सप्त गाथा – पासुरम् ७

श्री: श्रीमते शठकोप नम: श्रीमते रामानुजाय नम: श्रीमद् वरवर मुनये नम:

शृंखला

<<सप्त गाथा – पासुरम् ६

परिचय

विळाञ्जोलैप् पिळ्ळै से पूछा गया, “आपने कई प्रकार से कहा कि जिन लोगों में अपने आचार्य के प्रति श्रद्धा की कमी है, वे बहुत नीचे गिर जाएंगे और उनके पास मुक्ति की कोई संभावना नहीं होगी। अब हमें बताएं कि क्या उन लोगों के लिए मुक्ति है जो अपने आचार्य के प्रति अत्यधिक श्रद्धा रखते हैं। वह दयालुतापूर्वक प्रबंधम् का समापन करते हुए कहते हैं कि जिन लोगों ने सत्य को देखा है, जैसा कि प्रमेय सारम् ९ में पुष्टि की गई है ” ताळिणैयै वैत्तै अवरै-नीदियाल् वन्दिप्पार्क्कु उण्डु इऴिया वान्” (उन लोगों के लिए जिनका शीर्ष आचार्य के दिव्य चरणों से सुशोभित है, और जो ऐसे आचार्य की उपासना करते हैं अत्यंत सम्मान, श्रीवैकुंठम् निश्चित रूप से प्राप्य है), जो शिष्य इस प्रकार रहता है उसके लिए मोक्ष निश्चित है।

पासुरम

तींङ्गेदुम् इल्लाद् देसिगन् तन् सिन्दैक्कुप्
पाङ्गाग नेरे  परिवुडैयोर ओङ्गारत् 
तेरिन् मेलेऱिच् चेऴुङ्गदिरिन् ऊडुपोय्च् 
चेरुवरे अन्दामन्दान्।।

शब्द से शब्दार्थ 

तींङ्गु एदुम इल्ला – अपने आचार्य आदि के प्रति श्रद्धा न रखने जैसे बुरे गुणों का न होना
देसिगन् तन् – अपने आचार्य के
सिन्दैक्कु- दिव्य हृदय के लिए
पाङ्गाग – अनुकूल
नेरे – सीधे (छोटे कैंकर्यों का प्रतिपादन)
परिवुडैयोर् – जिनके मन में प्रेम है।
ओंगारम  – प्रणवम
तेरिन् मेल् – रथ पर चढ़ना
सेऴुम् कदिरिन् ऊडु – सूर्य मंडलम (सौर आकाशगंगा) के माध्यम से
पोय् – अर्चिरादि गति (प्रकाश से आरम्भ होने वाला मार्ग) में यात्रा करना
अंदामम् – सुंदर श्रीवैकुंठम्
सेरुवर् – पहुँचेंगे और नित्य कैंकर्यम् (शाश्वत सेवा) करेंगे।

सरल व्याख्या

जो लोग  प्रत्यक्ष अपने आचार्य के प्रति निष्ठावान होते हैं, और जिनमें अपने आचार्य के प्रति श्रद्धा न रखने जैसे बुरे गुण नहीं हैं और जो आचार्य के दिव्य हृदय के अनुकूल रहते हैं, वे प्रणवम नामक रथ पर चढ़ेंगे, अर्चिरादि गति (प्रकाश से आरम्भ होने वाला मार्ग) में यात्रा करेंगे। सूर्य मंडलम के माध्यम से, सुंदर श्रीवैकुंठम तक पहुँचेंगे और नित्य कैंकर्य (शाश्वत सेवा) करेंगे।

व्याख्यानम् (टिप्पणी)

