दिव्य प्रबंधम् – सरल मार्गदर्शिका – भाग ३

श्रीः श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद् वरवरमुनये नमः 

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दिव्य प्रबंधम् आऴ्वारों की अरुळिच्चेयल् (करुणामय‌ सृजन) है। हमने उनका वर्गीकरण मुदलायिरम् (प्रथम सहस्त्र), इरण्डामायिरम् (द्वितीय सहस्त्र), इयऱ्-पा‌ (तृतीय सहस्त्र) और तिरुवाय्मोऴि (चतुर्थ सहस्त्र) में देखा है। हमने प्रत्येक आयिरम् (सहस्त्र) के अंशभूत को देखा है। दिव्य प्रबंधम् का वर्गीकरण और श्रेणीकरण श्रीमन् नाथमुनि स्वामी द्वारा किया‌ गया था। यह श्री शठकोप स्वामीजी (नम्माऴ्वार्) की कृपा है कि आज हमें दिव्य प्रबंधम् का ज्ञान है। श्रीमन्नाथमुनि ने इन्हें गूढ़ अर्थ सहित साक्षात श्रीशठकोप सूरी से सीखा। १२००० बार‌ कण्णिनुण् सिऱुत्ताम्बु का पाठ करने के पश्चात उन्हें नम्माऴ्वार् की कृपा प्राप्त हुई। अंतिम आऴ्वार् के काल के बाद श्रीवैष्णव सम्प्रदाय अधिक फल – फूल नहीं पा रहा था। श्रीमन्नाथमुनि द्वारा दिव्यप्रबंधम् का पुनरुद्धार, तथा उनका वर्गीकरण और उनके शिष्यों द्वारा इसका प्रचार-प्रसार से श्रीवैष्णव दर्शन के पुनर्जीवित करने में सहायता की। 

अब तक हम मुदल् आयिरम् (प्रथम सहस्त्र) का अनुभव करते आ रहे हैं और संक्षिप्त में, तिरुप्पल्लाण्डु, कण्णिनुण् सिऱुत्ताम्बु, पेरियाऴ्वार् तिरुमोऴि, तिरुप्पावै, नाच्चियार् तिरुमोऴि इन प्रबंधों को देखा। प्रत्येक प्रबंधम् में महत्त्वपूर्ण भावों और‌ विचारों को समाविष्ट किया गया है। 

आइए, अब हम पेरुमाळ् तिरुमोऴि का अनुभव देखें। 

पेरुमाळ् तिरुमोऴि 

यह हमें कुलशेखर आऴ्वार् द्वारा आशीर्वाद रूप में प्राप्त हुआ है, जिन्हें कुलशेखर भगवान (पेरुमाळ्) के नाम से भी संबोधित किया जाता है। उन्हें रामावतार में अत्यधिक रुचि थी और वे भागवतों के प्रति पूर्णतः समर्पित थे। उनकी राजसभा में प्रतिदिन रामायण का पाठ किया जाता और वे प्रतिदिन कथा सुनते और आनंदित रहते थे। उनकी इच्छा थी- श्रीरङ्गम् जाकर श्रीरङ्गनाथ भगवान का दर्शन करना। वे क्षत्रिय कुल में अवतरित हुए एक महान योद्धा थे। भगवान की कृपा से उन्हें दोषरहित ज्ञान प्राप्त हुआ और वे एक महान श्रीवैष्णव थे। उनकी रचना है पेरुमाळ् तिरुमोऴि। श्री राम के प्रति उनकी अपार‌ भक्ति के कारण, कुलशेखर आऴ्वार् को कुलशेखरप् पेरुमाळ् कहा जाता है। श्री राम को हमारे सम्प्रदाय में पेरुमाळ् (भगवान) से संबोधित किया जाता है। इसे आऴ्वार्/आचार्यों के क‌ई कार्यों में देखा जा सकता है। किंतु श्री कृष्ण को हमारे सम्प्रदाय में कण्णन्/कृष्ण ही संबोधित किया जाता है, जिस प्रकार अपने घर के बच्चे को संबोधित कर रहे हों। वास्तव में, श्री की उपाधि का प्रयोग करना भी हमारे और कृष्ण के बीच अंतर बढ़ाने के समान है, इसलिए उसे टाल दिया जाता है। 

पेरुमाळ्‌ तिरुमोऴि के सुंदर तनियन् (मंगलाचरण) हैं। इन्हीं के माध्यम से हम इस प्रबंधम् के वैभव को समझ सकते हैं। 

तनियन् १ 

इन्नमुदम् ऊट्टुगेन् गङ्गे वा पैङ्गिळिये!
तॆन्नरङ्गम् पाड वल्ल सीरप् पॆरुमाळ् – पॊन्नम् 
सिलै सेर् नुदलियर् वेळ् सेरलर् कोन् ऎङ्गळ् 
कुलसेखरन् ऎन्ऱे कूऱु

यह तनियन् कुलशेखर आऴ्वार् की महिमा को दर्शाता है। एक पालतू तोते को संबोधित करते हुए यह श्लोक् कहता है कि भगवान श्रीरंगनाथ जो श्रीरंगम् दिव्य धाम में नित्य वास करते हैं, उनके गुणगान करते रहने वाले, चोलों के राजा कुलशेखर आऴ्वार् का हमें निरंतर गुणगान करते रहना चाहिए। 

तनियन् २ 

आरम्भ कॆडप् परन् अन्बर् कॊळ्ळार् ऎन्ऱु अवर्गळुक्के 
वाऱङ्गॊडु कुडप् पाम्बिऱ् कै इट्टवन् माट्रलरै 
वीरङ्गॆडुत्त सॆङ्गोल् कॊल्लि कावलन् विल्लवर् कोन्
सेरन् कुलसेखरन् मुड़ि वेन्दर् सिगमणिये

