पूर्वदिनचर्या – श्लोक – २७

श्री:
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद्वरवर मुनये नमः

परिचय

श्लोक २६                                                                                                         श्लोक २८

श्लोक २७

तत्वम् दिव्यप्रबन्धानाम् सारम् संसारवैरिणाम्
सरसं सरहस्यानां व्याचक्षाणं नमामि तं २७॥

शब्दार्थ

संसारवैरिणाम्      – जन्म-जन्मान्तर का निर्मूलन (इस भवसागर का वैरी),
सरहस्यानाम्        – मन्त्रत्रय सहित याने तिरुमन्त्र-द्वयमहामन्त्र-चरमश्लोक,
दिव्यप्रबन्धनाम्   – श्री आळ्वारों के दिव्यप्रबन्धों,
सारम्                  – (का) सार,
तत्वम्                 – आचार्य तत्व (याने प्रधान पुरुष आचार्य ही उपाय और उपेय है जो एक जीव का आधारभूत तत्व है                                   और यही पंञ्चोपाय है,
रसं                 – और यही अत्यधिक आस्वादनीय रस (मे),
व्याचक्षाणम्        – बिना किसी संदेह के समझाना,
तम्                    – ऐसे वरवरमुनि की,
नमामि               – (मै) पूजा करता हूँ ।

भावार्थ (टिप्पणि) –

आळ्वार के दिव्यप्रबन्ध जन्म-मृत्यु के कालचक्र का निर्मूलन करते है । दिव्यप्रबन्ध जैसे तिरुविरट्टम् (100), तिरुवाय्मोळि (4.8.11) इत्यादियों के अन्त पासुर स्पष्ठ रूप से यही बात को प्रतिपादित करते है । सरसरी नज़र से अगर उपरोक्त रहस्यों को देखा जाये तो यह पता चलता है कि – भगवान ही मुख्य है और वे ही उपाय और उपेय है । अगर कोई भी प्रपन्न इस विषय की गहराई को समझता है, तो इससे यही प्रतिपादित होता है कि भगवान के भक्त ही मुख्य है, और वे उपाय और उपेय भी है । अगर इस विषय की गहराई को और गहरेपन से समझता है, तो (एक) प्रपन्न भक्त यही पाता है कि आचार्य ही मुख्य है, साथ मे उपाय और उपेय भी वही है । अतः इस प्रकार से हमारे रहस्य इस तीसरे अर्थ को विषेशतः महत्त्व देते है कि आचार्य ही सब कुछ है । जिस प्रकार से आचार्य मधुरकवि जैसों ने आचार्य-भक्ति आचार्य-निष्ठा का पालन किया था । यहा मणवाळमामुनि, अन्यथा यतीन्द्रप्रणवर के नाम से जाने जाते है, पूर्णरूप से श्री रामानुजाचार्य मे आत्मसात थे । वे केवल श्री रामानुजाचार्य को ही मुख्य, उपाय और उपेय मानते थे । जो दिव्यप्रबन्ध का सारांश है और इसी का उपदेश उन्होने अपने शिष्यों को दिया । जिस प्रकार पहले बताया गया है कि श्री रामानुजाचार्य सर्वश्रेष्ठ है । शेषी – मुख्य, प्राप्य – शरणागत, उपाय –  मुख्य को प्राप्त करना जो कि उपाय है । आचार्य ही मुख्य है जिनकी सेवा करनी चाहिये । हमे किसी और उपाय को खोजने की ज़रूरत नही है और आचार्य ही सब कुछ है इस प्रकार से उनके शरणागत होना चाहिये । और यही रहस्यत्रय का सारांश है । अतः श्री वरवरमुनि ने अपने शिष्यों को यही बताया, इसी का उपदेश दिया, और इसी कारण प्रत्येक को सिर के बल पर गिर कर दण्डवत करना चाहिये ।  अतः “तम् नमामि” शब्द का प्रयोग किया गया है जिसका अर्थ है एरुम्बियप्पा उनका नमन कर रहे है ।

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