तींगु एदुम् इल्लात् तेसगन् तन् – जैसा कि ज्ञान सारम् २६ में कहा गया है ” तप्पिल् गुरु अरुळाल्” (निर्दोष आचार्य की कृपा से), उपदेश रत्तिनमालै ३ ताऴवादुमिल् कुरवर्” (आचार्य जिनमें कोई दोष नहीं है), ” कामक्रोध विवर्जितम् ”  (काम और क्रोध से मुक्त) और “ अनघम्”” (निर्दोष), व्यक्ति को दोषों से मुक्त होना चाहिए; उन्हें (निम्नलिखित परिणामों वाले) अपने आचार्य के प्रति निष्ठा की कमी नहीं होनी चाहिए, स्वयं के लिए प्रसिद्धि पाने का विचार करना, शिष्य को ज्ञान प्रदान करते समय बदले में अनुग्रह की आशा करना, श्रीवैष्णव को गाँव या कुल के आधार पर नीच मानना, अन्य साधन में व्यस्त होना, अन्य लाभों के प्रति रुचि रखना, ज्ञान और आचरण में कमी, आत्मगुणम् (उत्कृष्ट गुणों) में कमी; इन दोषों से मुक्त होना, जैसा कि ” तत् संप्राप्तौ प्रभवति ततादेसिक: ” (ऐसे आचार्य जो विष्णु के दिव्य चरणों तक पहुँचने में बहुत सक्षम हैं) और श्रीवरवरमुनि शतकम् १७ ” तत् संप्राप्तौ वरवरमुनिरदेशिक:” (श्री मणवाळ् मामुनिगळ् विष्णु के दिव्य चरणों तक पहुँचने में एक दूरदर्शी हैं जो सत्य है) में कहा गया है, स्वयं के विपरीत जो श्रीवैकुंठम में नया है, आचार्य शिष्य को श्रीवैकुंठम में ला सकते हैं, जैसे कि यह उनका प्राकृतिक निवास स्थान हो; ऐसे आचार्य के प्रति कोई प्रतिकूल विचार न रखना; अन्य साधनों में संलग्न होना आदि दोष नहीं होने चाहिए।

तिङ्गु एदुम् इल्लामै– अपने आचार्य के प्रति श्रद्धा के अभाव आदि जैसे दोष न होना। ऐसा नहीं है कि ये दोष एक बार थे और दूर हो गए; ऐसे दोषों का अभाव स्वतः स्पष्ट है।

देसिगन् तन्– आचार्य का महत्ता वह है जो स्वयं शिष्य को मोक्ष की ओर ले जाता है।

सिन्दैक्कुप् पाङ्गाग नेरे परिवु उडैयोर्– अपने आचार्य जो एक महान हितैषी हैं उनके दिव्य हृदय के प्रति अनुकूल होना  जैसा कि तद्यात् भक्तित आदरात् (ऐसे व्यक्ति के प्रति प्रेम और स्नेह के साथ) में कहा गया है, आचार्यस्य स्थिर प्रत्युपकारणदिया देवतस्यादुपास्य ” (साथ में आचार्य के उपकार  के बदले में दक्षिणा में दृढ़ बुद्धि), प्रत्यक्ष किंचित्कारम् (छोटी सेवाएँ) के रूप में, व्यक्ति को आचार्य के आनंददायक दिव्य रूप की सेवा करनी चाहिए और उनके प्रति असीम प्रेम रखना चाहिए जैसा कि उपदेश रत्तिनमालै ६५ में कहा गया है “तेसारुम् सिच्चन् अवन् सीर् वडिवै आसैयुडन् नोक्कुमवन् “ (महिमामय शिष्य को अपने आचार्य के दिव्य स्वरूप की प्रेमपूर्वक देखभाल करनी चाहिए)।

पाङ्गागा – ऐसा प्रतीत होता है कि शिष्य का वास्तविक स्वभाव यह होना चाहिए कि वही करना है जो उसके आचार्य को प्रिय हो क्योंकि जिस कार्य से आचार्य को क्रोध आए उसे छोड़ देना चाहिए।

