तिरुप्पळ्ळियेळुच्चि- सरल व्यख्या

श्रीः  श्रीमते शठःकोपाय  नमः   श्रीमते रामानुजाय  नमः   श्रीमत् वरवरमुनये नमः

मुदलायिरम्

श्री मणवाळ मामुनिगळ् अपनी उपदेश रत्नमालै के ११ वे पाशुर में तोण्डरडिप्पोडि आळ्वार् (भक्तांघ्रिरेणू आळ्वार्) के बारे मैं बहुत ही सुन्दर ढंग से बतला रहे है

“मन्निय सीर् मार्गळियिल् केटै इन्ऱु मानिलत्तीर्

एन्निदन्क्कु एट्रम् एनिल् उरैक्केन् – तुन्नु पुगळ्

मामऱैयोन् तोण्डरडिप्पोडि आळ्वार् पिऱप्पाल्

नान्मऱैयोर् कोण्डाडुम् नाळ् ।“

इस पाशुर में श्री मणवाळ मामुनिगळ् कह रहे है “हे इस जगत के लोगों सुनो मै तुम्हे इस मार्गळि मास, जो वैष्णव मास की महत्ता रखता है, उसका महत्व बतलाता हूँ। यह दिन सम्प्रदाय विद्वानों, वेदों के ज्ञाता जैसे एम्पेरुमानार (भगवत रामानुज स्वामीजी), के द्वारा तोण्डरडिप्पोडि आळ्वार् (भक्तांघ्रिरेणू आळ्वार्) के, प्राकट्य दिवस के रूप में मनाते आ रहे है।  तोण्डरडिप्पोडि आळ्वार्, जो सारे वेदों के ज्ञाता थे, और उन्ही के मनन में मग्न रहते थे।  तोण्डरडिप्पोडि आळ्वार् ख़ास तौर से, स्वयं को श्रीमन्नारायण के भक्तों का दास मानते थे।

श्री अळगिय मणवाळप् पेरुमाळ् नायनार् (हमारे पूर्वाचार्यों में एक) ने अपनी रचना आचार्य हृदयम की ८५ वि चूर्णिका (छोटे छंद) में कह रहे है की, नित्य प्रातः भगवान् श्रीमन्नारायण को सुन्दर सुप्रभातम गाकर उनको योग निद्रा (योग निद्रा उसे कहते जहाँ शरीर सुप्तावस्था में रहता है, पर अपने आस पास घटित सारी बातों का ध्यान रहता है याने मन बुद्धि से जाग्रत अवस्था) से जगाने वाले तोण्डरडिप्पोडि आळ्वार् (भक्तांघ्रिरेणू आळ्वार्) को  तुळसीभ्रुत्यर् (भगवान् श्रीमन्नारायण की तुलसी सेवा में रूचि रखने वाले) नाम से भी जानते है।

यह बात तोण्डरडिप्पोडि आळ्वार् अपने तिरुमलै प्रबन्धम् में अपने लिये स्वयं कह रहे है,  “तुळबत्तोण्डाय तोल् सीर्त् तोण्डराडिप्पोडि एन्नुम् अडियनै” (वह सेवक जो तुलसी से श्रीमन्नारायण की सेवा का निर्वहन करते है)। तिरुप्पळ्ळियेळुच्चि भगवान श्रीमन्नारायण को प्रातः योगनिद्रा से जगाने का महानतम प्रबन्ध है। 

यहाँ पूर्वाचार्यों के व्याख्यानों से उद्घृत, तिरुप्पळ्ळियेळुच्चि का सरल भाषा में अर्थानुसंघान प्रस्तुत है।

तनियन्

(तिरुमालै आण्डान्  द्वारा रचित तनियन्।)

तमेव मत्वा परवासुदेवम्

रन्गेसयम् राजवदर्हणीयम्

प्राबोधिकीम् योक्रुत सूक्तिमालाम्

 भक्तांघ्रिरेणू म् भगवन्तमीडे।।

में तोण्डरडिप्पोडि आळ्वार् की स्तुति करता हूँ, जिन्होंने ऐसे पेरिया पेरुमाळ (श्रीरंगम में विराजित भगवान् श्रीरंगनाथजी का श्रीविग्रह), जो आदिशेष पर शयन कर रहे है, जो श्रीवैकुण्ठ में परवासुदेव कहलाते है, जिन्हे यह चराचर जगत, राजा की तरह पूजता है,  उन्हें योग निद्रा से जगाने इतनी सुन्दर प्रबन्ध माला समर्पित किये है।

