तिरुप्पावै – सरल व्याख्या – पाशुर २१-३०

।।श्रीः श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमत् वरवरमुनये नमः।।

तिरुप्पावै

<< पाशुर १६ – २०

इस पाशुर से देवी यह अनुभव करवा रही है कि , भगवान् कृष्ण के प्रेम में मग्नता के, आनंद का अनुभव प्राप्त करने, नप्पिन्नै  पिराट्टी भी देवी के व्रतनुष्ठान में सम्मिलित हो जाती है ।

इक्कीसवाँ पाशुर :

इस पाशुर में देवी नन्द गोप के यहाँ, गोप कुल में भगवान् कृष्ण के जन्म का उत्सव मना रही है ।

वेदों के माध्यम से उनकी सर्वोच्चता और उनकी गुणवत्ता को महसूस कर रही है ।

एऱ्ऱ कलन्गळ् एदिर् पोन्गि मीदळिप्प
  माऱ्ऱादे पाल् सोरियुम् वळ्ळल् पेरुम् पसुक्कळ्
आऱ्ऱप् पडैत्तान् मगने अऱिवुऱाय्
  ऊऱ्ऱम् उडैयाय् पेरियाय् उलगिनिल्
तोऱ्ऱमाय् निन्ऱ सुडरे तुयिल् एळाय्
  माऱ्ऱार् उनक्कु वलि तोलैन्दु उन् वासल् कण्
आऱ्ऱादु वन्दु उन् अडि पणियुमा पोले
  पोऱ्ऱि याम् वन्दोम् पुगळ्न्दु एलोर् एम्बावाय्

उदार प्रवर्ति वाली, सदा लगातार दूध देने में सक्षम, जिससे दुग्ध के भंडारण के लिये रखे , सभी बर्तन दूध से भर भर कर बह जाता है, ऐसी गायें के अपार समूह के धनि, नन्द गोप के सूत अपनी गहरी दिव्य निद्रा से जागो ।

हे ! सर्वोच्च प्रामाणिक वेदों में वर्णित अपार शक्तियों के धनि । 

हे! ,वह जो महान है !  

हे , वह जो वैभवशाली है,

हे! वह जो इस दुनिया में सबके सामने खड़े है ।  

उठो ,  हम सब आपका गुणानुवाद करते, आपके द्वार पहुँच गये हैं  ।

वैसे ही जैसे आपके शत्रु परास्त होने के बाद, और कोई सहारा न देख , आपके दिव्य चरणों की शरण में आ जाते है ।

बावीसवाँ पाशुर:

इस पाशुर में आण्डाळ्  भगवान् से कहती है की, मझे और मेरी सखियों को आपके सिवाय और कोई सहारा नहीं है ।

हम आपके सामने विभीषण की तरह ही आयी हैं, जो शरणागत होकर रामजी के पास आया था ।

वह यह भी कहती है की, वह सब सारी इच्छायें का त्याग कर सिर्फ तुमको (कृष्ण) को पाने की ही इच्छा  रखते हैं ।

अन्गण् मा ग्यालत्तु अरसर् अभिमान
  बन्घमाय् वन्दु निन् पळ्ळिक् कट्टिल् कीळे
सन्गम् इरुप्पार् पोल् वन्दु तलैप्पेय्दोम्
  किण्किणि वाय्च् चेय्द तामरैप् पूप् पोले
सेम् कण् सिऱुच् चिऱिदे एम् मेल् विळियावो
  तिन्गळुम् आदित्तियनुम् एळुन्दाऱ् पोल्
अम् कण् इरण्डुम् कोण्डु एन्गळ् मेल् नोक्कुदियेल्
  एन्गळ् मेल् साबम् इळिन्दु एलोर् एम्बावाय्

हम सुन्दर और विशाल वसुधा के भूभाग पर शासन करने वाले राजाओं की तरह अपना अभिमान त्याग कर आपके छत्र के निचे एकत्र हुये है ।