यह तनियन् कुलशेखर आऴ्वार् के वैभव और उनकी भागवतों के प्रति आदर और निष्ठा का वर्णन करता है। उनके कुछ मंत्री कुछ भागवतों से ईर्ष्या करते थे। उन भागवतों के नाम पर कलंक लगाने के हेतु उन मंत्रियों ने मंदिर से कुछ आभूषणों को छिपा लिया और उन भागवतों पर दोष डाल‌ दिया।

कुलशेखर आऴ्वार् ने यह घोषित किया कि इन‌ भागवतों ने आभूषण नहीं चुराया और वे इसे सिद्ध करने सर्पों से भरे मटके के अंदर हाथ डालेंगे ऐसी घोषित किया। प्राचीन काल में, इस प्रकार सत्य को स्थापित किया जाता था। और इस प्रकार, सर्पों से हानि न पहुँचने पर, कुलशेखर आऴ्वार् ने भागवतों को निर्दोषी सिद्ध कर दिया। ऐसी थी उनकी भागवतों के प्रति निष्ठा, कि वे बिना सोचे उन्हें निर्दोषी सिद्ध करने के लिए स्वयं के प्राणों को संकट में डाल दिया और इस कुलशेखर आऴ्वार् को इस श्लोक में महिमान्वित किया गया है। 

पेरुमाळ् तिरुमोऴि से मुख्य सार:

  • कुल १० दशक (पदिगम्), १०५ पासुरम् (श्लोक)
  • यह श्रीराम पर केंद्रित है।
  • प्रथम तीन दशकों में आऴ्वार् श्रीरंगम के श्रीरंगनाथ भगवान की मंगळाशासन करते हैं।
  • अगले दशक में वे तिरुपति बालाजी भगवान (तिरुवेंकटमुडैयान्) का मंगळाशासन करते हैं।
  • अगले में वे तिरुवित्तुवकोडु दिव्य क्षेत्र का मंगळाशासन करते हैं। 
  • इसके पश्चात वे कृष्णावतार की ओर अपने स्नेह को स्त्री भाव में दर्शाते हैं, जिस प्रकार श्री शठकोप स्वामीजी (नम्माऴ्वार्) और कलियन स्वामी (तिरुमङ्गै आऴ्वार्) ने किया था।
  • अंतिम तीन दशकों में आऴ्वार् श्रीरामावतार का अद्भुत अनुभव करते हैं। 

श्रीरामायणम् का उत्सव मनाया जाता है और इसे शरणागति शास्त्र माना जाता है। चूंकि पेरुमाळ् तिरुवायमौळि को मुख्य रूप से श्रीरामावतार मनाते हैं, इसलिए इसे शरणागति शास्त्र भी माना जाता है। श्रीरामायण में हम शरणागति के अनेक उदाहरण देखते हैं, जैसे कि देवता द्वारा भगवान की शरणागति, दैत्यराज परशुराम की शरणागति, इलय पेरूमाळ् द्वारा वन जाते समय पेरूमाळ् और पिराट्टि की शरणागति, भरतजी द्वारा वन में श्रीराम की शरणागति, यद्यपि भगवान द्वारा अयोध्या लौटने की उनकी प्रार्थना स्वीकार नहीं की जाती। श्रीराम ने स्वयं समुद्रराज  को शरणागति दी थी। विभीषण आल्वान को भी पेरुमाळ् के प्रति समर्पित होते हुए देखा जाता है!

पेरुमाळ् तिरुमोऴि शरणागति की महानता पर प्रकाश डालते हैं।

पहले पदिगम् में, आऴ्वार् श्रीरंगनाथन को शरणागति देते हैं। शरणागति के पश्चात , हमारे पूर्वाचार्य कहते हैं कि प्रपन्न के लिए, छः विषय (गुण) स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होते हैं। अनुकूल्यस्य संकल्पम् (इच्छा है कि हमारे कार्य भगवान की प्राथमिकताओं के अनुरूप हों), प्रातिकूल्यस्य वर्जनम् (ऐसे कार्यों का परित्याग करे जो भगवान की ईच्छा के विरुद्ध हो ), गोप्तृत्वम् वर्णम् (भगवान को रक्षक के रूप में मानना), कार्पण्यम् (यह सोचना कि हमारे पास बदले में देने कुछ भी नहीं है), महाविश्वासम् (पूर्ण विश्वास कि भगवान हमें बचाएँगे), आत्म  निष्कर्षम् (यह दृढ़ विशवास रखना कि इस आत्मा पर भगवान का अधिकार है )। इसे “उरङ्गुवान कैपण्डम् पोले..” के उदाहरण से समझाया गया है, जहाँ बताया गया है कि यदि कोई व्यक्ति पुस्तक पढ़ते समय सो जाता है, तो पुस्तक अपने आप गिर जाएगी और उसे रखने वाले को उसे स्पष्ट रूप से नीचे रखने की आवश्यकता नहीं होगी। इसी प्रकार, शरणागत के लिए, छः विषय धीरे-धीरे स्वतः विकसित होंगे। जहाँ अनुकूलस्य संकल्पम् भगवान  की इच्छानुसार कार्य करने को दर्शाता है, वहीं प्रतिकूल्यस्य वर्जनम् हमें उन सभी कार्यों को करने से रोकता है जो भगवान के रुचिकर नहीं हैं।

छः विषयों का वर्णन आगे के पद्यों में बहुत अच्छे से किया गया है।

अगले पद्य में आऴ्वार् भगवत दासों का अनुभव करते हैं। यह अनुकूल्यस्य संकल्प का एक उदाहरण है, क्योंकि भगवान चाहते हैं कि हम उनके भक्तों के अनुकूल रहें।