(तिरुवरन्गप् पेरुमाळ् अरयर् द्वारा रचित तनियन्।)

मण्डन्गुडि एन्बर् मामऱैयोर् मन्निय सीर्

तोण्डरडिप्पोडि तोन्नगरन् – वण्डु

तिणर्त्त वयल् तेन्नरन्गत्तम्मानै पळ्ळि

उणर्त्तुम् पिरान् उदित्त ऊर्।।

विद्वान् लोग जो  वेदों के ज्ञाता है, कह रहे है तिरुमण्डन्गुडि वह मंगल स्थान है जहाँ तोण्डरडिप्पोडि आळ्वार् प्रकट हुये है। आळ्वार् ने तिरुवरंगम में जो चहुँ और खेतो से घिरा हुआ है और जहाँ भृंगों के झुंड रहते है, में शेषशैया पर शयन कर रहे पेरिया पेरुमाळ को प्रातः जगाकर हम पर बहुत उपकार किया है।

*****

प्रथम पाशुर :

अपने प्रथम पाशुर में ही आळवार संत कृपा करके बतला रहे है की, सभी लोकों के देवी देवता भगवान् पेरिय पेरुमाळ को जगाने श्रीरंगम आते है। इससे यह स्पष्ट होता है की, सिर्फ भगवान् श्रीमन्नारायण ही सबके पूजनीय है। अन्य सभी लोकों के देवी देवता भी इनकी पूजा करते है।

कदिरवन् गुणदिसैच् चिगरम् वन्दणैन्दान्

    कन इरुळ् अगन्ऱदु कालै अम् पोळुदाय्

मदु विरिन्दु ओळुगिन मामलर् एल्लाम्

    वानवर् अरसर्गळ् वन्दु वन्दु ईन्डि

एदिर् दिसै निऱैन्दनर् इवरोडुम् पुगुन्द

    इरुन्गळिट्रु ईट्टमुम् पिडियोडु मुरसुम्

अदिर्दलिल् अलै कडल् पोन्ऱु उळदु एन्गुम्

    अरन्गत्तम्मा पळ्ळि एळुन्दरुळाये।।

तिरुवरंगम में शेष शैया पर शयन करने वाले, हे नाथ ! पूर्व दिशा में रात्रि के अन्धकार को दूर करते हुये पर्वत चोटियों से सूर्यदेव प्रकट हो, दिन के आगमन की सुचना दे  रहे है। प्रातः पल्लवित पुष्पों से मधु पात हो रहा है। सभी लोकों  के देवी देवता, राजा महाराजा, स्वयं को प्रथम आया हुआ बतलाते हुये, आपकी प्रातः उठते ही एक झलक दर्शन पाकर धन्य होने, आपके दक्षिण द्वार पर इकट्ठे हुये है। उनके साथ ही हाथी और हथिनी जो उनके वाहन है, वह भी आये हुये है। आपकी निद्रा से उठते ही एक झलक  पाने, उनके साथ विविध प्रकार के वाद्य लिये  वाद्यकार उन्हें  उत्साह से बजा रहे है, इन वाद्यों की ध्वनि समुद्र की उत्ताल लहरों की ध्वनि की तरह चहुँ और गुंजायमान हो रही है।

द्वितीय पाशुरम :

अपने द्वितीय पाशुर में आळ्वार संत कह रहे है पूर्व दिशा से ठंडी बयार रही है, जो हंसो को जगा कर भोर होने का अहसास दिला रही है। आपका भागवतों के प्रति अति स्नेह प्रेम है, इस लिये आपको भी योगनिद्रा से जाग जाना चाहिये।