क्या आप हम पर कृपा कटाक्ष नहीं डालोगे ?  आपके मुख कमल की चमक. झिलमिलाते आभूषणों की तरह है, अर्ध- खिले कमल के फूल के समान  हैं |

हे ! कमलनयन अपने सूर्य और चंद्र जैसे नेत्रों से हमें देखभर लोगे, तो हमारे सारे दुःख दूर हो जायेंगे ।

तेवीसवाँ पाशुर:`

इस पाशुर में भगवान् कृष्ण, देवी आण्डाळ्  के इतने दिनों के व्रत को देख, उन्हें इतने दिनों तक इंतज़ार करवाने के बाद पूछ रहे है, क्या इच्छायें है?

आण्डाळ कहती है आप अपनी शैया से उठिये, राजदरबार में, राजसी शान से सिंहासन पर विराजमान हो सभी दरबारियों के सम्मुख मेरी इच्छा पूछिये ।

मारि मलै मुळैन्जिल् मन्निक् किडन्दु उऱन्गुम्
  सीरिय सिन्गम् अऱिवुऱ्ऱुत् ती विळित्तु
वेरि मयिर् पोन्ग एप्पाडुम् पेर्न्दु उदऱि
  मूरि निमिर्न्दु मुळन्गिप् पुऱप्पट्टु
प्Oदरुमा पोले नी पूवैप् पूवण्णा
  उन् कोयिल् निन्ऱु इन्गने पोन्दु अरुळिक् कोप्पु उडैय
सीरिय सिन्गासनत्तु इरुन्दु याम् वन्द
  कारियम् आराय्न्दु अरुळ् एलोर् एम्बावाय्

वह, जिनका रंगरूप नील लोहित रंग सा है, वह, जो वर्षा काल में अपनी गुफा में सो रहे सिंह की मानिंद,  जागने पर, अपनी पैनी आँखों से चहुँ  ओर देखते हुये, अपने शरीर को ऐसे फैलाता है की, उसकी सुगन्धित अयाल चहुँ  ओर फ़ैल जाती है , जो 

दहाड़ते हुये, अपनी शाही चाल से बहार आता है, आप उसी तरह अपनी निद्रा त्याग, बाहर  आपके महल के इस स्थान तक आइये , अपने प्रतिष्ठित सिंहासन पर बिराज, हम पर कृपा बरसाते हुये हमें हमारे यहाँ आने का उद्देश्य पूछिये ।

चौबीसवाँ पाशुर:

पेरिया आळ्वार की पालित पुत्री है, इस परिवार का ध्येय ही सदा भगवान का मंगलाशासन रहा है ।

भगवान को सिंह सी चाल से चलते हुये अपने सिंहासन पीठ पर विराजमान देख, देवी और उनकी सखियों ने भगवान का  मंगलाशासन किया ।

यहाँ देवी, सीता पिराट्टी, दंडकारण्य के ऋषि मुनि, पेरिया आळ्वार की तरह आत्मग्लानि  भी महसूस करती है कि  , भगवान् के इतने सुकोमल पाँव है, हमारे कारण उन्हें चलकर आना पड़ा ।

अन्ऱु इव्वुलगम् अळन्दाय् अडि पोऱ्ऱि
  सेन्ऱु अन्गुत् तेन्निलन्गै सेऱ्ऱाय् तिऱल् पोऱ्ऱि
पोन्ऱच् चगडम् उदैत्ताय् पुगळ् पोऱ्ऱि
  कन्ऱु कुणिला एऱिन्दाय् कळल् पोऱ्ऱि
कुन्ऱु कुडैया एडुत्ताय् गुणम् पोऱ्ऱि
  वेन्ऱु पगै केडुक्कुम् निन् कैयिल् वेल् पोऱ्ऱि
एन्ऱु एन्ऱु उन् सेवगमे एत्तिप् पऱै कोळ्वान्
  इन्ऱु याम् वन्दोम् इरन्गु एलोर् एम्बावाय्

