श्री: श्रीमते शठकोपाय नम: श्रीमते रामानुजाय नम: श्रीमद्वरवरमुनये नम:
उपक्षेप
शरीर, जो पिछले पासुरम में विरोधी चित्रित किया गया था, यहाँ आत्मा का कारागार बताया जाता है। इस पासुरम में मणवाळमामुनि, श्री रामानुज से उस कारागार से मुक्ति कि प्रार्थना करते हैं और बताते हैं कि यह कार्य केवल श्री रामानुज को ही संभव हैं।
पासुरम ४
इंद उडरचिरै विटटु एप्पोळुदु यान ऐगी
अन्दमिल पेरिन्बतुळ आगुवेन – अन्दो
इरंगाय एतिरासा ! एन्नै इनि उय्क्काइ
परंगान उनक्कु उणर्न्दु पार
शब्धार्थ :
एतिरासा – हे यतिराज ! यतियों (सन्यासियों ) के नेता
एप्पोळुदु – कब
यान – में
विटटु – से मुक्ति
चिरै – कारागार
इंद उडल – यह शरीर
ऐगी – और अर्चिरादि मार्ग द्वारा परमपद पधारे ( अर्चिरादि, मुक्तात्माओं को श्रीमन नारायण के नित्य निवास परमपद पहुँचाने वाला मार्ग है। )
आगुवेन – (कब अनुभव मुझे ) प्राप्त होगा ?
पेरिन्बत्तुळ – नित्यानंद की निवास परमपद में प्रवेश
अन्दम – अंत
इल – कम, न्यूनतर
अंदो ? – अहः / हाय !
इरंगाय – (हे यतीराजा ) कृपया आशीर्वाद कीजिये
एन्नै – मुझे
इनि – अब से
परम काण – संभव है केवल
उनक्कु – आपको
उय्क्काइ – मुझे (और मेरे जैसे अनेकों) रक्षा करना
उणर्न्दु – (इसलिए कृपया) सोचिये
पार – और विचार कीजिये
सरल अनुवाद
मणवाळ मामुनि शरीर को, आत्मा वास करने वाला कारागार मानते हैं। जन्म और मृत्यु के बंधन से छूट कर अर्चिरादि मार्ग द्वारा परमपद पहुँचने पर ही आत्मा विमुक्त माना जाता हैं। तब तक आत्मा अविरल पीड़ित रहता है। श्री रामानुज से मणवाळ मामुनि अपने आत्मा के मुक्ति केलिए प्रार्थना करते हैं , की वे (श्री रामानुज) ही कुछ कर सकते है और इस विषय पर विचार करे।
स्पष्टीकरण
श्री कृष्ण अपनी भागवत गीता में , शरीर को “क्षेत्र”, वर्णित करते हैं (इदं शरीरं – श्री भागवत गीता १३.२ ) .क्षेत्र जाने वाला शरीर इस पासुरम में, परमपद के मार्ग में आत्मा के प्रतम विरोधी कहा गया है। शरीर से विमुक्त आत्मा के, श्रीमन नारायण के नित्य निवास परमपद तक का आरोहण के वक्त की मणवाळ मामुनि को एहसास हैं। यह जगह नित्यानंद संपन्न है। परमपद तक पहुँचाने वाला मार्ग, अर्चिरादि प्रकाशमान है। परमपद में उपस्तिथ परम-ज्ञानीयों और साँसारिक बंधनों से मुक्त भक्तों के सत्संग केलिए मणवाळ मामुनि तरस्ते हैं। अपनी संकट प्रकट करते हुए मणवाळ मामुनि “अहः”, यानि “हाय” कहते हैं। अपने अनुष्ठान के अनुसार वे तुरंत श्री रामानुज पर ध्यान बढ़ाते हैं और पूछते हैं , हे यतीराजा ! आप यतियों के स्वामी हैं (सन्यासी ) और मेरे जैसे अन्य आश्रय-हीन आश्रितो के स्वामी भी हैं। हमारे असंख्येय पापो के कारण श्रीमन नारायण भी रक्षा न कर पाएंगे और “क्षिपामि” (श्री भगवद गीता १६.१९ ) कह कर अस्वीकार करेंगे। आपके चरण कमलों के सिवाय हमारी अन्य गति नहीं हैं। आप ही मेरा रक्षण कर सकते हैं। कृपया इस पर विचार करें।
अडियेन प्रीती रामानुज दासी
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