। । श्रीः श्रीमते शठःकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमत् वरवरमुनये नमः । ।
नम्माळ्वार् और् मधुरकवि आळ्वार्
श्री मणवाळ मामुनिगळ् अपनी उपदेश रत्न मालै के २६ वे पाशुर में “कण्णिनुण् चिऱुत्ताम्बु” का महत्त्व बतला रहे है ।
वाय्त्त तिरुमन्दिरत्तिन् मद्दिममाम् पदम्पोल्
सीर्त्त मदुरकवि सेय् कलैयै – आर्त्त पुगळ्।
आरियर्गळ् तान्गळ् अरुळिच् चेयल् नडुवे
सेर्वित्तार् ताऱ्परियम् तेर्न्दु । ।
हमारे श्रीसम्प्रदाय का तिरुमंत्र (अष्टाक्षर) मंत्र, अपने आप में सम्पूर्णता लिये हुये है।
चाहे वह शब्द हो या अथवा अर्थ, जैसे तिरुमंत्र (अष्टाक्षर) का मध्य नाम ” नमः” महत्व रखता है, ऐसे ही मधुरकवि आळ्वार द्वारा रचित “कण्णिनुण् चिऱुत्ताम्बु” महत्वपूर्ण अद्भुत दिव्य प्रबंधों में अपना महत्व रखता है।
आळ्वार संत द्वारा रचित इन पाशुरों के अर्थ को जानकर हमारे श्रद्धेय पूर्वाचर्यों ने इन पाशुरों को दिव्य प्रबंध पाठ में स्लंगित कर दिया, जिससे दिव्य प्रबंध पारायण में इनका भी अनुसंघान हो सके। अपने श्री सम्प्रदाय में आळ्वार संत, अपना सारा जीवन भगवद सेवा, समर्पण और भगवद गुणगान में ही व्यतीत किया है। एक और यह मधुरकवि आळ्वार, इनके लिये इनके आचार्य ही सब कुछ थे।
यह संत अपने आचार्य (गुरु) नम्माळ्वार की सेवा में, शिष्यत्व में आने के बाद, कभी किसी और का ध्यान नहीं किया, इनके लिये सिर्फ नम्माळ्वार ही भगवान थे और उनका ही गुणानुवाद करते थे। मधुरकवि आळ्वार की जीवनी उनकी रचना, हमारे सम्प्रदाय ही नहीं वैदिक सनातन के एक सिद्धांत की गुरु (आचार्य) ही भगवान का स्वरुप है, को सिद्ध करते है। आळ्वार संत की यह रचना संत की नम्माळ्वार के प्रति अनूठी अद्वितीय श्रद्धा बतलाती है।
[यहाँ तक की मधुरकवि आळ्वार, आदिनात पेरुमाळ के मंदिर में स्थित तिंत्रिणी के पेड़ के पास, अपने आचार्य के पास नित्य जाते, पर कभी आदिनात पेरुमाळ के दर्शन नहीं किये।]
आळ्वार संत की रचना “कण्णिनुण् चिऱुत्ताम्बु” की यह सरल व्याख्या पूर्वाचार्यों की व्यख्या पर आधारित है।
तनियन
अविदित विश्यान्तरः सठारेर् उपनिशताम् उपगानमात्रभोगः।
अपि च गुणवसात् तदेक सेशि मदुरकविर् ह्रुदये ममाविरस्तु।।
हम मधुरकवि आळ्वार को, अपने ह्रदय में ध्यान करते है, वह आळ्वार संत जिन्होंने नम्माळ्वार के सिवा किसी और को जाना ही नहीं, वह संत जिन्होंने नम्माळ्वार के प्रबंध पाशुर के गान के आलावा और कुछ नहीं गया, यह प्रबंध पाठ उन्हें परमानन्द प्रदान करते थे, वह संत जो अपने आचार्य के गुणानुभव में मग्न रहते थे।
वेऱोन्ऱुम् नान् अऱियेन् वेदम् तमिळ् सेय्द
माऱन् शठःकोपन् वण् कुरुगूर् एऱु एन्गळ्।
वाळ्वाम् एन्ऱेत्तुम् मदुरकवियार् एम्मै
आळ्वार् अवरे अरण्।।
मधुर कवी आळ्वार ने कहा है ” में नम्माळ्वार से ज्यादा कुछ नहीं जानता- नम्माळ्वार ने ही द्रविड़ लोगों पर अपनी करुणा बरसाते हुये वेदों के अर्थ को मधुर द्रविड़ भाषा में प्रबंध रूप में दिया है”, नम्माळ्वार इस सुन्दर कुरुगूर के नायक है, हम सब पर शासन कर, हम सबका उद्धार कर सकते है, प्रपन्न शरणागत जीवों को आश्रय प्रदान करने वाले है।
