ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) १७

श्री:
श्रीमते शठकोपाय नम:
श्रीमते रामानुजाय नम:
श्रीमत् वरवरमुनये नम:

ज्ञान सारं

ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) १६                                                                ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) १८

 

पाशूर १७

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ओर्निडुग विण्णवर् कोन् सेल्वमोलिंदडुग
एंरूम इरवादिरुन्दिडुग – इन्रे
इरक्कक कलिप्पुम कवर्वुम इवट्राल
पिरुक्कुमो? तट्रेलिन्द पिन

प्रस्तावना:

पिछले पाशुर में श्री देवराज मुनि उस मनुष्य के बारे में बताते है जिन्हे जीवात्मा के असली स्वरूप के बारे में समझ आ गया हैं। उन्हें वह कुछ इस तरह प्रस्तुत करते हैं की एक ऐसा जो हमेशा परमात्मा श्रीमन्नारायण का दास हैं किसी और का नहीं उसे आत्मा का असली स्वभाव मालूम है । श्री देवराज मुनि आगे बढ़ते है और उदाहरण देकर शरण हुई आत्मा अपने असली स्वभाव के बारे में सोचते हैं यही समझाते है। इस पाशुर में वह एक व्यक्ति जो आत्मा के असली स्वभाव के बारे में नहीं जानता उसके बारे में बताते हैं। ऐसे मनुष्यों के लिए, धन का बहोत प्रवाह, तुरंत उसका कम होना, ज्यादा जीवन जीने की योग्यता या ज्यादा जीवन जीने की अयोग्यता, यह सब सुख और दु:ख पर स्थापित हैं। इसीलिए जो व्यक्ति सच में परमात्मा श्रीमन्नारायण के शरण हैं और किसी के नहीं ,वहा धन का कम या ज्यादा प्रवाह, कम या ज्यादा जीवन इन के कारण से लौकिक सुख और दु:ख का उतार चढ़ाव नहीं होता। यह उच्च विचार क्या हैं वह इस पाशूर में वर्णित हैं।

अर्थ:

ओर्निडुग विण्णवर् कोन् सेल्व मोलिंदडुग – इस संसार में बहोत सारा धन हैं, जैसे देवताओं के पास (इन्द्र आदि), जो की किसी भी वक्त आता और जाता रहेगा और हमेशा एक सा नहीं रहेगा। एंरूम इरवादिरुन्दिडुग – इन्रे इरक्कक और जीवन का वैसे ही है, हमेशा के लिए नहीं हैं और कोई भी अचानक मर सकता हैं। कलिप्पुम कवर्वुम इवट्राल पिरुक्कुमो? तट्रेलिन्द पिन –परन्तु आत्मा के स्वभाव को जानने के बाद और समझने के बाद | एक प्रपन्न के लिए जिसे जीवात्मा का स्वभाव समझ में आ गया है, उसे धन के सम्बन्ध में वह मिल रहा है या छूट रहा है या दीर्घायु उसके पास है या नहीं हैं इस बाबत कोई सुख या दु:ख नहीं होता। ओर्निडुग विण्णवर् कोन् सेल्व: “सेल्व” इन्द्र जो सभी देवताओं का राजा हैं उसके अधिक धन को संबोधित करता हैं। वह धन जिससे कोई भी तीनों लोकों भूलोक, भुवर लोक और स्वर्ग लोक के उपर शासन कर सकता हैं। ऐसा धन अगर मनुष्य न चाहे तो भी उसके पास आ सकता हैं। मोलिंदडुग:  ऐसा धन उस व्यक्ति के पास से कुछ इस तरह नष्ट हो जाये की उसे वापिस कमाना या सौभाग्य से मिलना संभव न हो। एंरूम इरवादिरुन्दिडुग: और किसी भी समय वह व्यक्ति मृत्यु के बिना सदा चिरकाल जीवित रहे। इन्रे इरक्कक: पहिले कहे हुये चिरकाल जीवन के बिना वह व्यक्ति तत्काल मर जाये | कलिप्पुम कवर्वुम इवट्राल पिरुक्कुमो? सांसारिक मनुष्य सुख का अनुभव करता हैं क्योंकि वे या तो धन पाते हैं या चिरकाल जीवन। वे लगातार आने वाले धन की हानी या प्रत्यक्ष रूप से अचानक आने वाली मृत्यु के कारण चिरकाल जीवन की कमी इस वजह से दु:ख का अनुभव करते हैं। तट्रेलिन्द पिन: यह उस अवस्था को संबोधित करता हैं जहाँ कोई अपने आप को, मतलब जीवात्मा के सच्चे स्वभाव को जान सकता हैं जो यही हैं कि जीवात्मा भगवान श्रीमन्नारायण का ही दास हैं और किसी का नहीं।

 

अडियेन् केशव रामानुज दासन्

Source:
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