तिरुवाय्मोऴि नूत्तन्दादि – सरल व्याख्या – पाशुरम् 51 – 60

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः‌ श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्री वानाचलमहामुनये नमः

श्रृंखला

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इक्यावनवें पाशुरम् – (वैगल्….) इस पाशुरम् में, श्रीवरवरमुनी स्वामीजी आऴ्वार् के उन पाशुरों का अनुसरण कर रहे हैं जिनमें सर्वेश्वर के विरह में पीड़ित होकर वे दूत भेजते हैं और इसे दयापूर्वक समझा रहे हैं।

वैगल् तिरुवण्वण्डूर् वैगुम् इरामनुक्कु ऎन्
सॆय्गतनैप् पुळ्ळैनङ्गाळ् सॆप्पुम् ऎनक् कैकऴिन्द
कादलुडन् तूदु विडुम् कारिमाऱन कऴले
मेदिनियीर् नीऱ् वणङ्गुमिन्

हे विश्व के निवासियों! आऴ्वार् जो कहते हैं कि “हे पक्षियों के झुण्ड! मेरी स्थिति का संदेश दशरथ चक्रवर्ती के पुत्र को पहुँचा दें, जो दयापूर्वक तिरुवण्वण्डूर् में हमेशा उपस्थित रहते हैं,” और बड़े प्यार से पक्षियों को दूत के रूप में भेज रहे हैं, ऐसे आऴ्वार् के दिव्य चरणों की पूजा कीजिए।

बावनवें पाशुरम् – (मिन्निडैयार्…) इस पाशुरम् में, श्रीवरवरमुनी स्वामीजी आऴ्वार् के स्नेह भरे क्रोध के पाशुरों का अनुसरण कर रहे हैं जहाँ भगवान को कठोर प्रयत्न से दूर भेजते हैं, और इसे दयापूर्वक समझा रहे हैं।

मिन्निडैयार् सेर कण्णन् मॆत्तॆन वन्दान ऎन्ऱु
तन्निलै पोय्प् पॆण्णिलैयाय्त् तान् तळ्ळि उन्नुडने
कुडेन ऎन्ऱूडुम् कुरुगैयर्कोन् ताळ् तोऴवे
नाडोऱुम नॆञ्जमे नल्गु

हे हृदय! आपको नम्माऴ्वार् के दिव्य चरणों का वंदन करने के लिए प्रतिदिन मेरा सहयोग करना चाहिए, जिन्होंने कृष्ण के प्रति स्नेह भरा क्रोध दिखाया और कहा कि “मैं आपके साथ एकजुट नहीं होऊँगा” और उन्हें दूर कर दिया और गौ चरवाने वाली गोपियों की तरह मनोदशा बनाते हुए अपनी स्थिति को छोड़ दिया क्योंकि, कृष्ण ने, जो बिजली की तरह पतली कमर वाली गोपियों से मिले, आने में देरी की ।

त्रेयानवां पाशुरम् – (नल्ल वलत्ताल्…) इस पाशुरम् में, श्रीवरवरमुनी स्वामीजी आऴ्वार् के पाशुरों का अनुसरण कर रहे हैं जिसमें आऴ्वार् बताते हैं एम्पेरुमान के पास विरुद्ध विभूति (विपरीत संपत्ति) है, और इसे दयापूर्वक समझा रहे हैं।

नल्ल वलत्ताल् नम्मैच् चेर्तोन् मुन् नण्णारै
वॆल्लुम् विरुत्त विभूदियन् ऎन्ऱु ऎलैयारथ
तानिरुन्दु वाऴ्त्तुम् तमिऴ् माऱन सॊल्वल्लार्
वानवर्क्कु वाय्त्त कुरवर्

कृष्ण, जो पुराने शत्रुओं पर विजय प्राप्त करनेवाले, हमारे स्नेह भरे क्रोध को समाप्त करनेवाले और हमें अपने साथ मिला लेनेवाले हैं, उनके पास प्रतिकूल धन है। आऴ्वार् अनंत रूप से बने रहे और ऐसे कृष्ण की स्तुति गाते हैं। जो लोग ऐसे आऴ्वार् के दिव्य वचनों का पाठ करते हैं जो तमिऴ् भाषा के राजा हैं, नित्यसूरियों के लिए उपयुक्त गुरु होंगे।