कोळुन्गोडि मुल्लैयिन् कोळुमलर् अणवि

    कूर्न्ददु गुणदिसै मारुदम् इदुवो

एळुन्दन मलर् अणैप् पळ्ळि कोळ् अन्नम्

    ईन्पणि ननैन्द तम् इरुम् सिऱगु उदऱि

विळुन्गिय मुदलैयिन् पिलम्बुरै पेळ्वाय्

    वेळ्ळुयिर् उऱ अदन् विडत्तिनुक्कु अनुन्गि

अळुन्गिय आनैयिन् अरुम् तुयर् केडुत्त

    अरन्गत्तम्मा पळ्ळि एळुन्दरुळाये।।

पूर्वी दिशाओं  से उठती  ठंडी हवायेँ, अभी पल्लवित हुये चमेली के फूलों की बेल को छू कर बह रही है, इन फूलो की बैल पर सो रहे हंस भी इस मदमस्त बयार की सुगंध से अपने पंखो को हिलाते जाग गये है, बरसात की बूंदों की तरह ओस की बुँदे उनके पंखो से झर रही है

तिरुवरंगम में शयन करने वाले हे नाथ ! आपने, ग्राह द्वारा अपने नुकीले दातों से गजराज का पैर पकड़कर  अथाह जल राशि में ले जाकर अपने विशाल गुफा जैसे मुँह से निगलने की चेष्टा करने वाले ग्राह को मार कर गजराज की रक्षा की, अब आप को अपनी योगनिद्रा त्याग कर हम पर कृपा बरसाना चाहिये।

तीसरा पाशुर :

इस तीसरे पाशुर  में आळ्वार संत कह रहे है भगवान् भुवन भास्कर अपनी किरणों से तारो के प्रकाश की भव्यता को ढक दिये है। संत कह रहे है, वह भगवान् श्रीमन्नारायण के चक्र धारण किये हुये, हस्त की पूजा आराधना करना चाहते है।

सुडर् ओळि परन्दन सूळ् दिसै एल्लाम्

    तुन्निय तारगै मिन्नोळि सुरुन्गिप्

पडर् ओळि पसुत्तनन् पनि मदि इवनो

    पायिरुळ् अगन्ऱदु पैम् पोळिल् कमुगिन्

मडल् इडैक् कीऱि वण् पाळैगळ् नाऱ

    वैगऱै कूर्न्ददु मारुदम् इदुवो

अडल् ओळि तिगळ् तरु तिगिरि अम् तडक्कै

    अरन्गत्तम्मा पळ्ळि एळुन्दरुळाये।।

भगवान सूर्य की किरणे, चहुँ और फ़ैल गयी है। टिमटिमाते तारों का प्रकाश भी सूर्य की किरणों के उजियारे में छुप गया है । शीतल चन्द्रमा की रौशनी भी फीकी पड़ गयी, सुपारी के वृक्षों को स्पर्श कर आती ठंडी हवा वातावरण में मधुर सुवास फैला रही है। अपने हाथों में सुदर्शन चक्र धारण करने वाले, हे तिरुवरंगम में शयन करने वाले, अब जागिये अपने भक्तो पर अपनी करुणा बरसाइये।

चतुर्थ पाशुर :

इस चतुर्थ पाशुर  में आळ्वार संत भगवान् से कह रहे है की, उन्हें , प्रातः जल्दी उठकर, उनकी आराधना में आड़े रहे शत्रुओं  का विनाश करना चाहिये, ठीक उसी तरह जैसे उन्होंने रामावतार के समय किया था।

मेट्टु इळ मेदिगळ् तळै विडुम् आयर्गळ्

     वेय्न्गुळल् ओसैयुम्  विडै मनिक् कुरलुम्

ईट्टिय  इसै दिसै परन्दन वयलुळ्

     इरिन्दिन सुरुम्बिनम् इलन्गैयर् कुलत्तै

वाट्टिय वरिसिलै वानवर् एऱे

    मामुनि वेळ्वियैक् कात्तु अवबिरदम्

आट्टिय अडु तिऱल् अयोद्दि एम् अरसे

    अरन्गत्तम्मा पळ्ळि एळुन्दरुळाये।।

अपने पशुओं को चराने गये चरवाहों के बांसुरी की धुन की आवाज़ रही है, चरते हुए पशुओं के गले में बंधे गलपट्टी की घंटियों के बजने  की आवाज़ भी चहूँ और सुनायी दे रही है। भृंगी भी हरी घांस देख गिनगीना रहे है। अपने  सारंग धनुष से,  शत्रुओं का नाश करने वाले,  हे श्री राम ! आपका सत्व महान है, आप  दैत्यों का संहार कर विश्वामित्र जी के यज्ञ को सफल बनाकर, अवभृथ स्नान कर, शत्रुओं का नाश करने वाली, अयोध्या के राजा बने । 

