श्री:
श्रीमते शठकोपाय नम:
श्रीमते रामानुजाय नम:
श्रीमत् वरवरमुनये नम:
ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) ६ ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) ८
पासुर ७
तोळार् सुडर्त् तिगिरि सन्ग्कुडैय सुन्दरनुक्कु
आळानार् मऱ्ऱोन्ऱिल् अन्बु सेय्यार् – मीळाप्
पोरुवरिय विण्णाट्टिल् बोगम् नुगर्वार्क्कु
नरगन्रो इन्दिरन् तन् नाडु?
आळानार् = वो जो दास बन गए हैं, तोळार् = विशालबाहु वाले, सुडर्त् तिगिरि = दैदीप्यमान सुदर्शन चक्र, सन्ग्कुडैय सुन्दरनुक्कु = और अति सुंदर पांचजन्य शंख, मऱ्ऱोन्ऱिल् = वे रुचि नहीं रखते, अन्बु सेय्या = अथवा कोई भगवान से अतिरिक्त और किसी में आसक्ति, विण्णाट्टिल् = श्री वैकुंठ धाम (में ही आनंदित रहेंगे), मीळाप् = जहांसे वापिस नहीं आना होता है, पोरुवरिय = और एकमेव स्थान है, बोगम् = जहां परम आनंद है, नुगर्वार्क्कु = अनुभव करनेके लिए, इन्दिरन् तन् नाडु = इन्द्र का स्थान स्वर्ग, नरगन्रो = नर्क होगा
प्रस्तावना
पिछले पाशूर में श्री देवराजमुनी स्वामीजी उन शरणागतोंकी परिस्थिति का वर्णन किया जिन्हे भगवान के दासत्त्व का महत्त्व पता है। वो कभी भी सांसारिक संपत्ति का सहारा नहीं लेंगे, भलेही वो संसार की सबसे बड़ी संपत्ति जैसे ब्रह्माजी का ब्रह्मलोक भी क्यों न हो। इस पाशूर में स्वामीजी और आगे बढ़कर वर्णन करते हैं की जो भगवान की सुंदरता में डूबे हुये हैं, वो इतर तथाकथित सुंदर या सुख देनेवाली चीजोंकी ओर देखेंगे भी नहीं। यही इस पशूर का भाव है।
विश्लेषण
तोळार् सुडर्त् तिगिरि सन्ग्कुडैय सुन्दरनुक्कु: श्री भगवान अपने दाहिने हस्तमें दिव्य सुदर्शन चक्र को धारण करते हैं और अपने बाएँ हस्तमें पांचजन्य शंख धारण करते हैं। श्री भगवान शंख चक्र के साथ अति सुंदर दर्शन देते हैं। यह दो भगवान के आयुध हैं जो शत्रु को भयभीत और विचलित कर देते हैं। परंतु, भगवान के भक्तोंके लिए तो यह दो आयुध तो भगवान का शृंगार हैं। इसी कारण भगवान को “अलगन” कहा गया है। श्री भूतयोगी स्वामीजी अपने इरन्डाम् तिरुवन्डादि में कहते हैं, “मनैपार् पिरन्दार् पिरन्देय्दुम् पेरिन्बमेल्लाम् तुरन्दार् तोज़्हुदारत् तोल्”. अर्थात, जो भगवान के विशाल बाहु देखकर उनकी सुंदरता में खो जाते हैं वो अबतक जिन भी भोग विलास के साधन में लिप्त थे वो छोडदेंगे। श्री रामायण में जिन्होने भगवान के बाहु का दर्शन किया वे और कुछ देखना नहीं चाहते थे। कंब रामायण में कहा गया है की “तोल् कन्डार् तोले कन्डार्”. इसी कम्बरामायण में श्री विश्वामित्र के शब्दोंमें श्री राम भगवान का वर्णन है की “आडवर् पेन्मययि अववुम् तोलिनाइ”. अर्थात, जिन्होने श्री राम भगवान के सुंदर बाहु का दर्शन किया वो स्त्री का जन्म लेने के लिए तरसेंगे। शी शठकोप स्वामीजी कहते हैं, “तोलुमोर् नान्गुडै कालमेगतै अन्ड्रि मट्रोन्ड्रु इलम्” यह बताने के लिए की थिरुम्Oघूर् के काअलमेघ भगवान अपने सुंदर बाहू का दर्शन देते हैं उससे कुछ भी श्रेष्ठ नहीं है। हमे उन भगवान के दर्शन लेने चाहिए जो विशेष रूप से अपने शंख चक्र के साथ अतिसुंदर दर्शन देते हैं। जिन्होने भगवान के इस अति सुंदर रूप का दर्शन किया है व कभी भी इतर तथाकथिक सुंदर चीज/व्यक्ति/वस्तु का सहारा नहीं लेंगे। भगवान के केवल