आर्ति प्रबंधं – २७

श्री:  श्रीमते शठकोपाय नम:  श्रीमते रामानुजाय नम:  श्रीमद्वरवरमुनये नम:

आर्ति प्रबंधं

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उपक्षेप

पिछले पासुरम में मणवाळ मामुनि, श्री रामानुज से प्रार्थना करते हैं , “ ओळि विसुम्बिल अड़ियेनै ओरुप्पडुत्तु विरैन्दे” अर्थात, परमपद पहुँचने की व्यवहार को शीघ्र ही पूर्ण करें। “वाने तरुवान एनक्काइ”(तिरुवाय्मोळि १०. ८. ५ ) के अनुसार श्री रामानुज मणवाळ मामुनि के परमपद प्राप्ति की तरस देख कर, अनुग्रह करने केलिए तैयार भी हैं। परमपद प्राप्ति की आश्वासन मिलने पर मणवाळ मामुनि अब अपने ह्रदय को आगे की आचरण/ढंग की उपदेश देते हैं। साँसारिक बाधाओं पर  ध्यान न देने की सलाह देते हैं। अपने परमपद पहुँचने की आश्वासन मिलने पर वें अपने ह्रदय को यह उपदेश देते हैं।

पासुरम २७

इव्वुलगिनिल इनि ओन्रुम एण्णादे नेञ्जे
इरवुपगल एतिरासर एमक्कु इनिमेल अरुळुम
अव्वुलगै अलर्मगळकोन अंगिरुक्कुम इरुप्पै
अडियार्गळ कुळाङ्गळ तमै अवर्गळ अनुभवत्तै
इव्वुयिरुम अदुक्कु इटटूपिरन्दु इळन्दु किडनददु
एन्नुम अत्तै एन्रुम अदुक्कु इडैछुवराय किडक्कुम
वेव्विनैयाल वंद उड़ल विडुम पोळुदै विटटाइ
विळैयुम इन्बम तन्नै मुटरुम विडामल इरुन्दु एण्णे !

शब्दार्थ

नेञ्जे – हे! मेरे ह्रदय !
एण्णादे – विचार न करो
ओन्रुम – कुछ भी
इव्वुलगिनिल – इस सँसार में
इनि – अब से
एण्णे – (इसके बदले में ) सोचो
विडामल इरुन्दु – लगातार
इरवुपगल – दिन और रात
अव्वुलगै – परमपद के बारे में
एतिरासर – श्री रामानुज
इनिमेल अरुळुम – भविष्य में अनुग्रह करेंगें
एमक्कु – हमें
अलर्मगळकोन – (सोचो) सर्व शक्त, सर्वज्ञ श्रीमन नारायण जो कमल में विराजित पेरिय पिराट्टि के दिव्य पति हैं।
इरूक्कुम  इरुप्पै – (सोचो )दिव्य, गंबीर सिंहासन पर विराजमान उन्को
अंगु – परमपद में
अवर्गळ अनुभवत्तै – (सोचो ) भोग्य के वस्तु होने के बारे में
कुळाङ्गळ तमै – समूहों को
अडियार्गळ – नित्यसूरियाँ
एन्रुम – (सोचो ) हर वक्त
एन्नुम अत्तै – वह
इटटूपिरन्दु – उचित, किंतु
इळन्दु किडनददु – (नित्यसूरियों के भोग्य वस्तु बनने का) खोया अवसर
इव्वुयिरुम – यह आत्मा भी
अदुक्कु इडैछुवराय किडक्कुम – (सोचो) जो बाधा के रूप में हैं
वंद – के कारण
वेव्विनैयाल – क्रूर पाप ( जो शरीर के संगठन से होता है )
उड़ल विडुम पोळुदै – (सोचो) शरीर के घिरने की समय
अदुक्कु – (सोचो) उससे जो आनंद आता हैं
विट्ठाल – जब शरीर घिरता है
विळैयुम – जिसके कारण आता है
इन्बम तन्नै – नित्यानंद
मुटरुम – (सोचो) यहाँ उल्लेखित सभी