हे तिरुवरंगम में योगनिद्रा में लीन, हे रंगनाथ! आपको भी प्रातः उठकर हम दास लोगों पर कृपा बरसानी चाहिये।

पंचम पाशुर :

पंचम पाशुर में आळ्वार संत कहते है सभी लोकों से देवता लोग पुष्प लेकर आपकी पूजा करने पधारे है। आप, आपके भक्त भागवतों में किसी प्रकार का भेद नहीं रखते है, इसीलिये आपको उठकर सभी की सेवाएं स्वीकार करनी चाहिये।

पुलम्बिन पुट्कळुम् पूम् पोळिल्गळिन् वाय्

   पोयिट्रुक् कन्गुल् पुगुन्ददु पुलरि

कलन्ददु गुणदिसैक् कनैकडल् अरवम्

  कळि वण्डु मिळट्रिय कलम्बगम् पुनैन्द

अलन्गल् अम् तोडैयल् कोण्डु अडियिणै पणिवान्

  अमरर्गळ् पुगुन्दनर् आदलिल् अम्मा

इलन्गैयर् कोन् वळिपाडु सेय् कोयिल्

  एम्पेरुमान् पळ्ळी एळुन्दरुळाये।।

नव खिले हुए फूलों से भरे उद्यान में पक्षी ख़ुशी से कलरव कर रहे है। भोर हो चुकी, रात्रि चली गयी है । पूर्व दिशा से समुद्र के लहरों की गर्जना चहूँ और सुनाई दे रही है। सभी लोकों के देवता लोग, फूलों के हार लिये खड़े है, भँवरे उन फूलों से मधु पान करने उनपर मंडरा रहे है। 

हे !  लंकापति विभीषण के आराध्य, तिरुवरंगम में शेष पर शयन कर रहे हे भगवान आप उठिये और हम पर अनुग्रह कीजिये। 

छटवां पाशुर :  

इस पाशुर में आळ्वार संत कह रहे है, सुब्रमण्यम (कार्तिकेय जी)  जो आपके द्वारा देवताओं की सेना में शासन के लिये ,देवताओं की सेना के सेनापति  नियुक्त हुये है, आये है साथ ही अन्य देवता भी अपनी अपनी अर्धांगिनियों के साथ अपने अपने वाहनों में अपने अपने अनुगामियों के साथ आपकी पूजा कर अपने अपने मनोरथ सिद्ध करने आये है। आप अपनी दिव्य निद्रा त्याग कर उन सब पर अपनी करुणा बरसाइये।

इरवियर् मणि नेडुम् तेरोडुम् इवरो

  इऱैयवर् पदिनोरु विडैयरुम् इवरो

मरुविय मयिलिनन् अऱुमुगन् इवनो

  मरुदरुम् वसुक्कळुम् वन्दु वन्दु ईन्डि

पुरवियोडु आडलुम् पाडलुम् तेरुम्

  कुमरदण्डम् पुगुन्दु ईण्डिय वेळ्ळम्

अरुवरै अनैय निन् कोयिल् मुन्  इवरो।।

  अरन्गत्तम्मा पळ्ळि एळुन्दरुळाये

द्वादश आदित्य अपने रथों में सवार हो आये है, ११ रूद्र जो इस धरा पर शासन करते है वह भी आये है, षण्मुख सुब्रमण्यम (कार्तिकेय जी) भी, अपने मयूर वाहन पर आये है। अन्य लोकों के देवताओं के आलावा,  उनचास मरुतगण, अष्ट वसु (यह भी अन्य देवताओं में आते है)  भी आये है। आपके प्रथम  दर्शन पाने, कतार में प्रथम खड़े रहने यह आपस में लड़ रहे है।  सभी देवता आपकी नज़रों में आने, आपका ध्यान आकर्षित करने , अपने अपने रथो और अश्वों पर बैठे गा रहे है और नाच रहे है। सभी देवता और देव सेना के सेनापति षण्मुगम भी, विशाल पर्वत की तरह दीखते तिरुवरंगम के द्वार पर एकत्रित हुये  है।  तिरुवरंगम में दिव्य निद्रा में शयन कर रहे, हे भगवान् ! आपको उठकर इन सब पर कृपा करनी चाहिये।