इस पाशुर के द्रविड़ शब्द पोऱ्ऱि (पोररी) का अर्थ “चिरायु हो” होता है, जो मंगलाशासन में कहते है ।

हे! बहुत पहले देवों के लिये अपने चरणों से तीनों लोकों  को नापने वाले, आप चिरायु हो ।

हे! रावण की स्वर्ण लंका में जाकर उसे नष्ट करने वाले, आपका बल सदा बना रहे ।

हे! शकटासुर को लात मारकर मारने वाले .आपका यश सदा बना रहे । 

हे!  धेनुकासुर को उठाकर जंगली बासों में फेंक उसे और जंगल में रहने वाले राक्षस का संहार करने वाले , आपके  चरण सदा  चिरायु  हो । 

हे ! गिरी गोवेर्धन को छत्र की तरह धारण करने वाले, आपमें  शुभ गुण सदा विराजमान रहे ।

हे !  उस चक्रराज का भी मंगल हो, जो आपके हाथ में शोभित है, जो आपके दुश्मनो का नाश करता है ।

देवी  ने कहा हम यहाँ आपके वीरत्व सौम्यत्व करुणा का गुणानुवाद और मंगलाशासन करने आयी हैं , हम पर कृपा करते हुये, आपके कैंकर्य में रत रहने की शक्ति हमें प्रदान करिये ।

पच्चीसवां पाशुर:

इस पाशुर में भगवान् पूछते हैं  क्या उन्हें व्रत के लिये कोई वस्तु चाहिये?  वह कहती है आपके मंगलाशासन करने से उनके सारे दुःख कष्ट दूर हो गये, बस सिर्फ कैंकर्य की इच्छा बाकि है ।

ओरुत्ति मगनाय्प् पिऱन्दु ओर् इरविल्
  ओरुत्ति मगनाय् ओळित्तु वळरत्
तरिक्किलानागित् तान् तीन्गु निनैन्द
  करुत्तैप् पिळैप्पित्तुक् कन्जन् वयिऱ्ऱिल्
नेरुप्पेन्न निन्ऱ नेडुमाले उन्नै
  अरुत्तित्तु वन्दोम् पऱै तरुदि आगिल्
तिरुत्तक्क सेल्वमुम् सेवगमुम् याम् पाडि
  वरुत्तमुम् तीर्न्दु मगिळ्न्दु एलोर् एम्बावाय्

घनघोर अँधेरी रात में देवकी के यहाँ अवतार लेकर, यशोदा के पुत्र बन पलते रहे, पर कंस यह बर्दाश्त न कर ,अपनी दुर्बुद्धि लगाकर आपको मारने के कई यत्न किये । आप उसकी पेट की अग्नि बन, उसके विचार और उसको ही नष्ट कर दिये । हम यहाँ आपके पास अपनी इच्छित वस्तु प्राप्त करने आयी हैं  ।

आप हमारी  प्रार्थना सुन उसे पूर्ण करोगे तब हम आपके लिये, ऐसा मंगलाशासन करेंगी कि , पिराट्टी भी उसे पसंद करेंगी, हम भी आपसे बिछडाव के दुःख से दूर हो जायेंगी ।

छब्बीसवाँ पाशुर :

पहले पाशुर में भगवान् के पूछने पर कुछ नहीं होना कहती है, पर इस पाशुर में देवी उन सभी वस्तुओं की मांग करती है, जो उन्हें उनके व्रत में चाहिये थी ।

जैसे भगवान की सेवा में रत पाञ्चजन्य जैसा शंख, जिससे मंगलाशासन का नाद कर सके ।

एक दीपक जिससे भगवान का मुख निहार सके ।

एक ध्वजा जो भगवान की उपस्तिथिति निश्चित करता है ।

एक छत्र जिससे भगवान को धुप, हवा पानी में, इसकी ओट में रह सके ।

हमारे पूर्वाचार्यों ने इन पाशुरों का अनुभव करते कहते है की, देवी ने कृष्णानुभव करने इन सब चीजों की मांग रखी थी ।