अगले पद्य में आऴ्वार् प्रतिकुल्यस्य वर्जनम् का प्रदर्शन करते हैं। वे इस भौतिक शरीर और इस भौतिक संसार के साथ संबंध की इच्छा नहीं रखते हैं।

अगले पद्य में, जहाँ वे तिरुवित्तुवकोट्टु (केरळ् प्रदेश में एक दिव्य क्षेत्र) भगवान का अनुभव करते हैं, वे अपने कार्पण्यम् के बारे में वार्ता करते हैं। वह कहते हैं कि उनके पास भगवान के चरणकमलों के अलावा कोई अन्य गति नहीं है।

अगले पद्य में, जहाँ उन्होंने तिरुवेङ्कटमुडयान् (तिरुमला तिरुपति बालाजी भगवान) का अनुभव किया है, उन्होंने घोषणा की है कि उनकी एकमात्र इच्छा भगवान के आनंदधाम में जाना है और उनका कोई अन्य उद्देश्य नहीं है।

अर्चावतार भगवान का अनुभव करने के बाद, वे कृष्णावतार का अनुभव करते हैं। एक पद्य देवकी के विलाप के स्वर में और दूसरा गोपिका के भाव में स्थापित है।

इसके बाद, अंतिम तीन दशकों में, उन्हें रामावतार का अनुभव मिलता है। मन्नुपुगऴ्.. दशक में वह कौशल्या के भवन में श्रीराम के लिए एक सुंदर तालट्टु (लोरी) गाते हैं। अगले दशक में, वह दशरथन् पुलम्बिय पुलम्बल् (दशरथ का विलाप) के रूप में वार्ता करते हैं जब राजा दशरथ श्रीराम का वनवास के लिए प्रस्थान करने के बाद श्रीराम से अलग हो जाते हैं।

अंतिम अध्याय में, रामायण चरित्र को पूरी तरह से सुंदर और स्पष्ट रूप से वर्णित किया गया है और घोषणा की गई है कि भगवान अब तिरुचित्रकूडम् दिव्य देश में निवास कर रहे हैं। इसके साथ, आऴ्वार् इस गौरवशाली और अद्भुत प्रबंधम् का समापन करते हैं।

एक और महत्त्वपूर्ण बात यह है कि पहले पद्य के बाद, जहाँ आऴ्वार् भगवान के समक्ष आत्मसमर्पण करते हैं, अगले पद्य में वह भागवतों के वैभव के बारे में वार्ता करते हैं और उसका उत्सव मनाते हैं। यह इस प्रबन्ध का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण पक्ष है।

तिरुच्चन्द विरुत्तम्

यह एक सुंदर प्रबंधम् है। इसे हमें तिरुमऴिसै आऴ्वार् अर्थात भक्तिसार योगी द्वारा अनुग्रह किया गया है। इन्हें तिरुमऴिसैप् पिरान् (पिरान का अर्थ है हमारे हितकारी) भी कहा जाता है। 

जिस प्रकार कुलशेखर आऴ्वार् को कुलेशखरप् पेरुमाळ् कहा जाता है, उनकी श्री राम अर्थात पेरुमाळ् पर असीम भक्ति के कारण, उसी प्रकार तिरुमऴिसै आऴ्वार् को तिरुमऴिसैप् पिरान् संबोधित किया जाता है। 

तिरुक्कुडन्दै (भास्कर क्षेत्र, कुम्भकोणम) के भगवान का दिव्य धाम है आरावमुद (अपर्याप्तामृत भगवान) पिरान्। इस भगवान के प्रति महान प्रेम और इनके साथ दिव्य वार्तालाप के कारण भक्तिसार आऴ्वार् तिरुमऴिसै आऴ्वार् से तिरुमऴिसैप् पिरान् कहलाए, और आरावमुद पिरान् आरावमुद आऴ्वान् कहलाए जाने लगे! अतः भगवान और आऴ्वार् ने अपनी उपाधियों का विनिमय कर‌ लिया, जो उनके एक दूसरे के प्रति अथाह प्रेम और संबंध को प्रतिबिंबित करता है। 

भक्तिसार आऴ्वार् ने दो प्रबंधों की रचना की – तिरुच्चन्द विरुत्तम् और नान्मुगन् तिरुवन्दादि। ऐसा‌ कहना और उचित होगा कि इनकी रचनाओं में से आधुनिक काल में हमें केवल ये दो रचनाएँ ही उपलब्ध हैं। गुरुपरम्परा प्रभावम् ग्रंथ के आधार पर, इस आऴ्वार् की आयु सबसे अधिक रही‌ है – ४७०० वर्ष। उन्होंने क‌ई प्रबंधम् अथवा ग्रंथों की रचना की। अपितु,‌ वे यह सोचते हुए कि कौन है ये पढ़कर अनुभव करने, अपने संपूर्ण कार्यों को कावेरी नदी में फेंक दिया। उनमें से, ये दो प्रबंधम् उनके पास लौटकर आए, यह संकेत करते हुए कि इन्हें संभालकर रखकर आगे बढ़ाना है। इसलिए आऴ्वार् ने इन दो प्रबंधों को आगे की पीढ़ियों के‌ लिए संभालकर रखे। 

तिरुच्चन्द विरुत्तम् तमिऴ् व्याकरण के “विरुत्त पा” और “आसिरिय विरुत्त पा” वर्ग में आता है। तो इस प्रबंधम् का नाम वास्तव में तिरुवासिरिय विरुत्तम् होना चाहिए, ऐसा क्यों नहीं कहा‌ जाता है? इस प्रश्न के उत्तर के‌ लिए यह समझना होगा है कि छन्दम् का अर्थ है सुंदर संगीत। मंदिरों में तिरुच्चन्द विरुत्तम् का पाठ अत्याद्भुत और सुंदर राग में पाठ किया जाता है इतर प्रबंधों की तुलना में। यही इसके नाम का‌ कारण है। 