सुंदर बाहु के दर्शन से ही लोगोंका लौकिक भोग और सुन्दरता का अभिमान छिन्न-भिन्न हो जाता है। श्री शठकोप स्वामीजी कहते हैं “अनियार् आज़्हियुम् सन्गमुम् यॅदुम् अवर् कान्मिन्”. जब भगवान ऐसे सुंदर सुदर्शन चक्र और पांचजन्य शंख अपने बाहु पर धारण करते हैं तो उनकी सुंदरता अपने आप द्विगुणित हो जाती है। ऐसी यह बाहू की सुन्दरता है। श्री विष्णुचित्त स्वामीजी भगवान की सुन्दरता का वर्णन एक एक करके करते हैं। पहले, वो भगवान का वैभव गाते हैं, फिर श्री भगवान और श्री अम्माजी का वैभव गाते हैं जो भगवान के वक्षस्थल में बिराजमान हैं। फिर वे दिव्य दंपती की सुन्दरता का वर्णन करते हैं जब भगवान सुदर्शन चक्र धारण करते हैं। यह सब श्री विष्णुचित्त स्वामीजी ने तिरुपल्लाण्डु के द्वितीय पाशूर के प्रथम ३ वाक्योमें कहा है। यह प्रथम ३ वाक्य साक्षात भगवान के सामने गाये गए हैं “भगवान आपका मंगल हो, भगवान और अम्माजी आपका मांगा हो, भगवान आपका और आपके दैदीप्यमान सुदर्शन चक्र का मंगल हो।” यहाँ श्री शंख भी पधार गए और भगवान ने वक्षस्थल में अम्माजी, दाहिने हाथ में श्री सुदर्शन चक्र और बाएँ हाथ में श्री पांचजन्य शंख के साथ दर्शन दिया। वह दर्शन अत्यंत सुंदर था। श्री विष्णुचित्त स्वामीजी भावविभोर हो गए और भगवान की इस सुंदरता को भावविभोर होने के कारण देख नहीं पाये। वह मुड़कर दूसरी तरफ देखते हुये बोले “अप्पान्ज सन्नियमुम् पल्लाण्डे” अर्थात “शंख जो युद्ध में दिव्य ध्वनि करता है उसका भी मंगल हो।” उन्होने भगवान की तरफ मुख करके नहीं बोला मुड़कर बोला, “श्री शंख का भी मंगल हो”. वे भगवान की इस सुन्दरता को भावविभोर होने के कारण नहीं सहन कर पाये। भगवान की ऐसी सुन्दरता है। जिसने भी दर्शन अनुभव किया है, क्या वे इतर लौकिक सुखोंका सहारा ले सकते हैं?
आळानार्: यह उन लोगोंके लिए है जो भगवान की मात्र सुन्दरता से ही भावविभोर हो गए। दो प्रकार से भगवान हमें आकर्षित करते हैं। प्रथमत: वो अपने आप को रक्षक, पोषणकर्ता के रूप में प्रदर्शित करते हैं, अपने शौर्य आदि गुण प्रदर्शित करते हैं, और हम जीवात्माओंकों अपने चरण में लेते हैं। और भी वो अपनी सुन्दरता, सौलभ्य, सौशील्य आदि गुणोंसे आकर्षित करते हैं। पिछले पाशूर में “पुण्डरीगै केळ्वन् अडियार्” प्रथम प्रकार को दर्शाता है जहाँ भगवान का वर्णन श्रिय:पति (श्री अम्माजी के पति) ऐसे किया है। “सुन्डरनुकु आलनार्” में द्वितीय प्रकार से भगवान हमें आकर्षित करते हैं जहाँ वो अपने दिव्य सुंदरता और गुण प्रकट करते हैं। सुंदरता ऐसा गुण है जो सुलभता से हम जैसे जीव भी समझ सकते हैं। भगवान हमे हमारा दासत्त्व स्वरूप स्मरण करनेके लिए इन दो पद्धतियोंकों उपयोग करते हैं। श्री देवराजमुनी स्वामीजी उन आश्रितोंकी बढाई करते हैं जो भगवान की सुन्दरता से आकर्षित हो गए हैं और भगवान को अपना सनातन स्वामी मान लिया है।
