सप्त कादै – पासुरम् १ – भाग ४

श्री: श्रीमते शठकोप नम: श्रीमते रामानुजाय नम: श्रीमद् वरवर मुनये नम:

शृंखला

<<सप्त कादै – पासुरम् १ – भाग ३

जिस प्रकार से आचार्य इन नौ प्रकार संबंधों का निर्देश देते हैं जैसे कि तिरुवाय्मोऴि २.३.२ में वर्णित है “अऱियाधन अऱिवित्त” (ऐसे अनुभवों को बताया गया है जिसके बारे में प्रत्येक नहीं जानते), यह चेतना स्पष्ट रूप से समझती है और उसके पास ये लभते हैं –

  • अपने स्वरुप की वास्तविक अनुभूति जैसे पेरिय तिरुमोऴि ८.९.३ में कहा गया है “कण्णपुरम् ओन्ऱुडैयानुक्कु अडियेन् ओरुवरुक्कु उरियेनो” (क्या मैं, जो तिरुक्कण्णपुरम् के स्वामी का दास हूँ, किसी अन्य का दास हो सकता हूँ?)
  • स्वयं की सुरक्षा करने में अयोग्यता जैसे कि तिरुवाय्मोऴि ५.८.३ में कहा गया है “एन् नान् सेय्गेन् यारे कळैगण्” [मुझे ऐसा कौन सा उद्यम करना चाहिए (स्वयं की रक्षा के लिए)! कौन अन्य रक्षक है!] और 
  • जिस लक्ष्य को प्राप्त करना है उसमें दृढ़ संकल्प जैसे तिरुवाय्मोऴि ५.८.३ “उन्नाल् अल्लाल् यावरालुम् ओन्ऱुम् कुऱै वेण्डेन्” (मैं आपके अतिरिक्त किसी और से अपनी इच्छाओं को पूर्ण करने के लिए प्रार्थना नहीं करुँगा) में कहा गया है 
  • अपने उद्देश्य तक पहुँचने की तत्परता जैसे कि तिरुवाय्मोऴि ९.३.७ “माग वैगुन्दम् काण्बदर्कु एन् मनम् एगम् एन्नुम्” (मेरा हृदय एकाग्र चित्त होकर रात और दिन में किसी भेद को न जानकर केवल श्री वैकुंठ को देखने के लिए अभिलषित है)
  • बाधाओं से भयभीत होना जैसे कि पेरिय तिरुमोऴि ११.८.३ “पाम्बोडु ओरु कूरैयिले पेयिन्ऱाप् पोल्” (जैसे कि एक ही छत के नीचे सर्प के साथ रहना) में कहा है 
  • जो हमारे इष्ट हैं उनके प्रति सम्मान जैसे कि तिरुवाय्मोऴि ८.१०.३ में कहा गया है “अवन् अडियार् सिऱु मा मनिसराय् एन्नै आण्डार् इङ्गे तिरिय” (यद्यपि भगवान वामन के दास मनुष्य रूप में होने के कारण आकार में छोटे दिखते हैं, वे महनीय हैं, जिन्होंने मुझे दास बनाया,‌ और इसी लोक में प्रत्यक्ष भी हैं)
  • जो परोपकारी हैं उनके प्रति कृतज्ञता जैसे कि तिरुवाय्मोऴि १०.३.१० में कहा गया है “पेरियार्क्कु आट्पट्टक्काल् पेऱाद पयन् पेऱुमाऱु” (उन फलों को प्राप्त करना जो पाने में कठिन‌ हैं और वही फल जो एक व्यक्ति से सुलभता से पाए जाते हैं जब वह एक महान व्यक्ति का दास बनता है) 
  • उनके प्रति पूर्ण समर्पण जो हमें परमपदम् पहुँचाते हैं, जैसे कि तिरुवाय्मोऴि १०.१०.३ में कहा गया है “आविक्कु ओर् पटृक् कोम्बु निन्नलाल् अऱिगिन्ऱिलेन्” (मैं आपके अतिरिक्त किसी और सहायक स्तम्भ को नहीं जानता जो मेरी आत्मा के लिए श्रेष्ठ धाम हो)
  • संबंध का ज्ञान जो यह ज्ञात कराता है कि भगवान स्वाभाविक स्वामी हैं और जीव स्वयं स्वाभाविक दास है।
  • संबंध के बारे में व्याप्त  ज्ञान जो यह अनुभूति कराता है कि भगवान प्राकृतिक आत्मा है और स्वयं उनका प्राकृतिक देह है।
  • संबंध के वास्तविक स्वरूप के बारे में ज्ञान जिससे हमें यह अनुभूति होती है कि भगवान प्राकृतिक आध्यात्मिक (गुणों के धाम) हैं और स्वयं ही उनका प्राकृतिक धर्म (गुणवत्ता) है।
  • संबंध के वास्तविक स्वरूप के बारे में गहन ज्ञान जिससे यह अनुभव होता है कि यहाँ कोई (स्वतन्त्र) आत्मा नहीं है और केवल भगवान के समीप होने के कारण ही उपस्थिति है।
  • दासता में कर्तापन का निर्वहन होना, और इसलिए सांसारिक सुख में भयभीत होना और कैंकर्य न करने पर दुःखी होना, और दासता के कारण आध्यात्मिक आचरण का त्याग न करना।
  • ज्ञानी होने में कर्तापन का निर्वहन, ज्ञानी होने पर अहंकार न करना जैसा कि यह सोचना “क्या मेरे ज्ञानी होने के कारण नहीं है कि उसने मुझे स्वीकार किया?” जब कोई निषिद्ध तथ्यों को छोड़कर निर्धारित तथ्यों का अनुसरण करता है।
  • क्रियाओं और नियन्त्रण में कर्तापन का निर्वहन, अहंकारयुक्त विचारों का न होना “क्या यह मेरे द्वारा निषिद्ध तथ्यों के परित्याग और निर्धारित कर्मों का पालन करने के लिए नहीं है कि उसने मुझे स्वीकार किया है?”
  • भोग में कर्तापन का निर्वहन, जैसे कि, कोई जब उनकी सेवा करते हुए यह सोचने के अतिरिक्त कि, यह आत्म भोग के लिए है, यह सोचना कि स्वंय, भगवान का एक पाद, भगवान का दास है जो उस पाद के स्वामी हैं।