माले मणिवण्णा मार्गळि नीर् आडुवान्
  मेलैयार् सेय्वनगळ् वेण्डुवन केट्टियेल्
ग्यालत्तै एल्लाम् नडुन्ग मुरल्वन
  पाल् अन्न वण्णत्तु उन् पान्चसन्नियमे
पोल्वन सन्गन्गळ् पोय्प्पाडु उडैयनवे
  सालप् पेरुम् पऱैये पल्लाण्डु इसैप्पारे
कोल विळक्के कोडिये विदानमे
  आलिन् इलैयाय् अरुळ् एलोर् एम्बावाय्

हे ! भक्तों के प्रति स्नेह रखने वाले ।

हे ! नील रत्न के समान रंगवाले ।

हे ! प्रलयकाल में वटपत्र पर वटपत्रशायि बन शयन करने वाले ।

अगर आप पूछ रहे है, हमें मार्गशीर्ष माह में व्रत के लिये क्या क्या चाहिये , तो हमें पूर्वजो ने जैसे किये वैसे ही हम करना चाहती है ।

हमें वैसे ही दूधिया श्वेत पाञ्चजन्य जैसे, नाद करनेवाले शंख चाहिये, जिसके नाद से संसार कम्पित हो जाये ।  हमें ऐसे बजाने वाले यन्त्र चाहिये जो बड़े और विशाल हो ।

हमें ऐसे परिकर चाहिये जो तिरुप्पल्लाण्डु गाये ।

हमें दीपक, ध्वजा और छत्र चाहिये ।

सत्ताइसवें और अट्ठाईसवें पाशुर में देवी यह प्रमाणित करती है की, स्वयं एम्पेरुमान (भगवान) ही एक मात्र उपेय और उपाय है । भगवद कैंकर्य कर उन्हें प्राप्त करना ही एक मात्र लक्ष्य है ।

सत्ताईसवाँ पाशुर :

आण्डाळ्  इस पाशुर में  एम्पेरुमान (भगवान) के, अनुकूल और प्रतिकूल दोनों ही प्रकार के जीवों को अपनी ओर आकर्षित करने के विशिष्ट गुण बतलाती है ।

कहती है की परम पुरुषार्थ सायुज्य मोक्ष (बिना बिछुड़े सदा भगवान की नित्य सनिद्धि में, उनके कैंकर्य में रहना) की प्राप्ति है ।

कूडारै वेल्लुम् सीर्क् गोविन्दा उन्दन्नैप्
  पाडिप् पऱै कोण्डु याम् पेऱु सम्मानम्
नाडु पुगळुम् परिसिनाल् नन्ऱाग
  सूडगमे तोळ् वळैये तोडे सेविप्पूवे
पाडगमे एन्ऱु अनैय पल् कलनुम् याम् अणिवोम्
  आडै उडुप्पोम् अदन् पिन्ने पाल् सोऱु
मूड नेय् पेउदु मुळन्गै वळिवार
  कूडि इरुन्दु कुळिर्न्दु एलोर् एम्बावाय्

हे गोविन्द ! न मानने वालों के भी मन को जीत  लेने का आपका यह गुण, आपके ऐसे गुणों के गुणानुवाद से हमें सम्मान मिलता है ।

आपके कैंकर्य से हमें भांति भांति के आभूषण धारण को मिलते है, जैसे कंगन, बाजूबन्द, कुण्डल, कान में ऊपर की तरफ पहना जाने वाला आभूषण , पायल और भी अन्य, जो नप्पिन्नै  पिराट्टी और आप हमें प्रसादित करते है ।

हम सब आप द्वारा प्रसादित वस्त्र धारण कर, हम सभी घी से तर अक्कारवड़ीसल (एक मीठा अन्न जो चांवल, दूध, गुड़ और घी के मिश्रण से बनता है) पायेंगे, जिसे पाते समय घी, हथेलियों से निकल कोहनियों से बहा रहा होता है ।

