श्री:
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद्वरवर मुनये नमः
श्लोक २०
अनुकम्पा परीवाहै: अभिषेचनपूर्वकम् ।
दिव्यं पदद्वयं दत्त्वा दीर्घं प्रणमतो मम ॥ २०
शब्दार्थ –
अनुकम्पापरीवाहैः – अनुकम्पा(कृपा) के तेज़ प्रवाह से (यानि कृपा का ऐसा प्रवाह जो बद्धजीवात्माओं के दुःखों को सह नही सकता),
अभीषेचनपूर्वकं – मेरे शुरुवात के दुःखों का उन्मूलन आपके पवित्र दृष्टि से करे,
दीर्घम् – लम्बी देर तक,
प्रनमतः – उत्कृष्ठ भक्तिभाव से दण्दवत प्रणाम करते हुए,
मम – मेरे लिये,
दिव्यम् – दिप्तीमान ( वैभवशालि ),
पदद्व्यम् – दिव्य चरणकमल,
दत्वा – (ऐसे चरणकमलों को) मेरे मस्तिष्क पर रखा
भावार्थ (टिप्पणि) – एरुम्बियप्पा कहते है – जब उन्होने श्री मणवाळमामुनि को देखकर दण्डवत प्रणाम करते हुए बहुत देर तक उस अवस्था रहे, उसके प्रश्चात श्री मणवाळमामुनि कृपालु दृष्तिकोण से देखकर अपने दिव्य कीर्तिमान चरणकमलों को उनके मस्तिष्क पर रखा और इसके प्रभाव से उनके दुःखों का विनाश हुआ । यहा “अनुकम्पा” शब्द व्यक्तिगत रूप से दुःखो से पीडित दिशा को प्रस्तुत करता है और यही अवस्था से श्री मणवाळमामुनि भी दुःखित और चिंतित थे । यही कृपालु- दयालु भाव को दर्शाता है । अमरकोश मे कहा गया है – “कृपा दया अनुकम्पा” इत्यादि । विष्णुधर्म (४-३६) कहता है – भगवान श्रीकृष्ण की पूजा करने का फल दस अश्वमेध यज्ञ के फल के बराबर है । अगर कोई दस अश्वमेध यज्ञ सम्पूर्ण करे तो उसके फल मे उसे स्वर्ग की प्राप्ति होती है और यह फल का भोग करने के बाद वापस भौतिक जगत मे आना पड़ता है । परन्तु भगवान श्रीकृष्ण की पूजा करने के फल स्वरूप मे उनके स्वधाम (विष्णुलोक) की प्राप्ति होती है और फिर इस भौतिक जगत मे आने की ज़रूरत नही है । इस संदर्भ मे कहते है – अगर भगवान के प्रती कोई दण्डवत प्रणाम करे और उनकी पूजा करने के फल स्वरूप मे भगवद्धाम की प्राप्ति होती है तो सोचिये की आचार्य के चरणकमलों का आश्रय (आचार्य के समक्ष दण्डवत प्रणाम करने) से क्या प्राप्त हो सक्ता है और क्या फ़ायदा होता है । “दिव्यम् पदद्यवम्” – यानि आचार्य ने चरणकमल भगवान के चरणकमलों से भी श्रेष्ठ है । इसी संदर्भ के विषय मे श्री वचनाभूषण दिव्यशास्त्र के ४३३ सूत्र मे कहा गया है – की आचार्यसंबन्ध के कारण से मोक्ष की प्राप्ति होती है वह (मोक्ष) भगवद्-संबन्ध से प्राप्त जन्म और मोक्ष से कई गुना फ़ायदेमंद और सर्वोच्च है ।
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