श्रीः
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद् वरवरमुनय् नमः
श्लोक ९
नित्यम् त्वहं परिभवामि गुरुं च मन्त्रं तद्देवतामपि न किन्चिदहो बिभेमि ।
इत्थं शठोSप्यशठवद्भवदीयसङ्घे ह्रुष्टश्चरामि यतिराज! ततोSस्मि मूर्खः || (९)||
पदार्थ:-
यतिराज! : हे यतिराज!
नित्यम् तु : कभी भी
गुरुं च मन्त्रं तद देवतां अपि : आचार्य , उनसे शिक्षित मंत्र और उस मंत्र के सार होनेवाले भगवान् को
अहं परिभवामि : मैं अनादर् कर्ता हूँ
किन्चित् न बिभेमि : (इस प्रकार अनादर् करते हुए भी ) एक पल के लिए भी चिंतित नहीं
अहो : अरे (आश्चर्य और शोक से)
इत्थम् शठः अपि अशठवत् : इस प्रकार पापिष्ट होते हुए भी एक् सज्जन्/ धार्मिक की तरह्
भवदीय संघे : आपके पादचरणों में निर्वासित भक्तजनों के मिलन में
ह्रुष्टश्चरामि : आनंद से (ये सोचके कि इनको मेरा पापों का जानकारी नहीं)
ततः अस्मि मूर्खः : इसलिए मैं एक मूर्ख हूँ |
चौथाई श्लोक में प्रार्थना किये थे कि अपना मुंह से निकल्ते हुए हरेक् शब्द आपके सतगुणों का आराधन करते रहे | लेकिन अपना मुंह उसके सीधे प्रतिमुख करने वाला बन गया जो गुरु, मंत्र और देवता का अपप्रयोग करता रहता है | इस दुर्गुण को और उसके मूलकारण होनेवाला मूर्खता को हटाने के लिए प्रार्थना करते हैं |
गुरु का अपप्रयोग करना उन्के उपदेश के विरुध त्याग करने लायक विषयों में लगाते रहना और पालन करने लायक विषयों में अचेत रहना | या उनके उपदेशित मंत्र को अपने प्रसिद्धि के लिए या धन लाभ के लिए कोई अनुपयुक्त व्यक्तियों को सिखाना | मंत्र का अपप्रयोग होता है – मंत्र का न्यायसंगत व्याख्या को छिपाना या उसको अप्रमाणिक अर्थ सिखाना |मंत्र के देवता का अपप्रयोग करना – श्रीमन नारायण से दिया गया इस देह , मन आधी इन्द्रियोंको उनके प्रयोजन के बिना सिर्फ अपने प्रयोजन के लिए अनात्मिक विषयों में लगाना |इनका विस्तारपूर्वक व्याख्यान श्रीवचनभूषण में प्रस्तुत है |
अहो – आश्चर्य | वे विनम्रता से कहते हैं कि इस लोक में अपने सदृश दोषी और उस दोष से निर्लज्जित व्यक्ति और कोई नहीं मिलने से आश्चर्य होता है|
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