चौवनवें पाशुर् – (कुरवै मुदलाम्…) इस पाशुरम् में, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी कृष्ण की सभी दिव्य लीलाओं का आनंद लेते हैं और उसी के बारे में बोलने के आऴ्वार् के पाशुरों का पालन कर रहे हैं, और इसे दयापूर्वक समझा रहे हैं।

कुरवै मुदलाम् कण्णन् कोलच् चॆयल्गळ्
इरवु पगल् एण्णामल् ऎन्ऱुम् परवुमनम्
पॆट्रेन् ऎन्ऱे कळित्तुप् पेसुम् पराङ्गुसन् तन्
सॊट्रेनिल् नॆञ्जे तुवळ्

हे हृदय! आऴ्वार् के मधु भरे दिव्य शब्दों में मग्न रहो, जो अभिमान से कहते हैं कि उन्हें रात और दिन के बीच कोई अंतर देखे बिना, कृष्ण की दिव्य लीलाएँ जैसे रासक्रीड़ा आदि करने के लिए हमेशा प्रशंसा करने का मन मिला।

पचपनवां पाशुर् – (तुवळऱु सीर्…) इस पाशुरम में, श्रीवरवरमुनी स्वामीजी आऴ्वार् के भगवत विषयम (भगवान से संबंधित विषय) के प्रति महान प्रेम के पाशुरों का अनुसरण कर रहे हैं और इसे दयापूर्वक समझा रहे हैं।

तुवळऱु सीर् मल् तिऱत्तुत् तॊन्नलत्ताल् नाळुम्
तुवळऱु तन् सीलम् पऎल्लाम् सॊन्नान् तुवळऱवे
मुन्नम् अनुबवत्तिल् मूऴ्गि निन्ऱ माऱन अदिल्
मन्नुम् उवप्पाल् वंद माल्

आऴ्वार् आदी से ही बिना किसी दोष के भगवत विषय में डूबे हुए थे, उस महान प्रेम के कारण जो इस तरह के निश्चित अनुभव से प्राप्त आनंद के कारण हुआ था, उस भगवान के प्रति जो निर्दोष और शुभ गुणों से युक्त हैं। ऐसे आऴ्वार् ने दयापूर्वक ऐसे विषयों में वैराग्य न होने के अपने गुणों की व्याख्या की, जो प्रतिदिन ऐसे भगवान के प्रति स्वाभाविक भक्ति के कारण होता है।

छप्पनवाँ पासुरम् – (मालुडने…) इस पाशुरम में, श्रीवरवरमुनी स्वामीजी आऴ्वार् के पाशुरों का अनुसरण कर रहे हैं कि कैसे उन्होंने अपना सब कुछ खो दिया और इसे दयापूर्वक समझा रहे हैं।

मालुडने तान् कलंदु वाऴप् पॆऱामैयाल्
साल नैन्दु तन्नुडैमै तन् अडयक् कोलिए
तान् इगऴ वेण्डामल् तन्नै विडल् सॊल् माऱन्
ऊनम् अऱु सीर् नॆञ्जे उण्

हे हृदय! एम्पेरुमान के साथ रहने में असमर्थ होने के कारण, आऴ्वार् बहुत बलहीन हो गए और दयापूर्वक कहा “अपने आप को और अपनी संपत्ति को कठिन प्रयास कर छोड़ने के बजाय, वे सब मुझे स्वयं ही छोड़ दिया।” ऐसे आऴ्वार् के दोषरहित शुभ गुणों का आनंद लें।

सत्तावनवां पाशुर् – (उण्णुञ्जोरु…) इस पाशुरम में, श्रीवरवरमुनी स्वामीजी आऴ्वार् के तिरुक्कोळूर् की ओर प्रस्थान करने के पाशुरों का अनुसरण कर रहे हैं, और दयापूर्वक इसे समझा रहे हैं।

