ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) १६

श्री:

श्रीमते शठकोपाय नम:
श्रीमते रामानुजाय नम:
श्रीमत् वरवरमुनये नम:

ज्ञान सारं

ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) १५                                                                    ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) १७

 

पासुर-१६

I_Intro2

 

देवर मनिसार तिरियक्कुत तावरमान
यावैयुम अल्लन इलगुम उयिर-पूविन मिसै
आरणङ्गिन केलवन अमलन अरिवे वङिवाम
नारनण ताट्के अडिमै नान

प्रस्तावना:

श्री देवराज मुनि यह समझाते हैं कि किस तरह सत्य जीवात्मा जो कि जीवात्मा के सत्य स्वभाव को जानते हैं और अपने स्वभाव के स्थिर दशा के बारें में सोचते हैं। सभी जीवात्मा भगवान श्रीमन्नारायण के ही दास हैं और यहीं दासत्व इन जीवात्माओं का स्वभाव हैं। यहीं इस पाशुर में समझाया गया हैं।

अर्थ:

देवर मनिसार तिरियक्कुत तावरमान – देवता इन्द्र के जैसे और मनुष्य जैसे ब्राह्मण या राजा, गाय, पक्षीयाँ, पेड़, पौदे और जड़ी-बुटी को सम्मिलित करना। यावैयुम अल्लन इलगुम उयिर – और इस जगत में अन्य कोई भी वस्तु का कोई शाश्वत नाम नहीं हैं और नाहीं ऐसे नाम से जाना जायेगा। पूविन मिसै आरणङ्गिन केलवन – अस्तु सभी वस्तु और सभी लोग कमल पुष्प पर विराजमान माता लक्ष्मी के पति के दास हैं। अमलन – नाहीं किसी दोष से और |अरिवे वङिवाम नारनण ताट्के अडिमै नान – जिसे जीवात्मा की पहचान हो गयी और यह ज्ञान हो गया की वह भगवान श्रीमन्नारायण के ही दास हैं।

स्पष्टीकरण:

देवर मनिसार तिरियक्कुत तावरमान: जीवात्मा को कोई विशेष नाम नहीं होता हैं जैसे देवता, मनुष्य, जानवर, पेड़, पौदे और जड़ी-बुटी आदि। इनमें से कोई एक प्रकार की भी जीवात्मा नहीं हैं। उनके अच्छे और बुरे कर्मों के अनुसार उनके पिछले अंगिनत जन्मों के हिसाब से एक जीवात्मा एक शरीर को धारण करती हैं जैसे मनुष्य, जानवर, पक्षी, पेड़, आदि । यह थिरुकुरल आदि में पाया जा सकता हैं। वह इस प्रकार है:

“ऊर्व पधिनोंराम, ओंबधू मानिदम, न्ल्र, परवै नालकाल, ऑर पप्पथु, स्ल्रिया बंधमान्धेवर पधिनालु, अंधमिल स्ल्र थावरम नालैधु। मक्कल, विलंगु परवै, ऊर्वना, न्लृंथीरिवना, परूपधाम एनविवै येझु पिरापागुमेंबा”। शरीर के कर्मों के आधार पर आत्मा किस शरीर में जायेगा यह यहाँ समझाया गया हैं। यह इसलिए कि जीवात्मा अपने आप को अनगणित शरीर में कल्पों से रहता हैं और जब वह जीवात्मा एक विशेष शरीर में विशेष समय में मौजूद हैं तब वह जीवात्मा सोचता हैं कि “मैं देवता हूँ”, “मैं मनुष्य हूँ”, “मैं जानवर हूँ”, “मैं पेड़ हूँ”। यहाँ “मैं” शब्द से अभिमान दिखाता हैं। हालाकि यह जीवात्मा कि दशा तब तक ही हैं जब उसे यह मालुम नहीं पड़ता कि यहीं उसका सत्य स्वभाव हैं। जीवात्मा के सत्य स्वभाव से यह जान सकते हैं कि भगवान श्रीमन्नारायण के लिए जीवात्मा नाहीं पेड़ हैं नाहीं पौधें,न जानवर, न देवता और नाहीं कुछ और। जीवात्मा केवल यही सोचता हैं कि वह भगवान श्रीमन्नारायण का हीं दास हैं और किसी का नहीं।