अट्ठाईसवाँ पाशुर:

इस पाशुर में देवी आण्डाळ् अकारणकरुणावरुणालय का जीवात्मा से सम्बन्ध समझा रही है ।

देवी का अन्य उपाय से परे होकर, भगवान् की वृन्दावन की गायों की तरह बिना किसी द्वेष के, सब के उत्त्थान के गुण बतला रही है ।

कऱवैगळ् पिन् सेन्ऱु कानम् सेर्न्दु उण्बोम्
  अऱिवु ओन्ऱुम् इल्लाद आय्क्कुलत्तु उन्दन्नैप्
पिऱवि पेऱुन्दनैप् पुण्णियम् याम् उडैयोम्
  कुऱै ओन्ऱुम् इल्लाद गोविन्दा उन् तन्नोडु
उऱव्Eल् नमक्कु इन्गु ओळिक्क ओळियादु
  अऱियाद पिळ्ळगळोम् अन्बिनाल् उन्दन्नैच्
चिऱु पेर् अळैत्तनवुम् सीऱि अरुळादे
  इऱैवा नी ताराय् पऱै एलोर् एम्बावाय्

हे सर्व मंगलकारी गोविन्द ! हम गायों के पीछे पीछे वन में जायेंगे,वहाँ उन्हें चराकर, संग संग भोजन पायेंगे ।

हे! भगवान, इस ज्ञान  हीन् गो-कुल में आपका जन्म हमारा सौभाग्य है ।

हमारा आपसे जो रिश्ता है, उसे न तो तुम तोड़ सकते है और न हम।

हमसे नाराज़ मत होना क्योंकि, हमने अपने स्नेह के वश आपको तुच्छ नामों से पुकारा है।

जो हम चाहते हैं हमें प्रसादित कर, हमें अनुग्रहित करें।  

उन्तीसवाँ पाशुर:

इस पाशुर में देवी यह कहती है की कैंकर्य वह अपनी ख़ुशी के लिये नहीं बल्कि एम्पेरुमान की ख़ुशी के लिये करना चाहती है।

बतलाती है, कृष्णानुभव की तीव्र इच्छा के चलते ही, बहाने से  इस व्रत को धारण किया है।

सिऱ्ऱम् सिऱु काले वन्दु उन्नैच् चेवित्तु उन्
  पोऱ्ऱामरै अडिये पोऱ्ऱुम् पोरुळ् केळाय्
पेऱ्ऱम् मेय्त्तु उण्णुम् कुलत्तिल् पिऱन्दु नी
  कुऱ्ऱेवल् एन्गळैक् कोळ्ळामल् पोगादु
इऱ्ऱैप् पऱै कोळ्वान् अन्ऱु काण् गोविन्दा
  एऱ्ऱैक्कुम् एळेळ् पिऱविक्कुम् उन्दन्नोडु
उऱ्ऱोमे आवोम् उनक्के नाम् आट् सेय्वोम्
  मऱ्ऱै नम् कामन्गळ् माऱ्ऱु एलोर् एम्बावाय्

हे गोविन्द ! आप सुनिये, हम सब प्रातः ही, यहाँ आकर आपके वांछनीय स्वर्ण कमल जैसे दिव्य चरणों को नमन कर मंगलाशासन करती हैं । 

गो-कुल में जन्म लेने वाले हे गोविन्द, हमारी गायों को चराकर प्रसाद पाते हो आपको हमारी सेवायें प्राप्त करनी चाहिये।

हम यहाँ वाद्य यंत्र, और ढोल लेने नहीं आयी हैं । 

चाहे कोई भी  जन्म रहा हो, आपका हमारा अनादिकाल से सम्बन्ध है।

हम सिर्फ आपका ही कैंकर्य चाहती  हैं ।

आप यह कदापि न सोंचे, यह सब कुछ हमारी ख़ुशी के लिये कर रही  हैं । 

आप हम पर ऐसी कृपा करें, यह  कैंकर्य केवल आपको प्रसन्न करने के लिये ही है।

तीसवाँ पाशुर:

