए अब चूर्णिका 9 की और अग्रसर होते है:

अवतारिका (भूमिका)

श्रीरामानुज स्वामीजी शरणागति करने पर भी क्षमा याचना कर रहे है। परंतु उन्होने ऐसा क्या अपराध किया जिसके लिए वे क्षमा याचना कर रहे है? उन्हें प्रतीत होता है कि वे एक समय से शास्त्रों द्वारा निषेध बहुत से कार्यो में लिप्त थे, जिस प्रकार एक विवाहित स्त्री अपने पति को छोडकर अन्य किसी के साथ लंबे समय के लिए बाहर जाती है और फिर पति के समक्ष लौटकर उनसे शरण और सुरक्षा मांगती है, और पति से यहाँ तक कहती है कि इस घोर अपराध के होते हुए भी उसकी रक्षा करना पति का दायित्व है। किसी स्त्री के द्वारा किया ऐसा कार्य अपराध कि चरम श्रेणी में आता है; श्रीरामानुज स्वामीजी कहते है कि अनेकों जन्मों के पश्चात, अन्य देवताओं कि शरण में जाकर और शास्त्रों द्वारा अस्वीकार कार्यों में लिप्त होकर वे अब भगवान के श्रीचरणों में आए है। परंतु प्रथम स्थान में समर्पण क्यूँ? क्यूंकी किसी भी समय अभी या अन्य में शरणागति संभव नहीं है, जिस प्रकार काकासुर ने श्री रामायण के समय में कि थी, वैसे ही भगवान के श्रीचरणों में समर्पण करना होता है। इस प्रकार, समर्पण से ही अपनी सभी पिछली भूलों का अनुभव होता है और उसकी क्षमा याचना होती है।

तस्मात प्रणम्य प्रणिधाय कायं
प्रसादये त्वामहमीशमीड्यम I
पितेव पुत्रस्य सखेव सख्यु:
प्रिय: प्रियायार्हसी देव सोढुम II

विस्तारपूर्वक अर्थ

तस्मात – इसप्रकार’; यहा भगवान को जीवात्मा के सभी निकट संबंधियों के समान बताया गया है (माता, पिता, संबंधी, गुरु जैसा कि चूर्णिका 7 और 8 में देखा)। एक पति अथवा पत्नी कुछ पापों को क्षमा कर देते है। एक पिता कुछ अपराधों को क्षमा करते है, उसी प्रकार एक माता अथवा भ्राता या ऐसा कोई संबंधी। क्यूंकी भगवान में ये सभी संबंध निहित है, श्रीरामानुज स्वामीजी भगवान से अभी तक हुए सभी अपराधों कि क्षमा याचना करते है।

प्रणम्य – श्रद्धापूर्वक मन से प्रणाम करना

प्रणिधाय कायम – तन से प्रणाम करना;

क्यूंकी उन्होने तन और मन दोनों से श्रद्धापूर्वक प्रणाम किया है, यह वचन से भी प्रणाम करने के समान ही है, इसप्रकार उन्होने शास्त्रों में उल्लेख किए गए तीनों कारण से प्रणाम प्रस्तुत किया (मानो वाक कायम – मन, वचन और काया)।

प्रसादये – प्रस्तुत करना; यहाँ किसी प्रस्तुत करना है और किसे?

ईशमीद्यम त्वाम – ईशन –नाथ या वह जो सबके स्वामी हो; ईदयन – वह जो श्रेष्ठ/ उत्तम पूजनीय हो; त्वाम – आप. यहाँ श्रीरामानुज स्वामीजी भगवान से निवेदन करते है कि भगवान स्वयं को श्री रामानुज स्वामीजी को प्रदान करे। जब भगवान स्वयं को अपने आश्रित (जिसने समर्पण किया हो) को प्रस्तुत करने का निर्णय करेंगे तब उन्हें प्रश्न कौन करेगा? श्रीरामानुज स्वामीजी कहते है कि उन्होने अनेकों अपराध किए है; भगवान को पूजने और उनके किर्तिगान करने के बजाये वे उनकी उपेक्षा और द्वेष करते रहे। भगवान ही श्रीरामानुज स्वामीजी के इन सभी अपराधों को क्षमा कर स्वयं को श्रीरामानुज स्वामीजी को प्रदान करेंगे।

अहम – मैं (श्रीरामानुज स्वामीजी), जो, आपको पूजने और आपकी प्रशंसा करने के बजाये, इन सभी दिन आपसे विमुख था और विभिन्न अपराधों मेँ लिप्त था। भगवान सोचते है कि इतने अपराधों और मुझसे विमुख होने पर भी श्रीरामानुज स्वामीजी को क्यूँ क्षमा करना चाहिए? श्रीरामानुज स्वामीजी इसके लिए नीचे उल्लेखित तर्क देते है।

पीतेव पुत्रस्य– पिता– पिता; एव – केवल; पुत्र – पुत्र;  अस्य – यह। उसीप्रकार जिस प्रकार एक पिता अपने पुत्र के अपराधों को क्षमा करते है,

सखेव सख्यु: – सखा – मित्र। जिसप्रकार एक सखा अपने सखा की गलतियों को क्षमा करता है,

प्रिय: प्रियाया: – प्रिय – प्रियजन। जिसप्रकार एक स्त्री अथवा पुरुष अपने प्रियतम को क्षमा करते है,

सोड़ुम – आप मुझसे सब प्रकार से संबन्धित है और इसलिए आप इस दास को क्षमा करेंगे

देव अरहसी – देव – आप; arhasi – योग्य। श्री रामानुज स्वामीजी कहते है कि भगवान उनके सब प्रकार के संबंधी है, और वे ही मुझे क्षमा करने के लिए सभी प्रकार से उपयुक्त है।

इसी के साथ, श्रीरामानुज स्वामीजी पुराणों और शास्त्रों से उल्लेख को पूर्ण करते है। अगले वे बताएँगे कि उनके द्वारा क्या अपराध बने है। यह सब हम 10वी चूर्णिका मेँ देखेंगे।

– अडियेन भगवती रामानुजदासी

अंग्रेजी संस्करण – http://divyaprabandham.koyil.org/index.php/2016/01/saranagathi-gadhyam-8-and-9/

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