उपदेश रत्तिनमालै – सरल व्याख्या – पासुर २३ – २४

।। श्री: श्रीमते शठकोपाय नम: श्रीमते रामानुजाय नम: श्रीमत् वरवरमुनये नमः ।।

उपदेश रत्तिनमालै

<<पासुर २१ – २२

पासुरम् २३

तेईसवां पासुरम्। वे अपने हृदय को बताते हैं कि तिरुवाडिप्पूरम् (आडि महीने का दिव्य नक्षत्र पूरम्) की क्या महानता है, जो आण्डाळ् के अवतार का दिन है और इसलिए अतुल्य है। 

पॆरियाऴ्वार् पॆण् पिळ्ळैयाय् आण्डाळ् पिऱन्द
तिरुवाडिप्पूरत्तिन् सीर्मै – ऒरु नाळैक्कु
उण्डो मनमे उणर्न्दु पार् आण्डाळुक्कु
उण्डाङ्गिल् ऒप्पु इदऱ्-कुम् उण्डु

हे हृदय! विश्लेषण करो और देखो कि ऐसा कोई दिन है जो तिरुवाडि पूरम् से मेल खाता हो, वह दिन जब आण्डाळ् ने पेरियाऴ्वार् की दिव्य पुत्री के रूप में अवतार लिया। इस दिन के लिए प्रतिद्वंद्वी तभी होगा जब आण्डाळ् नाच्चियार् के लिए प्रतिद्वंद्वी हो!

आण्डाळ् नाच्चियार् भूमि पिराट्टि की अवतार हैं। इस संसार के लोगों पर दया करते हुए उन्होंने भगवान के आनंद को त्यागकर इस संसार में अवतार लिया। दूसरी ओर, अन्य आऴ्वार् इस धरती पर सदैव रहे हैं। भगवान के निर्हेतुक कृपा के कारण, उन्होंने निर्दोष ज्ञान और भक्ति प्राप्त किया, और भगवान का पूरा आनंद लिया। किसी को भी आण्डाळ् का समक्ष स्वीकारा नहीं जा सकता, जिसने लोकहित के लिए अपने प्रतिष्ठित पद का त्याग किया। जब अतुल्यनीय आऴ्वार् आण्डाळ् के सादृश्य नहीं हैं, तो और कौन उनकी सादृश्य हो? इसलिए यह कहा जा सकता है कि आडि महीने के पूरम् नक्षत्र का कोई और संयोजन नहीं है। 

पासुरम् २४

चौबीसवां पासुरम्। वे कृपापूर्वक अपने हृदय से आण्डाळ् का उत्सव मनाने के लिए कहते हैं, जो अन्य आऴ्वारों से महान है। 

अञ्जु कुडिक्कॊरु संददियाय् आऴ्वार्गळ्
तम् सॆयलै विञ्जि निऱ्-कुम् तन्मैयळाय् – पिञ्जाय्
पऴुत्ताळै आण्डाळै पत्तियुडन् नाळुम्
वऴुत्ताय् मनमे मगिऴ्न्दु

आऴ्वार् वंश की एकमात्र उत्तराधिकारी के रूप में आण्डाळ् का अवतार हुआ। “अञ्जु” शब्द का अर्थ पाँच अंक और‌ भयभीत होने की अवस्था,‌ दोनों हैं। जिस प्रकार परीक्षित पंच पांडवों (पाँच पांडवों) के एकमात्र उत्तराधिकारी थे, उसी प्रकार आण्डाळ् दस आऴ्वारों के वंश की एकमात्र उत्तराधिकारी है – यह एक अर्थ है। दूसरा अर्थ यह है – जो निरंतर डरते रहते हैं कि भगवान का क्या अहित होगा उन आऴ्वारों की वह एकमात्र उत्तराधिकारी है। पेरियाऴ्वार् ने पूरी तरह मंगळाशासन् (भगवान के हित की कामना) किया। अन्य आऴ्वार् “परम भक्ति अवस्था” ( भगवान के संयुक्त होने पर ही जीवित रहना) में थे। आण्डाळ् ने पेरियाऴ्वार् के जैसे भगवान का मंगळाशासन् भी किया और अन्य आऴ्वारों के जैसे अपनी भक्ति में प्रतिष्ठित रहीं। “पिंञ्जाय् पऴुत्ताळय्” का अर्थ – साधारण रूप में एक पौधे में फूल आता है, उसके बाद कच्चा फल और अंत में पक्का फल। आण्डाळ् तुलसी के पौधे के जैसे थी, जो मिट्टी में उगते ही सुगंध देती है, इस प्रकार वह प्रारंभ में ही पक्का हुआ फल थी। दूसरे शब्दों में, बहुत कम आयु में ही उनको भगवान के प्रति अत्यधिक भक्ति थी। वह पाँच वर्ष की आयु की थी जब उसने “तिरुप्पावै” की रचना की। “नाच्चियार् तिरुमोऴि” की रचना करते हुए वह भगवान को प्राप्त करने में कुम्हला गई और द्रवित हो उठी। ऐसी आण्डाळ् का सदैव उत्सव मनाओ।

अडियेन् दीपिका रामानुज दासी

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