इस प्रबंधम् के दो तनियन् हैं। पहला तनियन् प्रबंधम् की महिमा‌ का वर्णन करता है और दूसरा श्री भक्तिसार आऴ्वार् की महिमा। 

पहला तनियन् 

तरुच्चन्द पॊऴिल् तऴुवु तारणियिन् तुयर् तीर
तिरुच्चन्द विरुत्तम्सॆय् तिरुमऴिसैप् परन् वरुमूर् 
करुच्चन्दुम् कारगिलुम् कमऴ् कोङ्गुम् मणनाऱुम् 
तिरुच्चन्दत्तुडन् मरुवु तिरुमऴिसै वळम् पदिये 

यह आरंभ करता है तिरुमऴिसै नामक दिव्य धाम जहाँ आऴ्वार् का‌ अवतार‌ हुआ था, उसकी महिमा से। वह स्थान चन्दन और अगर के वृक्षों से भरपूर है। वहाँ की मिट्टी उपजाऊ है और पिराटि (श्री महालक्ष्मी) अत्यंत आनंदपूर्वक निवास करती है। आऴ्वार् ने, वहाँ अवतार‌ लेकर, हमें तिरुच्चन्द विरुत्तम् से अनुग्रहित किया इस उद्देश्य से कि उन सभी के दुःख विनाश हो जाए जो इसका पाठ/चिंतन करते हैं। 

२रा तनियन् 

उलगुम् मऴिसैयुम् उळ्ळुणर्न्दु तम्मिल्
पुलवर् पुगऴ्क्कोलाल् तूक्क – उलगु तन्नै
वैत्तॆडुत्त पक्कत्तुम् मानीर् मऴिसैये 
वैत्तॆडुत्त पक्कम् वलिदु

यह तनियन् तिरुमऴिसै दिव्य धाम को महिमान्वित करता है। प्राचीन काल में, ब्रम्हा ने एक तुला का प्रयोग किया जिसमें एक पलड़े में सभी महान तीर्थों को रखा और दूसरे पलड़े में तिरुमऴिसै। तिरुमऴिसै को धारण करनेवाला पलड़ा भारी सिद्ध हुआ। ऐसा‌ वैभव है इस दिव्य क्षेत्र का जहाँ आऴ्वार् ने अवतार लिया। 

नान्मुगन् तिरुवन्दादि में आऴ्वार् ने संसारियों को उपदेश दिया था कि यह समस्त विश्व, ब्रह्मा और ब्रह्मा के द्वारा सृजित किए गए अन्य देवता गण सभी श्रीमन्नारायण के द्वारा सृजित किए गए हैं। शास्त्रों से अनेक अर्थों का संदर्भ देकर वे संसारियों को उपदेश देते हैं कि केवल भगवान (परमपदनाथ) का‌ अनुसरण करें। परंतु, संसारियों द्वारा निराश होकर कि‌ उन्होंने उनके उपदेश का पालन नहीं किया, वे उपयुक्त रूप से भगवान जिनका अनुभव करना अत्यंत सुखद है, उनके महान दिव्य गुणों का अनुभव करने का‌ निर्णय लेते हैं। 

तिरुच्चन्द विरुत्तम् के १२० पासुरम् वे भगवान का सुंदर ढंग से अनुभव करते हैं। वे भगवान के पाँच अवस्था का अनुभव करते हैं, जो हैं – पर स्वरूप, व्यूह स्वरूप, विभव स्वरूप अंतर्यामी स्वरूप और अर्चा स्वरूप। 

  • परम्/पर स्वरूप – परमपद धाम में उनका स्वरूप, अपने परत्वम्/श्रेष्ठता को दर्शाते हुए।
  • व्यूह – उनका स्वरूप क्षीरसागर (तिरुप्पार्क्कडल्) में।
  • विभवम् – उनके अनेकानेक अवतार।
  • अर्चा – दिव्यधामों (तीर्थस्थल) में उनका स्वरूप 
  • अंतर्यामी – अंतःकरण में स्थित भगवान 

नान्मुगन् तिरुवन्दादि को परोपदेश माना जा सकता है और तिरुच्चन्द विरुत्तम् को भगवान के रूप और दिव्य कल्याण गुणों के स्वानुभव के रूप में मानना चाहिए। किंतु इस में भी वे परोपदेश करते हैं अपने मन से बात करके, जो इंगित करता है कि वे अपने अनुयायियों को उपदेश कर रहे हैं। 

प्रबंधम् के प्रथम भाग में आऴ्वार् भगवान की महानता के अनुभव से आरंभ करते हैं। वे अनेक पासुरों में वे क‌ई विषयों के बारे में कहते हैं, भगवान ही सृष्टि का कारण होना (जगत्कारणत्वम्), उनका दोनों लोकों, अर्थात शाश्वत लोक परमपद और सृजन किया गया लोक पर स्वामित्व (उभय विभूति नाथ), किस प्रकार वे सृजन कार्य करते हैं, किस प्रकार वे सभी में अंतर्यामी हैं। 

१८ वें पासुरम् में आऴ्वार् इस वैभव पर बोलते हैं कि भगवान कैसे क्षीरसागर में आदिशेष पर्यङ्क पर शयन कर रहे हैं, भगवान के व्यूह अवतार को संदर्भित करते हुए। 

१९ वें पासुरम् से वे भगवान के अनेकानेक अवतारों का अनुभव लेते हैं। वे हंसावतार से आरंभ करते हैं, जिसमें भगवान‌ ने हंस के रूप में ब्रह्मा को वेदों का ज्ञान प्रदान किया, जो उसे भूल चुके थे। वे इतर अवतारों का भी अनुभव करते हैं। 