नेरे – जिस प्रकार कोई अपने संध्यावंदन के लिए किसी की व्यवस्था नहीं कर सकता और एक राजा अपनी रानी का पसीना पोंछने के लिए किसी की व्यवस्था नहीं कर सकता, उसी प्रकार शिष्य द्वारा प्रदान की जाने वाली सेवाएँ किसी और को नहीं सौंपी जा सकती हैं।

परिवु उडैयोर् – जैसा कि “ यस्मात् तदुपादेष्टासौ तस्मात् गुरुतरोगुरु: ” में कहा गया है (तिरुमंत्रम् का निर्देश देने के कारण, वह सर्वोच्च गुरु हैं), “अर्चनीयश्च वन्द्यश्च कीर्तनीयश्च सर्वदा।ध्यायेज्जपेन्नमेत् भक्त्या भजेदपि अर्च्येत् सदा।। उपाय उपेय भावेन तमेवशरणम् व्रजेत्। इति सर्वेषु वेदेषु सर्व शास्त्रेषु सम्मप्तम्।। (आचार्य की पूजा, प्रार्थना और स्तुति की जानी चाहिए। इसलिए उनका ध्यान किया जाना चाहिए, उनके नामों का जप किया जाना चाहिए, उनकी प्रेमपूर्वक पूजा और सेवा की जानी चाहिए और उनकी पूजा की जानी चाहिए। उन्हें साधन और साध्य माना जाना चाहिए, यह सभी शास्त्रों में स्वीकार्य है) आदि, व्यक्ति को अपने आचार्य को सभी क्षमताओं के साथ, सभी प्रकार से और प्रत्येक समय सब कुछ मानना ​​चाहिए, और आचार्य के प्रति आस्था रखनी चाहिए और इसे शिष्य के ज्ञान के उद्देश्य के रूप में पहचाना जाना चाहिए जैसा कि स्तोत्र रत्नम् ५ में कहा गया  सर्वं यदेव ” (सब कुछ नम्माऴ्वार् के दिव्य चरण हैं)।

परिवु उडैयोर्- इसे प्राप्त करना कठिन है जैसा कि “निदि उडैयोर्” (जिसके पास धन है) में कहा गया है। लक्ष्य की प्राप्ति के लिए यही आवश्यक है जैसा कि श्रीभागवतम् ११.२.२९ में कहा गया है ” तत्रापि दर्लभम् मन्ये वैकुंठ प्रिय दर्शनम्” (भगवान के प्रति भक्ति रखने वाले को देखना और भी कठिन है)।

जब पूछा  कि “ऐसे व्यक्ति को क्या फल मिलता है जो आचार्य के प्रति प्रेम रखता है?”

ओङ्गारत् तेरिन् मेल् एरि……..विळाञ्जोलैप् पिळ्ळै कह रहे हैं कि श्रीवैकुंठम जैसे महान नगर के लिए उनकी पहुँच हाथ की दूरी जैसे है।

ओङ्गारत् तेरिन् मेल् एरि – ऐसे शिष्य जो अपने आचार्य के प्रति असीम निष्ठा रखते हैं, इस संसार में रहते हुए भी,