भगवान के इच्छापूर्ति का वचन देने के बाद, देवी गोदा गोकुल की गोपिका का भाव छोड़  स्वयं के लिये यह पाशुर गाती है।

यहाँ देवी आण्डाळ्  कहती है कि जो कोई भी इन पाशुरों का गायन, भाव या अ-भाव में भी करेगा वह, गोदा की तरह भगवान का कैंकर्य प्राप्त करेगा, बिलकुल उसी तरह जैसे गोप बालिकाएं वृन्दावन में कृष्ण के साथ रहती थी।

देवी आण्डाळ् ने श्रीविल्लिपुत्तूर को ही गोकुल/वृन्दावन मान गोपिका भाव से रह रही थी।

पराशर भट्टर (कुरेश स्वामीजी, भगवत रामानुज स्वामीजी के प्रमुख शिष्य के पुत्र)  ने कहा जैसे गाय भूसा भरे अपने मृत बछड़े को देख कर भी दूध दे देती है, वैसे ही यह तीस पाशुर भगवान् को अति प्रिय है इस कारण इन्हे गाने वाले को वही फल प्राप्त होगा जो फल भगवान के प्रिय जनों   को मिलता है। 

देवी आण्डाळ् प्रबंध को समुद्र मंथन की एक घटना का जिक्र करते हुये संपन्न करती है।

ग्वाल बालिकाओं ने भगवान को प्राप्त करना चाहा, भगवत प्राप्ति के लिये पिराट्टी का पुरुषकार अनिवार्य है। भगवान ने समुद्र मंथन, माता महालक्ष्मीजी को समुद्र से बाहर लाकर उन्हें वरने के लिये किये थे।

इस तरह इस घटना को कहते हुये देवी आण्डाळ् अपना प्रबंध सम्पूर्ण करती है।

देवी आण्डाळ् आचार्याभिमान को जतलाते स्वयं को भट्टरपिरान् की पुत्री कह बतलाती है।

वन्गक् कडल् कडैन्द मादवनै केसवनै
  तिन्गळ् तिरु मुगत्तुच् चेळियार् सेन्ऱिऱैन्जि
अन्गप् पऱै कोण्ड आऱ्ऱै अणि पुदुवैप्
  पैन्गमलत् तण् तेरियल् भट्टर्पिरान् कोदै सोन्न
सन्गत् तमिळ्मालै मुप्पदुम् तप्पामे 
  इन्गु इप्परिसु उरैप्पार् ईरिरण्डु माल् वरैत् तोळ्
सेन्गण् तिरुमुगत्तुच् चेल्वत् तिरुमालाल्
  एन्गुम् तिरुवरुळ् पेऱ्ऱु इन्बुऱुवर् एम्बावाय्

सागर मंथन करवाने वाले भगवान् केशवन (एम्पेरुमान) जो इस ब्रह्माण्ड की सर्वोच्च शक्ति है।

चंद्रमुखी सी ग्वालबालायें, विशिष्ट आभूषण धारण कर उन भगवान की पूजा कर , उसका फल  गोकुल में पाती है।

देवी आण्डाळ्,  पेरियाळ्वार की पुत्री, जिनके पास कमल पुष्पों की माला है। श्रीविल्लिपुत्तूर में अवतरित हो, कृपा करते हुये भगवान कृष्ण का अनुभव प्राप्त करती गोपबालिकाओं की कथा कही है।

इन पाशुरों को संगोष्ठियों में, इस तरह गायन से उन भगवान् जिनके विशाल पर्वतों की तरह दिव्य कंधे हैं, लालिमा लिये दिव्य नेत्रों वाला एक दिव्य चेहरा है (आँखों की लालिमा भक्तों के प्रति स्नेह को दर्शाती हैं)  ऐसे लोग हर जगह आनंदित रहेंगे।

अडियेन श्याम सुन्दर रामानुज दास

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