४९ वें पासुरम् से लेकर वे भगवान के अर्चावतार अनुभव विस्तार रूप से करते हैं। वे श्रीरंगनाथ भगवान, तिरुमला तिरुपति बालाजी भगवान (तिरुवेंकटमुडैयान्), तिरुक्कुडन्दै भगवान (आरावमुदन्) (आऴ्वार् के अति प्रिय) और इतर दिव्य क्षेत्रों का अनुभव लेते हैं। उनको अंतर्यामी रूपी भगवान का भी अनुभव करते हैं। वे निर्धारित रूप से कहते हैं कि भगवान इन दिव्यधामों निवास करने का परम उद्देश्य है आऴ्वार् के हृदय में अपने लिए स्थान बनाना! इससे सम्प्रदाय का एक महत्त्वपूर्ण भाव समझा जा सकता है कि भगवान का अर्चा रूप लेकर इन तीर्थस्थलों में विद्यमान होने का लक्ष्य है कि वे किसी भी‌ रूप से भक्तों के मन में विद्यमान हो सके। 

“अत्तनागी अन्नैयागी…” (११५ वें पासुरम्) द्वारा आऴ्वार् घोषित करते हैं क्योंकि भगवान के अस्तित्व का हेतु हमें मोक्ष प्रदान करने के लिए है, वे अपने हृदय से कहते हैं कि दुःख से भरे संसार सागर में रहने के लिए शोक करने की आवश्यकता नहीं है। भगवान ने घोषित किया है “माशुचः”, इसलिए हमें शोक नहीं करना चाहिए। पिळ्ळै लोकाचार्य ने मुमुक्षुप्पडि में, इसी पासुरम् का उल्लेख चरम श्लोक के अर्थ को समझाते हुए करते हैं । जब हमारी रक्षा के लिए इतने सारे प्ररिश्रम करने स्वयं भगवान के होते हुए, हमें क्या चिंता? 

अंतिम पासुरम्, “इयक्कराद पल् पिरप्पिल् ऎन्नै माट्रि इन्ऱु …” में आऴ्वार् स्पष्टतः व्यक्त करते हैं कि उन्होंने वैकुंठ धाम प्राप्त कर लिया। कुछ आऴ्वार् (उदाहरण: श्री शठकोप स्वामी तिरुवाय्मोऴि में थे) स्पष्टतः घोषित करते हैं कि उन्होंने वैकुंठ धाम प्राप्त कर लिया। उसी प्रकार आऴ्वार् यहाँ “अराद इन्ब वीडु पॆट्रदे” द्वारा इसे घोषित करते हैं।

तिरुमालै और तिरुप्पळ्ळियेऴुच्चि:

दोनों प्रबंधों की रचना श्री भक्ताङ्घ्रिरेणु  (तोण्डरडिप्पोडि आऴ्वार्) द्वारा की गई है। वे श्रीरंगम में रहते थे और भगवान को पुष्प माला अर्पित करने की सेवा करते थे। वे स्वयं का पहचान भक्ताङ्घ्रिरेणु (तो स्थिति तोण्डरडिप्पोडि) अर्थात भक्तों (दास) के दास मानते थे । वे इस प्रकार के परम में थे और भगवान के प्रति असीम भक्ति रखते थे। वे भगवान के लिए पुष्पमालाएँ बनाते थे। 

विख्यात रूप से तिरुमालै की प्रशंसा में ऐसा कहा जाता है कि, “तिरुमालै अऱियादार् तिरुमालैये अऱियादार्” (जो तिरुमालै प्रबंधम् नहीं जानते वे तिरुमाल अर्थात भगवान श्रीमन्नारायण को नहीं जान सकते)। इसलिए हम सभी को इस प्रबंधम् को सीखना चाहिए क्योंकि आऴ्वार्‌ ने इसमें क‌ई गूढ़ अर्थों को व्यक्त किया है। हमारे पूर्वाचार्यों ने आदेश दिया है कि इस प्रबंधम् को सभी श्रीवैष्णवों द्वारा अवश्य सीखा जाना चाहिए। 

तिरुमालै तनियन् (मंगळाचरण): तिरुवरङ्ग पेरुमाळ् अरैयर् द्वारा रचित

मट्रॊन्ऱुम् वेण्डा मनमे! मदिळ् अरङ्गर् 
कट्रिनम् मेय्त्त कऴलिणैक् कीऴ् – उप्र
तिरुमालै पाडुम् संकीर्ण तोण्डरडिप्पोडि ऎम्
पॆरुमानै ऎप्पोऴुदुम् पेसु

यह वर्णन करता है किस प्रकार आऴ्वार् का चिंतन केवल भगवान श्रीरंगनाथ (पेरिय पेरुमाळ्) (जो भगवान कृष्ण ही हैं) के श्रीचरणों पर पूर्णतः केंद्रित है और अन्य कुछ नहीं सोचते। अरैयर् स्वामी अपने चित्त से कहते हैं कि ऐसे आऴ्वार् पर ध्यान केन्द्रित करे जो भगवान श्रीरंगनाथ के चरणकमलों पर एकनिष्ठ से ध्यान केन्द्रित करने की अवस्था में हैं। 

तिरुमालै का अंतर्निहित अर्थ: 

आऴ्वार् को अनेक विषयों का अनुभव होता है। वे भगवान के दिव्य नाम-संकीर्तन के वैभव मनाते हुए आरंभ करते हैं। वे भगवान के दिव्य नाम की महिमा का वर्णन करते हैं। 

“कावलिल् पुलनै वैत्तु… ” पासुरम् में आऴ्वार् कहते हैं कि हमें यमराज से कोई भय नहीं है। हम उसके शिर पर हमारे चरणों को रखेंगे क्योंकि हम भगवान के दिव्य नाम जाप करते हैं। 