उण्णुम् सोरादि ऒरु मून्ऱुम् एम्पेरुमान्
कण्णन् ऎन्ऱे नीर्मल्गिक् कण्णिनैगल् मण्णुलगिल्
मन्नु तिरुक्कोळूरिल् मायन् पाल् पोम् माऱन्
पॊन्नडिये नन्दमक्कुप् पॊन्

दोनों आँखों में अश्रुधारा के साथ आऴ्वार् ने कहा कि तीनों प्रकार के पोषण जैसे कि चावल जो खाया जाता है आदि सभी एम्पेरुमान कृष्ण ही हैं, और सर्वेश्वरन की ओर गए जो दयालु रूप से तिरुक्कोळूर् में विराजमान हैं जो स्थान इस दुनिया में दृढ़ है। ऐसे आऴ्वार् के सुंदर दिव्य चरण ही हमारा एकमात्र धन है।

अट्ठावनवां पाशुर् – (पॊन्नुलगु…) इस पाशुरम् में, श्रीवरवरमुनी स्वामीजी आऴ्वार् के दुःख से बंधे होने के कारण संदेश भेजने के पाशुरम् का अनुसरण कर रहे हैं और इसे दयापूर्वक समझा रहे हैं।

पॊन्नुलगु भूमि ऎल्लाम् पुल्लिनङ्गट्के वऴङ्गि
ऎन्निडरै मालुक्कियम्बुमेन – मन्नु तिरु
नाडु मुदल् तूदु नल्गिविडुमाऱनैये
नीडुलगीर् पोय् वणङ्गुम् नीर्

नित्य विभूति और लीला विभूति को सभी पक्षियों के झुंड को देते हुए और यह कहते हुए कि “मेरी व्यथा एम्पेरुमान को सूचित करें”, आऴ्वार् ने स्वेच्छा से शाश्वत श्रीवैकुंठ जैसे स्थानों को संदेश भेजा। हे विराट जगत के वासियों! तुम जाकर ऐसे आऴ्वार् की ही पूजा करो।

उनसठवें पाशुर – (नीरागी….) इस पाशुरम् में, श्रीवरवरमुनि आऴ्वार् के पाशुरों का पालन करते हुए एम्पेरुमान को बुलाते हैं जो सुनने वालों को पिघला देगा और दयापूर्वक समझा रहे हैं।

नीरागिक् केट्टवर्गळ् नॆञ्जऴिय मालुक्कुम्
एरार् विसुम्बिल् इरुप्परिदा आराद
कादलुडन् कूप्पिट्ट करीमाऱन् सॊलै
ओदिडवे उय्युम् उलगु

आऴ्वार् के दिव्य शब्द, जहाँ उन्होंने अदम्य प्रेम से सर्वेश्वरन को पुकारते हुए कहा कि सुंदर परमपदम में न रहे, उन शब्दों को सुनने वालों के हृदय पिघल गए और नष्ट हो गए। जैसे-जैसे उन दिव्य वचनों का पाठ किया जाएगा, वैसे-वैसे संसार का उत्थान होगा।

साठवाँ पाशुरम् – (उलगुय्य…) इस पाशुरम् में, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी आऴ्वार् तिरुवेङ्कटमुडैयान् के दिव्य चरणों में आत्मसमर्पण करने के पाशुरों का अनुसरण कर रहे हैं और इसकी व्याख्या दयापूर्वक कर रहे हैं।

उलगुय्य माल् निन्ऱ उयर् वेङ्गडत्ते
अलर् मगळै मुन्निट्टु अवन् तन् मलरडिये
वन् सरणाय्च् चेर्न्द मगिऴ्माऱन् ताळिणैये
उन् सरणाय् नॆञ्जमे उळ्

सर्वेश्वरन दयालुता से दुनिया के उत्थान के लिए ऊंचे तिरुवेङ्कट पहाड़ी में विद्यमान हैं। नम्माऴ्वार् ने दृढ़ता से ऐसे सर्वेश्वर के दिव्य चरणकमलों का अनुसरण केवल पेरिय पिराट्टी के पुरुषकार के साथ किया। हे हृदय! ऐसे वकुलाभरण के दिव्य चरणों को ही अपना साधन समझें।

अडियेन् रोमेश चंदर रामानुज दासन

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