सप्तम पाशुर :

सप्तम पाशुर, इस पाशुर में आळ्वार संत कह रहे है, सभी लोकों के देवताओं के साथ, देवताओं  के राजा इंद्र और सप्त ऋषि आकाश मार्ग में अंतरिक्ष में , खड़े हो आपका गुणगान कर रहे है। आपको उठकर उन्हें दर्शन देना चाहिये।

अन्दरत्तु अमरर्गळ् कूट्टन्गळ् इवैयो

  अरुन्दव मुनिवरुम् मरुदरुम् इवरो

इन्दिरन् आनैयुम् तानुम् वन्दु इवनो

  एम्पेरुमान् उन कोयिलिन् वासल्

सुन्दरर् नेरुक्क विच्चादरर् नूक्क

  इयक्करुम् मयन्गिनर् तिरुवडि तोळुवान्

अन्दरम् पार् इडम् इल्लै मट्रु इदुवो

  अरन्गत्तम्मा पळ्ळि एळुन्दरुळाये।।

हे नाथ! इंद्र अपने ऐरावत पर विराजे आपके दिव्य मंदिर के द्वार पर खड़े है स्वर्ग के देवता अपने गणो के साथ आये हुये है। ऋषि महानुभाव और सनकादिक ऋषि , मरुतगण और उनके अनुयायी, यक्ष, गन्धर्व सभी  विद्यावाचस्पति गण (अन्य समूह के देवता)  सभी आकर आकाश मार्ग में खड़े है।  सभी आपकी चरण वंदना करने, एक दूसरे से धक्का मुक्की कर रहे है, सभी व्यामोह में है।  हे तिरुवरंगम ! में शयन करने वाले नाथ, उठिये और हम सब पर कृपा करिये।

अष्टम पाशुर :

इस अष्टम पाशुर में आळ्वार संत कह रहे है , आपकी आराधना के लिये यह भोर का समय सबसे उचित है , सारे ऋषि प्रवर, जिन्हे आपकी आराधना के अलावा और कोई दूसरी इच्छा नहीं है। आपकी पूजा आराधना के लिये, समग्र सामग्री लेकर आपके द्वार खड़े है (कृपा निधानअपनी दिव्य निद्रा से जागिये और हम सब पर कृपा कीजिये।

वम्बविळ् वानवर् वायुऱै वळन्ग

  मानिदि कपिलै ओण् कण्णाडि मुदला

एम्पेरुमान् पडिमैक्कलम् काण्डऱ्कु

  एऱ्पन आयिन कोण्डु नन् मुनिवर्

तुम्बुरु नारदर् पुगुन्दनर् इवरो

  तोन्ऱिनन् इरवियुम् तुलन्गु ओळि परप्पि

अम्बर तलत्तिनिन्ऱु अगल्गिन्ऱदु इरुळ् पोय्

  अरन्गत्तम्मा पळ्ळि एळुन्दरुळाये।।

हे नाथ, हे भगवान् प्रख्यात ऋषि तुम्बुरु और नारदजी, स्वर्ग में वासित दिव्यात्मा, कामधेनु भी आपके श्रृंगार के लिये दिव्य पत्र, दिव्य सामग्री और निहारने के लिये दर्पण लेकर, तिरुवरंगम में आपकी तिरुआरधना के लिये आये है अँधेरा दूर हो गया है, सूर्य की किरणे चहूँ और अपना प्रकाश फैला रही है हे तिरुवरंगम ! में शेष शैया पर शयन कर रहे भगवान, आप जागिये हम पर कृपा बरसाइये

नवम पाशुर :