आगे, “पच्चै मा मलै पोल् मेनि…” पासुरम् में आऴ्वार् कहते हैं कि भगवान श्रीरंगनाथ जो हमारे पूर्वाचार्यों द्वारा तृतीय विभूति (अर्थात नित्य विभूति और लीला विभूति से भिन्न, स्वयं एक अलग विभूति) कहलानेवाले श्रीरंगम में निवास करते हैं, अत्यंत प्रिय हैं आऴ्वार् के लिए और यह भी कि वे केवल भगवान श्रीरंगनाथ के दिव्य अवयवों का अनुभव लेते रहने की इच्छा रखते हैं और परमपद धाम की प्राप्ति की भी इच्छा नहीं रखते हैं। 

तीसरे पासुरम् से आऴ्वार् भगवान के कल्याण गुणों का और उनके अर्चावतार के वैभवों का सुखद अनुभव लेते हैं। आऴ्वार् कहते हैं कि भगवान श्रीरंगनाथ की अर्चा रूप एकमेव कारण से उन्हें भगवद विषयों के प्रति इच्छा प्रवृत्त हुई। इस इच्छा का संवर्धन का कारण भी वे ही हैं । भगवान के दिव्य रूप के सौंदर्य ने न केवल भगवान के प्रति इच्छाओं को बढ़ावा दिया, परंतु आऴ्वार् के मन के क्लेशों का भी नाश कर दिया। 

आऴ्वार् क‌ई बार स्वयं के दीनता को व्यक्त करते हैं। वे निश्चित रूप से कहते हैं कि वे कर्म, ज्ञान, भक्ति योगों का‌पालन करने के योग्य नहीं हैं और केवल भगवान के दिव्य चरणों को पकड़े हुए हैं। वे विचार करते हैं कि इस प्रकार‌ दयनीय स्थिति में होते हुए और भगवान से रक्षा की याचना करने पर भी, भगवान ने ऐसा क्यों नहीं किया। आऴ्वार् अनेक पासुरों में व्यक्त करते हैं कि उन में कोई अच्छे गुण नहीं हैं और उनमें भरपूर दुर्गुण हैं। 

इस प्रबंधम् के ३८वा पासुरम् अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।

“मेम्पॊरुळ्‌ पोगविट्टु मॆय्म्मैयै मिग उणर्न्दु…” यहाँ, आऴ्वार् “वाऴुम् सोम्बर्” कि उल्लेख करते हैं। यह उन लोगों को उल्लेख करता है जिन्होंने रहस्य त्रयम् को पूर्णतः सीखकर उसके प्रति पूर्णतः निष्ठावान हैं। वे भगवान के कैङ्कर्यम् करने हेतु किसी भी‌ सीमा पार कर‌ सकते हैं। परंतु जहाँ निजी लाभ का प्रश्न उठता है, तो वे एक कण मात्र प्रयास करने के लिए भी सहमत नहीं होते। हमें स्वयं के हित के लिए कोई प्रयास नहीं करनी चाहिए, परंतु भगवान की कोई भी सेवा करने के लिए तत्पर होना चाहिए। यह पासुरम् द्वय महामंत्र और चरम श्लोक के अर्थ को स्पष्ट करता है। पुनः, आऴ्वार् जब इस पासुरम् में “काम्बऱत् तलै सिरैत्तु” का वर्णन करते हैं, वे इस अर्थ से कहते हैं कि हमें अन्य किसी उपाय (मार्ग) का प्रयास नहीं करना चाहिए और लेशमात्र भी उपायन्तरम् (भगवान को उपाय मानने के बदले अन्य उपाय‌ में संलग्न होना) की सहायता नहीं लेनी चाहिए।‌ 

अगले पासुरम् में, आऴ्वार् भागवतों (जो पूर्व उल्लेखित गुणों को प्रकट करते हैं) की महिमा का वर्णन करते हैं। वे कहते हैं कि हमें उन भागवतों का संगत आवश्य रखना चाहिए और उनकी सेवा करनी चाहिए। 

अंततः, ४५ वे पासुरम् में “वळवॆऴुम् तवळ माड मदुरै मानगरम् तन्नुळ् …” आऴ्वार् इस प्रबंधम् की पूर्ति करते हुए कहते हैं कि भगवान ऐसे गुणवान हैं जो मेरे अधम शब्दों को उन्नत कविता के रूप में महिमान्वित करते हैं, ऐसा उनका वात्सल्य भाव है। आऴ्वार् कहते हैं कि उन्होंने अपनी इस रचना में ऐसे भगवान की स्तुति की है। 

तिरुप्पळ्ळियेऴुच्चि 

श्रीभक्ताङ्घ्रिरेणु स्वामी ने हमें तिरुमालै  के बाद तिरुप्पळ्ळियेऴुच्चि प्रबंधम् से अनुग्रहित किया। इसे इस प्रबंधम् के व्याख्यान के परिचय (अवतारिकै) में दिखाया गया है। यह एक सुंदर प्रबंधम् है जिसमें भगवान श्रीरंगनाथ के लिए आऴ्वार् सुप्रभातम् गाते हैं। सुप्रभातम् गाने का अर्थ है भगवान को जगाना। एक प्रश्न उठता है कि क्या भगवान निद्रा लेते हैं? भगवान‌ योग निद्रा में होते हैं। इस अवस्था में भगवान इस विचार में निमग्न होते हैं कि हमारे उत्थान के लिए कौन-से मार्ग हैं। इस स्थिति में हम जब भगवान के पास ब्रह्म मुहूर्त में जागकर, वे जागने के‌ लिए उनसे सुंदर ढंग से प्रार्थना करें, तो हम उनकी कृपा का पात्र बनेंगे। इस परंपरा को प्राचीन काल से बड़े स्नेह पूर्वक पालन किया जा रहा है। वाल्मीकि रामायण में हम देख सकते हैं किस प्रकार विश्वामित्र ऋषि श्री राम को “कौशल्या सुप्रभात राम पूर्वा संध्या प्रवर्तते…” श्लोक में जगाते हैं। इसी प्रकार, श्री भक्ताङ्घ्रिरेणु आऴ्वार् अत्यंत सुंदर ढंग से भगवान श्रीरंगनाथ को जगाते हैं। 