अन्दरङ्ग सम्बन्धम् काट्टि – यह संबंध कृत्रिम नहीं है जैसे कि कहा गया है “प्राप्तम् लक्ष्मीपतेर्दास्यम् शाश्वतम् परमात्मन:” (श्रीमहालक्ष्मी के स्वामी के प्रति दासता प्राप्त करनी है), हारीत स्मृति “दासभूत: स्वत: सर्वे हि आत्मान: परमात्मन:। नान्यता लक्षणम् तेषाम् बन्दे मोक्षे तथैव च।।” (सभी आत्माएँ स्वाभाविकता से परमात्मा के दास हैं। संसार की तरह ही मोक्ष में कोई और परिभाषा नहीं है) और आर्ति प्रबंधम ४५ “नारायणन् तिरुमाल् नारम् नाम् एन्नुम् मुऱै आरायिल्  नेञ्जे अनादि अन्ऱो” (नारायण ही दिव्य श्री महालक्ष्मी के पति हैं और हम शाश्वत आत्माएँ हैं, जब इस संबंध का विश्लेषण करते हैं, तो यह शाश्वत है); इसलिए विळाञ्जोलैप् पिळ्ळै कह रहे हैं “काट्टी” (दिखाया गया)। हम वह दिखा सकते हैं जो पहले से विद्यमान है और दूसरों से देखा गया है। जबकि पहले इस संबंध को आचार्य द्वारा प्रस्तुत नहीं किया गया, आत्मा लंबे समय तक एक देहात्माभिमानी (शरीर को अपना मानना) बना रहा जैसे तिरुवाय्मोऴि २.९.९ में कहा गया है “याने एन्नै अऱियागिलादे याने एन्ऱनदे एन्ऱिरुन्देन्” (स्वयं से संबंधित तथ्यों में मेरा सच्चा ज्ञान न होने के कारण मैंने स्वयं को छोड़कर सब कुछ अपनी संपत्ति की तरह ही माना), अनगिनत बार जन्म लिए, अन्य देवताओं की स्तुति की और नृत्य किया, मार्ग के विषय से किम्कर्तव्यविमूढ़ हो गए, जैसे तैत्तिरीय उपनिषद् में कहा गया है कि शाश्वत रूप से बंधी हुई आत्मा को पूर्ण रूप से नष्ट किया जा रहा है “असन्नेव” [अचित (तत्व) के समान] और तिरुवाय्मोऴि ५.७.३ “पोरुळ् अल्लाद” (मैं आत्मा कहे जाने के योग्य नहीं था) में कहा गया है; नम: में यहाँ दो शब्द न और म, जो स्वयं की स्वतंत्रता को प्रकट करते हैं जैसे कि “मकारेणस् स्वतन्त्रस्यात्” में कहा गया है; इन सबपर विचार करते हुए विळाञ्जोलैप् पिळ्ळै कृपापूर्वक कहते हैं “अन्दरङ्ग सम्बन्धम् काट्टि” ।

अगले भाग में जारी रहेगा……

अडियेन् अमिता रामानुज दासी 

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