उपदेश रत्तिनमालै – सरल व्याख्या – पासुरम् ५७-५९

। ।श्री: श्रीमते शठकोपाय नम: श्रीमते रामानुजाय नम: श्रीमत् वरवरमुनये नमः। ।

उपदेश रत्तिनमालै

<< पासुरम् ५५-५६

पासुरम् ५७

सत्तावनवां पासुरम्। श्री वरवरमुनि स्वामी को ऐसे लोगों की दुखद परिस्थिति पर वेदना होती है, जो इस ग्रंथ की महानता को जानते हुए भी इसमें भाग नहीं लेते हैं।

देसिगर्पाल् केट्ट सॆऴुम् पॊरुळैच् चिन्दै तन्निल्
मासऱवे ऊन्ऱ मननम् सॆय्दु – आसरिक्क
वल्लार्गळ् ताम् वचन बूडणत्तिन् वान् पॊरुळैक्
कल्लाददु ऎन्नो कवर्न्दु

जो लोग काम और क्रोध के दोषों से छुटकारा पा सकते हैं, और अपने आचार्यों से सीखे हुए उत्कृष्ट अर्थों को अच्छी तरह एकाग्रता के साथ अपने जीवन में अपनाने में सक्षम हैं, उन्हें श्रीवचनभूषणम् के आदरणीय अर्थों न सीखने का क्या कारण है? यह कितनी विचित्र बात है कि ये लोग मनुष्य श्रेणी में जन्मे हैं, जो शास्त्रों को सीखने और उसका पालन करने की क्षमता रखते हैं, इस ग्रंथ में इच्छा न रखने के कारण इसे को रहे हैं!

पासुरम् ५८

अट्ठानवां पासुरम्। वे उन लोगों को उत्तर देते हैं जो उनसे पूछते हैं कि उन्हें श्रीवचनभूषणम् के बहुमूल्य अर्थों को कैसे सीखना चाहिए। 

सच्चम्बिरदायम् ताम् उडैयोर् केट्टक्काल्
मॆच्चुम् वियाक्कियैगळ् उण्डागिल् – नच्चि
अदिगरियुम् नीर् वचन बूडणत्तुक्कट्र
मदियुडैयीर् मद्दियत्तराय्

जिन लोगों का मन श्रीवचनभूषणम् के प्रति समर्पित है, सुनिए! यदि किसी ने इस ग्रंथ के लिए भाष्य लिखा है, जिसकी सभी ने प्रशंसा की हो और कोई सत्सम्प्रदाय में सुदृढ़ व्यक्ति इसे श्रवण कर प्रसन्न होते हैं, तो आप इसे निष्प्रभावी रहकर सीख लें।

श्रीवचनभूषणम् के लिए प्रतिष्ठित भाष्य श्री वरवरमुनि स्वामी के लिखने से पहले, कुछ आचार्य जैसे तिरुनारायणपुरम् के आयि जनन्याचार्य स्वामी ने इसके लिए व्याख्याएँ लिखीं। 

पासुरम् ५९ 

उन्चासवां पासुरम्। श्री वरवरमुनि स्वामी श्रीवचनभूषणम् के प्रति उनके स्नेह को अन्य आचार्य,‌ जो प्रसिद्धि में मामुनिगळ् के समान हैं, उनसे साझा करते हुए प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। 

सीर् वचन बूडणत्तिन् सॆम् पॊरुळैच् चिन्दै तन्नाल्
तेरिलुमाम् वाय्कॊण्डु सॆप्पिलुमाम् – आरिर्गाळ्
ऎन्दनक्कु नाळुम् इनिदाग निन्ऱदैय्यो
उन्दमक्कु ऎव्विन्बम् उळदाम्

हे आचार्य! इससे मुझे असीमित खुशी मिलती है, चाहे मैं श्रीवचनभूषणम् के प्रतिष्ठित अर्थों का चिंतन कर आनंद लूँ या मुख से इसका पठन करुँ। आपको किस‌ प्रकार के आनंद की अनुभूति होती है? आऴ्वारों ने भगवान का आनंद अतृप्त अमृत के रूप में लिया। आचार्यों ने आऴ्वार्‌ और उनके दिव्य प्रबंधों का आनंद अतृप्त अमृत के रूप में लिया। हालाँकि श्री वरवरमुनि स्वामी, केवल श्रीवचनभूषणम् का आनंद अतृप्त अमृत के रूप में लेते हैं।

अडियेन् दीपिका रामानुज दासी

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