१ला तनियन् (संस्कृत):

तमेव मत्वा परवासुदेवं रङ्गेशयं राजवदर्हणीयम्। 
प्राबोदिकीं योकृत सूक्तिमालां भक्ताङ्घ्रिरेणुं भगवन्तमीडे।।

पेरिय पेरुमाळ् (भगवान श्रीरंगनाथ), जिनके गुण अति आश्चर्यजनक हैं, शेषशय्या पर लेटे हुए हैं और एक चक्रवर्ती की भाँति सबके द्वारा पूजे जाते हैं। ऐसे भगवान श्रीरंगनाथ, जो परमपद के परवासुदेव हैं, भक्ताङ्घ्रिरेणु आऴ्वार् द्वारा तिरुप्पळ्ळियेऴुच्चि नामक कविता माला के अर्पण से सुंदर ढंग से जगाते जा रहे हैं। 

२रा तनियन् (तमिऴ्):

मण्डङ्गुडि ऎन्बर् मामऱैयोर् मन्निय सीर् *
तॊण्डरडिप्पॊडि तॊन्नगरम्* वण्डु 
तिणर्त्त वयल् तॆन्नरङ्गत्तम्मानै*
पळ्ळि उणर्त्तुम् पिरान् उदित्त ऊर्

मण्डङ्गुडि को सभी वेद विद्वानों द्वारा अभिवादन किया जाता है कि यह भक्ताङ्घ्रिरेणु आऴ्वार् का अवतार स्थल है, जिन्होंने एक महान उपकार किया उस भगवान को जगाकर जो श्रीरंगम में योग निद्रा में थे। 

इस प्रकार, दोनों तनियन् भक्ताङ्घ्रिरेणु आऴ्वार् के, अवतार स्थल और‌ पेरिय पेरुमाळ् के वैभवों को वर्णित करते हैं। 

इस प्रकार, अनेक पासुरम् में वर्णित है कि किस प्रकार देवताएँ, ऋषि, गन्धर्व,‌ यक्ष आदि सब का‌ आगमन हुआ और किस प्रकार वे सब भगवान को योग्य रूप से जगाने के लिए व्यग्रतापूर्वक प्रतीक्षा कर‌ रहे हैं। देवता जैसे ब्रम्हा, रुद्र, स्कंद, इंद्र, वरुण आदि भगवान को प्रथम उठाने के लिए एक दूसरे से स्पर्धा कर रहे हैं। वे प्रतीक्षा कर‌ रहे हैं कि जैसे ही मंदिर खुल जाता है भगवान की कृपादृष्टि पहले उन पर पड़े। 

प्रथम पासुरम् में, “कदिरवन् गुण दिसै…” आऴ्वार् कहते हैं कि एक उभार आए हुए समुद्र की भाँति भक्त जन एकत्रित हुए हैं। उनके संग आए हुए लोग बड़े वाद्यों को बजा रहे हैं। आऴ्वार् विनती करते हैं भगवान से कि वे उनके अनुरोध सुनकर जागें और उन्हें सेवा (दर्शन) प्रदान करें।

इसी भावना को आऴ्वार् सुंदरता से अगले पासुरों में प्रस्तुत करते हैं। 

अंतिम पासुरम् में, “कडिमलर्क् कमलङ्गळ्…” आऴ्वार् भगवान के दासों के दास होने की अवस्था का प्रकटीकरण करते हैं। वे पेरिय पेरुमाळ् से प्रार्थना करते हैं कि उन्हें भगवान के दासों के दास बनने का सौभाग्य प्रदान करे और इस प्रबंधम् को विराम देते हैं। 

अमलनादिपिरान्: 

तिरुप्पाणाऴ्वार् द्वारा रचित और प्रथम सहस्त्र (मदलायिरम्) में सम्मिलित। 

हम तिरुप्पाणाऴ्वार् के प्रसिद्ध वैभव से ज्ञात हैं। वे पाणर् कुल में जन्म लेकर श्रीरंगनाथ के प्रति असीम भक्ति रखते थे। पेरिय पेरुमाळ् ही सर्वस्व मानकर वे अपना जीवन व्यतीत करते थे। एक बार, कावेरी नदी के किनारे बैठे हुए और पेरिय पेरुमाळ् की दिशा की ओर मुख करके, वीणा बजाकर गाते हुए वे भगवान के अनुभव में लीन थे। तब वहाँ लोकसारंग मुनि ने उनका अपमान किया। जब लोकसारंग मुनि पेरिय पेरुमाळ् के दर्शन के लिए मंदिर गए, भगवान ने तिरुप्पाणाऴ्वार् को लेकर आने का आदेश दिया, जिन्हें वे आदर से “नम् पाणर्” (मेरा पाणर्) कहकर पुकारे। इसे दिव्य आज्ञा मानकर, लोकसारंग मुनि कावेरी तक पर लौटकर आऴ्वार् को अपने संग मंदिर आने का अनुरोध करते हैं। परंतु, आऴ्वार् कह देते हैं कि आऴ्वार् को श्रीरंगम् के अंदर पाँव रखने की योग्यता नहीं है। तब लोकसारंग मुनि ने आऴ्वार् को अपने कंधों पर बिठाकर ले जाने की प्रार्थना करते हैं, ताकि आऴ्वार् को अपने चरण नीचे रखने की आवश्यकता नहीं होगी। लोकसारंग मुनि के बारंबार अनुरोध करने से तिरुप्पाणाऴ्वार् ने उनका अनुरोध स्वीकार किया। 

