उत्तरदिनचर्या – श्लोक – ७

श्री:
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद्वरवर मुनये नमः

परिचय

श्लोक ६                                                                                                                     श्लोक ८

श्लोक ७

त्वम् मे बन्धुस्त्वमसि जनकस्त्वं सखा देशिकस्त्वं
विध्या वृत्तं सुकृतमतुलं वित्तमप्युत्तमं त्वं ।
आत्मा शेषी भवसि भगवन्नांतरश्शासिता
त्वं यद्व सर्वं वरवरमुने ! यध्यदात्मानुरुपं ।। ७

शब्दश: अर्थ

हे वरवर मुने                       : ओ श्रीवरवर मुनि स्वामीजी!
त्वम                                  : हालाकि
मे                                      : मुझको कला
बन्धु असि                          : एक सम्बन्धी जिसका त्याग किया नहीं जा सकता
त्वम जनक असि                 : मेरे पिता, क्योंकि मेरे अच्छे संस्कारों के लिये आपने मुझे शिक्षा प्रदान की।
त्वम सखा असि                  : मेरा मित्र, (१) मेरे संकट में मेरी सहायता करता है (२) और मेरे खुशी में शामिल होता है
त्वम देशिक असि                : आचार्य, वह सिखाते है जिसका मुझे ज्ञान नहीं है
त्वम विद्या असि                : आचार्य जिन्होने ज्ञान प्रदान किया, जो माँ कि तरह रक्षा करते है
त्वम व्र्त्तम असि                : अच्छे शिक्षा से अच्छा आचरण उत्पन्न होता है और फायदा भी होता है
त्वम अतुलम सुक्र्तम असि  : अद्वितीय अच्छे काम जो मुझे लाभ प्राप्त कराते है जैसे अच्छे सम्बन्धी, धन आदि
त्वम उत्तमम वित्तम असि : स्थिर, नहीं बदलनेवाला भव्य (आध्यात्मिक) धन
त्वम आत्मा असि               : मेरी स्वयं कि आत्मा जो यह सब लेती है
त्वम सेशि भवसि                : वह शासक जो मेरी आत्मा को उसके कल्याण के लिये स्वीकार करता है
हे भगवन                           : ओ महामुनि ज्ञान और क्षमता से भरा हुआ
त्वम आन्तरस शसिता असि : हालाकि कला (१) मेरी श्रेष्ठ आत्मा मुझे आज्ञा दे (२) ज्ञानी भी उसमे ही श्रेष्ठ आत्मा को                                                 आज्ञा दे
यद्वा                                 : क्या अगर में ऐसा ही चलता रहूँ ऐसे जोड़ लिजीये?
आत्मा नु रुपम                    : मुझे भगवान और उनके सेवको कि सेवा दि
यद यद भवति                     : कृपया मुझे उन सभी लाभों का अनुदान कीजिये

व्याख्या

बध्नानी इति बन्धु = वह सम्बन्धी जो हमारे दु:ख और सुख में हर समय साथ रहे। सखा = साथी। वह जो हमारे साथ विपत्तिजनक स्थिति में हो और दूसरे अवसर जैसे बोधयंतप परस्परम (गीता, X-१०) दिव्य अनुभवों को बांटना, स्वयं कि आत्मा। वह जो यह सब उपयोग करता है और तत्पश्चात विस्तार से वस्तु

“तंजमाकिया तंतै तायोडु तानुमाइ” (श्रीसहस्त्रगिती ३-६-९) = पिता रक्षक, माता और स्वयं भी, यहाँ श्रीशठकोप स्वामीजी स्वयं शब्द का उपयोग करते है।

इसलिये त्वम आत्मा असि का अर्थ मेरे कला मे। और सेशि भवसि, आन्तरस शसिता भवसि = दो अर्थ देता है उपर शब्दश: में समझाया है। मुझे अपने सेवक के तरह स्वीकार कर लो, आरपार कर लो और मुझे आज्ञा दे।

यहाँ आंतरा = अंतर भाव (१) वह सर्वाश्रेष्ठ आत्मा जो मन में विराजती है। (२) आतमना: अंतरा: (ब्रहदारण्यक उपनिषद ५-७-२२) जहाँ शब्द को परमात्मा आत्मा में बसता है ऐसा समझाया गया है। अंतरस्य अयं आंतरा: = ज्ञानी जो परमात्मा में विराजता और आज्ञा देता है। ज्ञानीतु आत्मैव मे मतम (गीता ७-१८) भगवान का घोषणा करना कि ज्ञानी जो अन्दर बसता है भगवान पर भी आज्ञा करता है।

यद्वा = इसमे वह सब बाहर है जो पहिले विस्तार से अलग अलग कहा गया है। ऐसे विस्तार से सबकुछ अलग अलग कहना एक ग्रन्थ तैयार हो जाता है। यहाँ उनका कहना त्वम आत्मा असि का अर्थ सभी आत्मा को समान करना नहीं है। परन्तु कृपा से बाहर शेष / शेषी भाव और निर्यन्तु / नियाम्य भाव हीं।

सेशि भवसि, आन्तरस शसिता भवति आदि इस उत्साह को सिद्ध करते है।

यह भगवान के साथ समानता शास्त्र का तत्त्व है। और जैसे श्रीविष्णुचित्त स्वामीजी कहते है पीटकवादैप पिरानार पिरमा गुरूवाकि वन्तु (पेरियाल्वार तिरुमोली ५-२-९) क्योंकि श्रीवरवरमुनि स्वामीजी भगवान के अवतार है और वह उनको भगवान के बराबर मानते है।

हिंदी अनुवाद – केशव रान्दाद रामानुजदास

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