मऱ्ऱोन्ऱिल् अन्बु सेय्यार्: जिनको जीवात्मा का सच्चा स्वरूप और भगवान के दिव्य गुण समझ गया है, कभी भी किसी लौकिक वस्तु के लिए आसक्त नहीं हो सकते। श्री वैकुंठ धाम ऐसा शुद्ध सत्त्वमय स्थान है, अप्राकृत है। और हम जिस संसार में रहते हैं वो प्राकृत है। इस संसार में सभी वस्तुयें स्थान और काल से सिमीत हैं, बदलते हैं। पर श्री वैकुंठ धाम में काल है ही नहीं। और तो और, वहाँ के वस्तु, व्यक्ति हमारा मन सुलभता से आकर्षित कर सकते हैं। अत: वो लोग जिनहे इस संसार के वस्तुओंकी निकृष्टता और श्री वैकुंठ के वस्तुओंकी उत्कृष्टता समझ गई है, उनको इस संसार की कोई भी चीज विचलित नहीं कर सकती है। उन्हे कभी सांसारिक सुख भोगनेकी इच्छा होगी? निश्चित रूप से नहीं। और इसका कारण है की संसार की वस्तुएं ऊपर से अच्छी दिखती हैं पर अंदर से अच्छी नहीं होती। काल इस संसार की सभी वस्तुओंका, सुन्दरता का विनाश कर देता है, पर वैकुंठ में ऐसा नहीं है, वहाँ समय का प्रभाव नहीं है। सांसारिक वस्तुएं केवल समय के साथ नष्ट ही नहीं होती बल्कि उनके लिए हमे नीचे भी गिरना पड़ता है। को ऐसी शंका करेगा की श्री वैकुंठ की संसार से तुलना करते हैं इसलिए श्री वैकुंठ श्रेष्ठ लगता है। अगर स्वर्ग से तुलना करो तो भी क्या श्री वैकुंठ श्रेष्ठ है? शरणागत लोग स्वर्ग इस आकर्षित नहीं होंगे? वहाँ का सुख, अप्सराएँ इत्यादि? इसका उत्तर आगे बता रहे हैं:
मीळाप् पोरुवरिय विण्णाट्टिल् बोगम् नुगर्वार्क्कु: जैसे पूर्व में वर्णित है, श्री वैकुंठ फिरसे लौट के आने का स्थान नहीं है। एक ऐसा दैदीप्यमान स्थान है, जहाँ समय का प्रभाव नहीं है और जहाँ शाश्वत आनन्द है, एक ऐसा अतुलनीय स्थान जहाँ कुछ निर्माण करना नहीं है और विनाश भी करना नहीं है, एक ऐसा स्थान जहाँ संसार का कोई भी कायदा कानून लागू नहीं है, ऐसा एक अक्षरश: अद्वितीय स्थान। यह ऐसा स्थान है जहाँ जाने के लिए शरणागत तरसते हैं और वहाँ अपने स्वामी भगवान श्रीमन्नारायण के और उनके आश्रितोंके दासत्त्व का आनन्द प्राप्त करते हैं।
नरगन्रो इन्दिरन् तन् नाडु? स्वर्ग ऐसी जगह है जहाँ जीवात्मा अपने पुण्य कर्मोंके कारण जाता है। वहाँ वो अपने कर्म के हिसाब से ही सुख प्राप्त कर सकता है। जब सभी पुण्य कर्म का सुख स्वर्ग में भोग लिया जाता है, उसे ऊपर से नीचे मृत्युलोक में फिर से फेंकदीया जाएगा। वैसेही नरक के लिए भी है। जब सभी पाप कर्मोंका कष्ट भोग लिया जाता है तो उसे फिर से इस मृत्युलोक में जन्म दिया जाता है जन्म मरण के चक्र में भटकने के लिए। इन्द्र स्वर्ग स्वर्गादी देव लोकोंके के मुख्य हैं, जहाँपर देवता लोग, जो कर्म बंधन में फंसे हुये हैं, सुख प्राप्त करते हैं, हम सामान्य जीवोंसे बहोत ज्यादा जीवन उनको मिलता है। एक दिन उनको भी मरना पड़ेगा, परंतु जबतक वे वहाँ हैं, तबतक वहांके सभी सुख प्राप्त करेंगे। यह सुख भी शाश्वत नहीं है और वह सुख भगवान के सेवा का नहीं है। वहाँ वो देव लोग अपना खुद का सुख प्राप्त करते हैं, जो जीवात्मा के स्वरूप के विरुद्ध है, जिनको भगवान का भगवान के आनन्द के लिए कैंकर्य ही जीवन का उद्देश्य है। इसी कारण एक शरणागत के लिए स्वर्ग और नरक दोनों एक समान हैं और दोनों दु:खदायी हैं। द्वितीय पाशूर में बताए अनुसार, जब शरणागत भगवान और अम्माजी से विलग होता है, वो उनके लिए नर्क है। उनको स्वर्ग और उसके सुख की भी इच्छा नहीं होती। वो स्वर्ग की घृणा करते हैं कारण वें सर्वश्रेष्ठ श्रीमन्नायण का आनन्द लेनेमें रुचि रखते हैं।
Source: https://divyaprabandham.koyil.org/index.php/2015/02/gyana-saram-7-tholar-sudarth/
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