श्रीः
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद्वरवरमुनये नमः
श्लोक १
कान्तस्ते पुरुषोत्तम: पणिपति: शय्यासनम् वाहनं
वेदात्मा विहगेश्वरो यवनिका माया जगन्मोहिनी |
ब्रह्मेशादीसुरव्रज: सदयित: त्वद्दासदासीगण:
स्रिरित्येवच नाम ते भगवति ब्रूम: कथं त्वाम वयम ||
अनुवाद
हे भगवति ! हम आपकी प्रसंशा कैसे करें ? पुरुषों में श्रेष्ठ , पुरुषोत्तम नारायण आपके धर्मपति हैं ; सर्पों में श्रेष्ठ आदिसेश आपकेँ शैय्या अथवा आसन हैं ; वेद स्वरूपी गरुड़ आपके वाहन हैं ;सारे सँसार को चौंकाने वाली माया आपकि घूँघट हैं ;अपने देवियों के संग ब्रह्मा, शिव आपके सेवक हैं ; किसी भी शब्द के पहले आने से ही “श्री” नाम कि प्रधानता साबित होति हैं। इतने गुण संपन्न आपकी हम कैसे प्रशंसा करें ?
श्लोक २
यस्यास्ते महिमानमात्मनैव त्वद्वल्लभोपि प्रभुः
नालं मातुमियत्तया निरवधिं नित्यानुकूलंस्वत: |
ताम त्वां दास इति प्रपन्न इति च स्तोष्याम्यहं निर्भय:
लोकैकेश्वरी लोकनाथदयिते दांते दयां ते विदन ||
अनुवाद
जबकि आपकी महिमा इतनी श्रेष्ठ हैं की आपके धर्मपति सर्वेश्वर लोकनाथ को भी आपकी महिमा अपरिमित हैं , आपके दास और प्रपन्न होने के कारण मैं आपकी निर्भय प्रशंसा कर गा रहा हूँ। हे जगन माते ! हे सर्वेश्वर की दिव्य महिषि ! हे अत्यंत क्रुपाळु ! आपकी दया को मैं पहचानता हूँ।
श्लोक ३
ईषत त्वत्करुणा निरीक्षण सुधासँदुक्षणात् रक्ष्यते
नष्टम् प्राक तदलाभतस्त्रिभुवनम सम्प्रत्यनन्तोदयम् ।
श्रेयो न ह्यरविंदलोचनमन: कांताप्रसादादृते
सम्स्रुत्यक्शरवैश्णवाध्वसु नृणां सम्भाव्यते कर्हिचित ।।
अनुवाद
आपकी दयामयी दृष्टी जो मधु हैं तीनों लोकों की रक्षक है। आपकी दृष्टिहीन काल में विनाशित लोक भी अब आपकी करुणा पूर्ण दृष्टी से विभिन्न रूप में प्रकट आ रही हैं। सांसारिक आनंद तथा भगवान के प्रति निरंतर सेवा भगवान पुण्डरीकाक्ष के दिव्य महिषि के कृपा के बिना प्राप्त नहीं होंगे।
श्लोक ४
शान्तानन्द महाविभूति परमम् यद्ब्रह्म रूपं हरे:
मूर्तं ब्रह्म ततोपि तत्प्रियतरं रूपं यदत्यद्भुतम् |
यान्यन्यानि यथासुखम् विहरतो रूपाणि सर्वाणि तानि
आहुः स्वैरनुरूपरूपविभवैर् गाडोपागुड़ानी ते ||
अनुवाद
भगवान के अनेक रूपों में उनके साथ आपके सारे संबंध की यहाँ प्रस्तावना हैं। परमपद में उनकी शोभायमान रूप या उससे भी अधिक सुंदर तथा आपकी इच्छानुसार कोई रूप या आपके आनंद के प्रति भगवान जो भी रूप अपनाए उनकी लीला मान वे सारी आप आनंद से स्वीकार करती हैं। इस प्रकार भगवान से पिराट्टि के सारे संबंध स्थापित किये जाते हैं।
अडियेन् प्रीती रामानुज दासि
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