  • प्रतिष्ठित तरीके से जीवन व्यतीत करेंगे जैसा कि तिरुवाय्मोऴि ४.३.११ में कहा गया है ” वैयम् मन्नि विट्रिरुन्दु विण्णुम् आळ्वर् मण्णूडे ” (इस संसार में लंबे समय तक प्रतिष्ठित तरीके से रहेंगे और इस दुनिया और परमपद पर भी शासन करेंगे)
  • अपने प्राकृतिक स्वभाव के साथ जीएँगे।
  • परमपदम् की व्यवस्था कागज के छोटे टुकड़े पर लिखे संदेश मात्र से करना
  • उभय वेदांत कालक्षेपम् (तमिऴ् और संस्कृत वेदांत पर प्रवचन) जैसे धन में संलग्न होना
  • तदियाराधनम् (भक्तों की सेवा) ही संपत्ति है।
  • दिव्यदेशों में मंगलासन को ही संपत्ति के रुप में समझना जो एम्पेरुमान को बहुत प्रिय है
  • ऐसे दिव्यदेशों में कैंकर्य करने की संपत्ति होगी।
  • एम्पेरुमानार् (श्रीरामानुजाचार्य) की तरह लगभग 120 वर्षों तक इसी में रहेंगे।
  • इस शरीर के अंतिम समय के आसपास परमभक्ति (भक्ति की चरम अवस्था) प्राप्त करेंगे, जो व्यक्ति को चरम लक्ष्य तक बलपूर्वक पहुँचाती है
  • भक्तों की गोष्ठी में पहुँचने और उनमें से एक बनने की तीव्र इच्छा प्राप्त करेंगे जैसा कि तिरुवाय्मोऴि १०.९.११ में बताया गया है “अंदमिल् पेरिन्बत्तु अडियरोडु ” (परम आनन्द में डूबे भक्तों के साथ)
  • अंतर्यामी एम्पेरुमान (जिनका एक निवास स्थान हृदय है) से आशीर्वाद प्राप्त करेंगे, हृदय कमलम (हृदय का कमल) से आरम्भ कर, सुषुम्ना नामक मुख्य तंत्रिका के माध्यम से यात्रा करते हुए, खोपड़ी के शीर्ष भाग को तोड़कर, प्रणव के रथ पर चढ़ेंगे जो मन द्वारा संचालित होता है जैसा कि “ओङ्कार रथम् आरुह्य” में कहा गया है (ऐसे रथ पर चढ़ना जो प्रणवम के नाम से जाना जाता है)

सेऴुम् कदिरिन् ऊडु पोय्– तत्पश्चात जैसा कि “अर्चिश्मेवाभि सम्भवन्ति अर्चिशोह:,अन्ह आपूर्यमण पक्षम्,अपूर्यमाणपक्षात् शडुतङ्ग्मासान् मासेभ्यस्सम्वत्सरम्, सवायुम् आगच्छति ” (तत्पश्चात् टिप्पणी में समझाया गया है) में कहा गया है, पहले आत्मा अर्चि: (अग्नि लोक) तक पहुँचती है, फिर अहस, शुक्लपक्ष नियंत्रक, उत्तरायण नियंत्रक, संवत्सर नियंत्रक, और फिर वायु लोक तक जाता है। उनके सम्मानजनक स्वागत और मार्गदर्शन के साथ जैसा कि “स आदित्यम आगच्छति ” (वह सूर्य मंडलम में पहुँचा), ” प्रविश्य च सहस्राम्शुम ” (हजार किरणों वाले सूर्य मंडल में प्रवेश) और सिऱिय तिरुमडल् “तेरार् निरै कदिरोन् मण्डलत्तैक् कीण्डु पुक्कु” में कहा गया है (सूर्य की आकाशगंगा को विच्छेद करते हुए और उसमें प्रवेश करते हुए, जो उसके रथ को पूरी तरह से भर रही है), सूर्य की आकाशगंगा को विच्छेद करते हुए, जिसमें उसकी सघन किरणें हैं, उन तक पहुँचते हैं, उनके द्वारा स्वागत किए जाते हैं।