सरल अनुवाद

परमपद में मिलने वाले आनंदमय समय पर विचार करने को मणवाळ मामुनि अपने ह्रुदय को कहतें हैं। कहतें हैं कि, परमपद में रुचि श्री रामानुज की ही अनुग्रह से उत्पन्न हुई। मणवाळ मामुनि अपने ह्रदय को, परमपद, दिव्य दंपत्ति श्रीमन नारायण और पेरिय पिराट्टि, उन्के भक्तों, और उन भक्तों के भोग्य वस्तु बन्ने की अवसर, यह अवसर तुरंत न पाने कि दुर्भाग्य, भक्तों के भोग्य वस्तु बन्ने में बाधा, पाप जो बाधा के रूप में हैं , शरीर जो पापो का कारण हैं, शरीर की अंत में घिरना, उस्के पश्चात उसके परमपद यात्रा का समय, इत्यादियों पर विचार करने को कहतें हैं।

स्पष्टीकरण 

मणवाळ मामुनि अपने ह्रदय से कहतें हैं कि, “हे! मेरे ह्रदय! मोक्ष के पथ और साँसारिक बंधन के पथ, दोनों ही तुम्हारे उत्तरदायित्व हैं। “अत देहावसानेच त्यक्त सर्वेदास्ब्रुह” वचन समझाता है कि यह सँसार घृणा से देखे जाने वाली वस्तुओं से भरी है। ये “प्रकृति प्राकृत” को संपूर्ण रूप में हटाना चाहिए। ऐसी वस्तुओं को कभी भी अपनानी नहीं चाहिए। मामुनि, आगे कहतें हैं,”हे! मेरे ह्रदय! परमपद की इच्छा/रूचि  एम्पेरुमानार ने ही मुझ में उत्पन्न किए। अतः निम्नलिखित वस्तुओँ को हमेशा अपने सोच में रखना। पहले, एम्बेरुमानार के उपहार से प्राप्त होने वाली, उस दिव्य लोक, परमपद के बारे में सोचो। पेरिय पिराट्टि के दिव्य पति, सिंहासन में गंभीरता से विराजमान श्रीमन नारायण पर विचार करो। इसके पश्चात, पेरिय पिराट्टि, जिन्की आसन कमल हैं और जो स्वयं साक्षात सुगंध ही हैं, उन पर अपना ध्यान बढ़ाओ। “एळिल मलर मादरुम तानुम इव्वेळुलगै इन्बम पयक्क इनिदुडन वीट्रिरुंदु( तिरुवाइमोळी ७. १०. १)” वचन से वर्णित पिराट्टि श्रीमन नारायण के संग दिव्य सिंहासन को अलंकृत करती हैं। अब सोचो उन श्रेयसी भक्तों को, जिन्के भोग्य की वस्तु बन्ने से तुम आनंदित होंगे। दिव्य दंपत्ति (श्रीमन नारायण और पेरिय पिराट्टि) के कैंकर्य में मग्न इन्हीं को तिरुवाय्मोळि के २. ३. १० पासुरम में “अडियार कुळाङ्गळै” वर्णित किया गया हैं। तुम्हें (आत्मा को) इन भक्तों के भोग्य वस्तु बन्ने की सर्व लक्षण आने पर भी, दुर्भाग्य हैं अब वह स्थिति नहीं प्राप्त हुआ। इस दुर्भाग्य पर ध्यान दो। इसके कारण जो बाधाएं/ आपत्तियाँ,  है उन्पर विचार करो। इस शरीर के जन्म के कारण जो अनेकों पाप है, जिन्हें “पोल्ला ओळुक्कुम अळुक्कुडमबुम (तिरुविरुत्तम १)” में प्रकट किया गया है, उन्पर विचार करो। अंत काल में शरीर के घिरने के बारे में सोचो और साँसारिक बंधनों के घिरने के पश्चात, तुरंत मिलने वाली अत्यंत आनंद पर भी विचार करो। आत्मन के “अवश्य विचार” सूची में यहाँ  उल्लेखित सारे विषय हैं।  इन पर दिन और रात अविछिन्न विचार करो। इस पासुरम के “ इव्वुलगिनिल इनि ओन्रुम एण्णादे” और तिरुवाय्मोळि १०. ६. १ के “मरुळ ओळी नी” दोनों एक समान है।  दोनों ही अर्चावतार के महत्त्व को प्रकट करते हैं।

अडियेन प्रीती रामानुज दासी

आधार :  http://divyaprabandham.koyil.org/index.php/2016/10/arththi-prabandham-27/

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