लोकसारंग मुनि के कंधों पर विराजमान होकर, मंदिर की ओर प्रस्थान करते समय आऴ्वार् ने हमें इस प्रबंधम् से अनुग्रहित किया। भगवान के मंदिर के अंदर प्रवेश करने के थोड़े समय पूर्व लोकसारंग मुनि आऴ्वार् को नीचे उतारते हैं। तिरुप्पाणाऴ्वार् तब अंतिम पासुरम् “कॊण्डल् वण्णनै…” गाते हैं और पेरिय पेरुमाळ् के दिव्य चरणों को प्राप्त कर लेते हैं और वहीं से परमपद धाम की ओर प्रस्थान करते हैं। 

तनियन् १: (संस्कृत में)

आपाद चूडम् अनुभूय हरिं शयानम्
मध्ये कवेर दुहितुर् मुदितान्तरात्मा।
अद्रष्ट्रुतां नयनयोर् विषयान्तराणाम्
यो निश्चिकाय मनवै मुनिवाहनं तम्।। 

दिव्य कावेरी नदी के उत्तर और दक्षिण धाराओं के मध्य में भगवान शयन आसन में हैं। ऐसे भगवान के श्रीचरणों से लेकर दिव्य केश तक का बड़ा आनंदपूर्वक अनुभव तिरुप्पाणाऴ्वार् को प्राप्त हुआ। ऐसी स्थिति में आऴ्वार् घोषित करते हैं कि उनकी आँखें जो ऐसु अद्भुत दृश्य को देख चुकी हैं वे अन्य कुछ भी नहीं देखेंगी। यह मंगळाचरण श्लोक ऐसे तिरुप्पाणाऴ्वार् को वन्दना करता है जो लोकसारंग मुनि के कंधों पर बिठाकर ले जाए गए।‌

तनियन् २: (तमिऴ् में)

काट्टवे कण्ड पाद कमलम् नल्लाडै उन्दि* 
तेट्टरुम् उदर बन्धम् तिरुमार्बु कण्डम् सॆव्वाय्*
वाट्टमिल् कण्गळ् मेनि मुनियेऱित् तनि पुगुन्दु*
पाट्टिनाल् कण्डु वाऴुम् पाणर् ताळ् परविनोमे

आऴ्वार् जिन्होंने लोकसारंग मुनि के कंधों पर बैठकर‌ यात्रा करके पेरिय पेरुमाळ् के मंदिर के भीतर प्रवेश किया, और इसी कारण मुनिवाहन् कहे जाते हैं, उन्होंने भगवान के अवयवों का अनुभव किया। उन्होंने भगवान के श्रीचरण कमल, सुंदर वस्त्र, दिय नाभि कमल और उदर, दिव्य वक्षस्थल, दिव्य कण्ड, दिव्य प्रवाल वर्ण के अधर, कमल नयन और संपूर्ण दिव्य शरीर का अनुभव किया। उनका एकमेव लक्ष्य था भगवान के वैभव की प्रशंसा करना। यह मंगळाचरण श्लोक ऐसे तिरुप्पाणाऴ्वार् को वन्दना करता है। 

तिरुप्पाणाऴ्वार् ने सुंदर ढंग से पेरिय पेरुमाळ् के संपूर्ण दिव्य रूप का अनुभव किया है। प्रति पासुरम् और उसके बाद के पासुरम् के बीच के संबंध को व्याख्यानों में दो प्रकार से दर्शाया गया है। 

पहले प्रकार के संबंध से, भगवान द्वारा आऴ्वार् के लिए किए गए उपकारों की चर्चा की गई है। 

दूसरे प्रकार के संबंध से, यह वर्णन किया गया है कि किस प्रकार आऴ्वार् भगवान के दिव्य विग्रह के प्रत्येक अवयव का आनंदमय अनुभव करते हैं। जब कोई डूब रहा होता है, तब यदि वह एक लकड़ी को पकड़ ले, तो उसे लहरें एक स्थान से दूसरे स्थान को ले जाती हैं। उसी प्रकार भगवान के दिव्य रूप के प्रत्येक अवयव आऴ्वार् को एक स्थान से दूसरे स्थान ले जाते हैं। 

इस प्रबंधम् का मुख्य शास्त्रार्थ यह है कि भगवान के दिव्य रूप का अनुभव करना ही हमारी नित्य सेवा होनी चाहिए और वह अनुभव ही हमारा उद्देश्य भी।

प्रत्येक पासुरम् में आऴ्वार् भगवान के दिव्य रूप के

के एक अंग का आनंदमय अनुभव करते हैं। वे स्पष्टतः व्यक्त करते हैं किस प्रकार भगवान के दिव्य कमल नेत्रों ने आऴ्वार् को भ्रमित कर दिया। तत्पश्चात् वे पूरे शरीर के लावण्य का अनुभव लेते हैं। 

अंतिम पासुरम्, “कॊण्डल् वण्णनै…” में आऴ्वार्, यह शपथ लेते हुए कि पेरिय पेरुमाळ् के सुंदर कमल नयनों को और दिव्य रूप को देखने के पश्चात, वे अन्य किसी वस्तु, स्वयं परमपदनाथ और भगवान के अन्य अर्चावतार स्वरूपों तक को नहीं देखेंगे ।

इस प्रकार हमने प्रथम सहस्त्र के सारे प्रबंधों का एक संक्षिप्त विवरण देखा है।

अडियेन् दीपिका रामानुज दासी

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