सेरुवरे अंदामंदान् -इसके बाद, जैसा कि छांदोग्य उपनिषद में कहा गया है “ आदित्यच्चंद्रमासम्, चंद्रमसो विद्युतम्, स वरुण लोक, स इंद्र लोक, स प्रजापति लोक, स अगाच्छति विराजम् नदीम्, तं पंचशथान्यनि अप्सरासां प्रतिधावन्ति तं ब्रह्मालंकारेण” (टिप्पणी में बाद में समझाया गया) – चंद्रलोकों तक पहुँचना, जिसमें अमृत है, अमानवन जो अतिवाहिकों (उच्च लोकों में ले जाने वाले) में एक हैं, वरुण जो प्रत्येक वस्तु को शक्तिशाली बनाता है, इंद्र जो तीनों लोकों का रक्षक है, प्रजापति जो सभी प्रकार से बहुत प्रशंसा करते हैं, उनके द्वारा दिए गए स्वागत को स्वीकार करते हैं और उनके लोकों को पार करते हैं, अण्ड के आकार के ब्रह्मांड को पार करते हैं जो ईश्वरन् के लिए क्रीड़ा स्थल है और साथ परतों से ढका हुआ, जहाँ प्रत्येक ऊपरी परत पिछली परत से क्रमिक रूप से दस गुणा बड़ी होती जाती है और मूल प्रकृति (आदि पदार्थ) जैसा तिरुवाय्मोऴि १०.१०.१० में कहा गया है “मुडिविल् पेरुम् पाऴ्” (विशाल, अंतहीन मूल प्रकृति); इस प्रकार से उस आनंदमय मार्ग पर यात्रा करना जो पहले के सभी कष्टों को तुरंत समाप्त कर देता है, जिस वेग से एम्पेरुमान् (भगवान) के दिव्य चरण जो कि उपाय हैं, शीघ्र लोक को नाप लते हैं; विरजा जो एक अमृत प्रवाहिनी नदी है उसमें अच्छी तरह से स्नान करना;उस संसार के वासना (चिह्न) के अवशेष प्रक्षालित होते हैं विराजा नदी में स्नान से, जिसे तिरुविरुत्तम् १०० में कहा गया है “वन्सेटृ अळ्ळलैयुम्” (एक सघन दलदल में दबने की तरह); सबसे पहले अमानव द्वारा स्पर्श होकर जो करुणामय शंक, चक्र और गदा के साथ उपस्थित होते हैं, लावण्य (पूर्ण सौंदर्य), सौंदर्य ( अंग प्रत्यंग का सौंदर्य) आदि मङ्गल गुणों से भरपूर एक दिव्य रूप धारण करना, जो शुद्ध सत्व से भरा होगा (शुद्ध गुणवत्ता), जिसका उपयोग भगवान को आनंदित करने के लिए किया जाता है, जैसा कि आर्त्ति प्रबन्धम् २४ ओळिक् कोण्ड सोदि  (चमकदार) और आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करना; भगवान के प्रति हमेशा अनुकूल रहने वाले नित्यसूरियों के पास जाना और उनका आनंद लेना, दिव्यदेशम् (परमपदम्) को देखना जिसमें धन, प्रकृति है जिसे ऐसे नित्यसूरी भी व्याख्यान नहीं कर पाते, नेत्रों की पूर्ण संतुष्टि के लिए, हथेली जोड़कर और उन्हें नमस्कार करना; अमानव के समीप बजने वाले संगीत वाद्ययंत्रों की ध्वनि सुनना; नित्यसूरियों और मुक्तात्माओं के हर्षित गोष्ठी के माध्यम से चलना, जो दौड़ रहे हैं, गिर रहे हैं, स्तुति कर रहे हैं, महिमा गान कर रहे हैं, फूलों की वर्षा कर रहे हैं, आसन बिछा रहे हैं, पैर धो रहे हैं और उनका आनंद लेना, उनके द्वारा स्वागत किया जाना और उनके द्वारा सजाया जाना; श्रीवैकुंठम् के महान नगर तक पहुँचना जो सभी प्रकार से वांछनीय है जैसा कि छांदोग्य उपनिषद में कहा गया है  सब्रह्मलोकमपि सम्पद्यते” (मुक्त आत्मा ब्रह्म लोक तक पहुँचती है) और तिरुवाय्मोऴि २.५.१ में “अन्दामम्  (अति सुन्दर परमपदम्), तिरुवाय्मोऴि ६.८.१ में “पोन्नुलगु  (स्वर्णिम धाम), और जो नए मुक्त आत्मा के आगमन पर खिल गया, ऐसा सुंदर श्रीवैकुंठनाथ का आनन्दधाम, जो उनके हाथ में राजदंड द्वारा संचालित होता है और जो विशेष रूप से उनके दिव्य चरणों में सभी प्रकार से सेवा करने के लिए उपस्थित है; वह वहाँ हमेशा के लिए पूर्णत: सराबोर हो जाएगा जैसा कि तिरुवाय्मोऴि ८.१०.५ में कहा गया है “सुऴि पट्टोडुम् सुडर्च चोदि वेल्लात्तु इन्बुट्रिरुन्दु ” (परमपदम में आनंदित होना जिसमें चक्करदार और निरन्तरतेज के पुञ्ज हैं) और श्री वैकुण्ठ गद्यम् में कहा गया है “अमृत सागरान्तर् निमग्न” (अमृत के सागर में निमग्न रहता हुआ)।