इलगुम उयिर नान: पाशुर के अन्त में “नान” को यहां पर जोड़ना चाहिए। यहाँ “नान” का मतलब हैं कि जीवात्मा कभी नहीं मरते नाहीं उसे नष्ट किया जा सकता हैं। पहिले आनेवाला विशेषण “इलगुम उयिर” हमें यह समझाता की शास्त्रों में स्थापित लक्षण किस तरह हमारे उपयोगी हैं। “उयिर” (जीवात्मा) ज्ञानी ठहराना, आनन्द ठहराना और बुद्धिमान ठहराना। यह जीवात्मा को अन्य निर्जीव तत्त्वों से अलग करता हैं क्योकिं वह ज्ञान प्राप्त करता हैं जो कि निर्जीव तत्त्वों के पास किसी भी समय में नहीं रहता हैं। हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए जो स्वामी पिल्लै लोकाचार्यजी ने अपने “तत्त्व त्रय” (चित प्रकरणम) में कहा हैं।   “आत्म स्वरूपं सेंरू सेंरू परमपरमै एंगिरापदिए धेहेंद्रिय मनः प्राण बुध्धी विलक्षणामी, अजदमै, आनान्धा, रूपमै, नित्यमै, अणुवै, अव्यक्थामै, अचिंथ्यमै, निरवयमै, निर्विकारमै, ज्ञानाश्रयमै, ईश्वरनुकु नियाम्यमै, धार्यमै, सेशमायिरुकुम”।

पूविन मिसै यावैयुम अल्लन आरणङ्गिन केलवन: श्री शठकोप स्वामीजी (नम्माल्वार) के तिरुवैमोझि ४.५.२ “मलर मेल उरैवाल” के अनुसार, इसका मतलब हैं की वह जो किसी का स्वामी हैं जो सुन्दर कमल पुष्प पर विराजमान हैं। आणंगु परिया पिराट्टि को संबोधीत करता हैं जिसमे पूरी तरह भगवान के गुण हैं, जिसमें भगवान का सबसे ज्यादा सुन्दरता भी गुण हैं। “केल्वन” पति (स्वामी) को संभोधीत करता हैं और इस प्रसङ्ग में भगवान श्रीमन्नारायण हैं।

अमलन: वह जो बुरें स्वभाव के बिल्कुल विपरित हैं।

अरिवे वङिवाम नारनण: भगवान श्रीमन्नारायण जिनमें “ज्ञानी ठहराना” और “आनन्द ठहराना” यह गुण हैं।

ताट्के अडिमै: जीवात्मा केवल भगवान श्रीमन्नारायण का ही दास हैं और किसी का नहीं।

“नारायण” नाम का मतलब यह हैं कि वह जिसमे खुद को जैसे उसके शरीर छोड़कर सब कुछ हैं और एक वही जगह हैं जहाँ सब अंग रह सकते हैं। ऐसे ही “नारायण” खुद को छोड़कर सब के लिए जीवन (उयिर) हैं। यह जो अलग पदार्थ हैं वह उनके शरीर के अंग हैं जिसे वह अपने पास अपने शरीर में रखते हैं।

संदेश:- जीवात्मा को पूर्ण ज्ञानी, पूरा आनंदित, जो नाहीं देवता हैं न मनुष्य, नाहीं जानवर, न पेड़, पौदे और न जड़ी बूटी ऐसे वर्णित किया गया हैं। जीवात्मा भगवान श्रीमन्नारायण का दास हैं, सुन्दर पेरिया पीरट्टि (लक्ष्मी अम्माजी) के स्वामी हैं जो सुन्दर कमल पुष्प पर विराजमान हैं ऐसे वर्णन किया गया हैं। ऐसे भगवान श्रीमन्नारायण सभी बुरे स्वभाव से बिल्कुल विरुद्ध हैं और इस पूरे संसार के सभी जीव और निर्जीव प्राणियों के जीवन दाता हैं।

अडियेन् केशव रामानुज दासन्

Source: http://divyaprabandham.koyil.org/index.php/2015/02/gyana-saram-16-dhevar-manisar/

archived in http://divyaprabandham.koyil.org
pramEyam (goal) – http://koyil.org
pramANam (scriptures) – http://srivaishnavagranthams.wordpress.com
pramAthA (preceptors) – http://acharyas.koyil.org
srIvaishNava education/kids portal – http://pillai.koyil.org

0 thoughts on “ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) १६”

Leave a Comment