नवम पाशुर, में आळ्वार संत कह रहे है, स्वर्ग के प्रख्यात वाद्य वादक और नर्तकियां भी आपकी सेवा में उपस्थित है, एम्पेरुमान आप उठकर उनकी सेवा स्वीकार कीजिये।

एदमिल् तण्णुमै एक्कम् मत्तळि

  याळ् कुळल् मुळवमोडु  इसै दिसै केळुमि

गीदन्गळ् पाडिनर् किन्नरर् गेरुडर्गळ्

  गेन्दरुवर् अवर् कन्गुलुळ् एल्लाम्

मादवर् वानवर् सारणर् इयक्कर्

  सित्तरुम् मयन्गिनर् तिरुवडि तोळुवान्

आदलिल् अवर्क्कु नाळोलक्कम् अरुळ

  अरन्गत्तम्मा पळ्ळि एळुन्दरुळाये।।

स्वर्ग लोक के किन्नर, गरुड़, गन्धर्व सभी अपने अपने विविध वाद्य बजा रहे है, जैसे एक्कम (एक तार वाला वाद्य), मत्ताली , वीणा बांसुरी आदि वाद्य की तरंगे और धुन चहूँ और गूँज रही है।  इनमे से कुछ सारी रात बजते रहे है, कुछ वाद्य अभी भोर में बजना शुरू हुये है । विख्यात ऋषियों के साथ दिव्य लोकों के देव, चारण, यक्ष , सिद्ध और अन्य सभी आपकी चरण वन्दना करने आये है।  तिरुवरंगम में अपनी दिव्य योग निद्रा में सोये,  हे नाथ ! जागिये, उन पर कृपा बरसाते हुये अपनी सभा में उन्हें स्थान प्रदान कीजिये।

दशम पाशुर :

दशम पाशुर , इस पाशुर में आळ्वार संत एम्पेरुमान से सभी पर कृपा बरसाने की प्रार्थना कर रहे है, साथ ही खुद पर भी कृपा बरसाने की वनती करते हुये कहते है की,  वह पेरिया पेरुमाळ के  सिवाय  किसी और को नहीं जानते।

कडि मलर्क् कमलन्गळ् मलर्न्दन इवैयो

  कदिरवन् कनै कडल् मुळैत्तनन् इवनो

तुडि इडैयार् सुरि कुळल् पिळिन्दु उदऱित्

  तुगिल् उडुत्तु Eऱिनर् सूळ् पुनल् अरन्गा

तोडै ओत्त तुळवमुम् कूडैयुम् पोलिन्दु

  तोन्ऱिय तोळ् तोण्डराडिप्पोडि एन्नुम्

अडियनै अळियन् एन्ऱु अरुळि उन् अडियार्क्कु

  आट्पडुत्ताय् पळ्ळि एळुन्दरुळाये।।

दिव्य कावेरी के मध्य दिव्य योग निद्रा में शयन करे रहे, हे! रंगनाथ, समुद्र उत्ताल लहरों से उगते हुये सूर्य की प्रकाश किरणों का स्पर्श  पाकर कावेरी में कमल पुष्प खिल रहे है। नाज़ुक कमरवाली कन्यायें कावेरी में स्नान कर अपने बाल सुखाकर, शुभ्र स्वच्छ वस्त्र पहन कर कावेरी के घाट पर गयी है। 

(हे नाथ !) इस  सेवक तोण्डरडिप्पोडि की तुलसी माला के सेवा स्वीकार कीजिये । इस सेवक को आपके भक्तों की, सेवा भी प्रदान कीजिये। इस सेवा को स्वीकार करने आपको उठकर हम पर आपकी कृपा बरसानी होगी।

अडियेन श्याम सुन्दर रामानुज दास

आधार: http://divyaprabandham.koyil.org/index.php/2020/05/thiruppalliyezhuchchi-simple/

archived in http://divyaprabandham.koyil.org

प्रमेय (लक्ष्य) – http://koyil.org
प्रमाण (शास्त्र) – http://granthams.koyil.org
प्रमाता (आचार्य) – http://acharyas.koyil.org
श्रीवैष्णव शिक्षा/बालकों का पोर्टल – http://pillai.koyil.org

Leave a Comment