सेरुवरे – इस सिद्धांत पर संदेह करने की कोई आवश्यकता नहीं है। विळाञ्जोलैप् पिळ्ळै कह रहे हैं कि यह निश्चित है। “न संशयोस्ति ” में कहा गया है (इसमें कोई संदेह नहीं है)।

अन्दामम् तान् यह लीला विभूति पर नित्य विभूति की प्रधानता है।

इस प्रकार, इस पाशुर के साथ, श्रीवचन भूषणम् के चरम प्रकरण (अंतिम खंड) सूत्रम् ४३३ में “आचार्य संबंधं मोक्षत्तुक्के हेतुवाय् इरुक्कुम्” (आचार्य के साथ संबंध केवल मुक्ति के लिए है) आदि में बताए गए विशेष अर्थ को विळाञ्जोलैप् पिळ्ळै ने दयालुतापूर्वक प्रकट किया। 

निष्कर्ष

इस प्रकार, इस प्रबंधम् के द्वारा, विळाञ्जोलैप् पिळ्ळै ने दयापूर्वक निम्नलिखित तथ्यों को समझाया:

  1. आचार्य ही अर्थ पञ्चकम् का ज्ञान प्रदान करते हैं।
  2. जिन लोगों में ऐसे आचार्य के प्रति निष्ठा की कमी है, वे आत्म-विनाशकारी हैं
  3. यद्यपि उनके पास विशेष ज्ञान के होने पर भी वे अनंत काल तक बंधे रहेंगे
  4. ये लोग जिनमें ऐसे ज्ञान प्रदान करने के प्रति कृतज्ञता का अभाव है, बहुत क्रूर हैं
  5. स्वयं के लिए महानता की खोज करना आचार्य का दोष है
  6. स्वयं पेरिय पेरुमाळ् को करुणावश   ऐसे दोष के अंतर्निहित कारण को समाप्त करना चाहिए
  7. जिसका आचार्य के प्रति निष्ठा है, वह अर्चिरादि गति से यात्रा करेगा, परमपद तक पहुँचेगा, मोक्ष रूपी धन प्राप्त करेगा, कैंकर्य साम्राज्य (सेवा के राज्य) में मुकुट पहनाया जाएगा और शाश्वत रूप से वहीं रहेगा।

इसके साथ समापन हुआ।

आऴ्वार् तिरुवडिगळे शरणम्।

एम्पेरुमानार् तिरुवडिगळे शरणम्।

पिळ्ळै लोकाचार्यर् तिरुवडिगळे शरणम्।

विळाञ्जोलैप् पिळ्ळै तिरुवडिगळे शरणम्।

जीयर् तिरुवडिगळे शरणम्।

जीयर् तिरुवडिगळे शरणम् ।

पिळ्ळै लोकम् जीयर् तिरुवडिगळे शरणम् ।

अडियेन् अमिता रामानुजदासी 

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