प्रथम पाशुर:
प्रथम पाशुर में मधुरकवि आळ्वार, नम्माळ्वार के गुणागान में भगवान् कृष्ण के अनुभव का परमानन्द ले रहे है, क्योकि नम्माळ्वार को भगवान कृष्ण बहुत प्रिय थे ।
कण्णि नुण् चिऱुत्ताम्बिनाल् कट्टुण्णप्
पण्णिय पेरु मायन् एन् अप्पनिल्
नण्णित् तेन् कुरुगूर् नम्बि एन्ऱक्काल्
अण्णिक्कुम् अमुदूऱुम् एन् नावुक्के
भगवन कृष्ण जो मेरे स्वामी है, ब्रह्माण्ड की सर्वोच्च सत्ता, सर्व जगत नियंत्रक होकर भी मातृ प्रेम में, माँ यशोदा के हाथों पतली सी रस्सी से बंध गये।मेरी जिव्हा को ऐसे करुणानिधान भगवान के नाम से भी ज्यादा मधुर और अमृतमय नाम, दक्षिण में स्थित तिरुक्कुरुगुर के नायक नम्माळ्वार का नाम रटना ज्यादा अच्छा लगता है ।
द्वितीय पाशुर:
द्वितीय पाशुर में मधुरकवि आळ्वार कह रहे है की, अकेले नम्माळ्वार के पाशुर इतने मधुर है की निरंतर इनका जाप ही मेरे लिए पुष्टिकारक है।
नाविनाल् नविऱ्ऱु इन्बम् एय्दिनेन्
मेविनेन् अवन् पोन्नडि मेय्म्मैये
देवु मऱ्ऱु अऱियेन् कुरुगूर् नम्बि
पाविन् इन्निसै पाडित् तिरिवने
मेरी जिव्हा से आळ्वार के पाशुर गाकर मैं स्वयं को बहुत ही परम सुखी अनुभव कर रहा हूँ। मैं ने स्वयं को आळ्वार के चरणों में समर्पित कर दिया है I मैं, मंगल गुणों से परिपूर्ण आळ्वार के आलावा किसी और भगवान को नहीं जानता, मैं तिरुक्कुरुगुर नायक आळ्वार के पाशुर का संगीत बद्ध गायन हर जगह जाकर करूँगा।
तृतीय पाशुर:
तीसरे पाशुर में मधुरकवि आळ्वार बहुत ही खुशी से कह रहे है, कैसे भगवान उन्हें नम्माळ्वार का सेवक जानकर उन्हें नम्मलवार स्वरुप में दर्शन दिये।
तिरि तन्दागिलुम् देवपिरान् उडै
करिय कोलत् तिरु उरुक् काण्बन् नान्
पेरिय वण् कुरुगूर् नगर् नम्बिक्कु आळ्
उरियनाय् अडियेन् पेऱ्ऱ नन्मैये
में आळ्वार का सेवक था, भटक गया था, तब आळ्वार द्वारा बतलाये गये , नित्यसुरियों के अधिपति भगवान् नारायण जो सांवले रंग के है मुझे दर्शन दिये, देखो मेरा भाग्य, सदाशय तिरुक्कुरुगुर में अवतरित नम्माळ्वार के सेवक होने से भगवान के दर्शन हुये।
चतुर्थ पाशुर:
इस चतुर्थ पाशुर में मधुरकवि आळ्वार, संत नम्माळ्वार की अपार बरसती करुण वर्षा को देखते हुये, कह रहे है की उन्हें हर उस बात की चाह रखना चाहिये जो नम्माळ्वार को पसंद थी।
यह भी बतला रहे है कैसे संत आळ्वार ने उन जैसे दीन को अपनाया।
नन्मैयाल् मिक्क नान्मऱैयाळर्गळ्
पुन्मै आगक् करुदुवर् आदलिल्
अन्नैयाय् अत्तनाय् एन्नै आण्डिडुम्
तन्मैयान् सडगोपन् एन् नम्बिये
वह जो विशिष्ट गतविधियों में सलंगन रहनेवाले, प्रकांड विद्वान चारों वेदों के ज्ञाता, जो मुझ जैसे दीनता के प्रतिक को छोड़ दिये थे, पर संत नम्मळ्वार, मेरे माता पिता बन मुझे आश्रय दिया, बस वही एक मेरे भगवान् है।
पञ्चम पाशुर:
इस पंचम पाशुर में मधुरकवि आळ्वार, पिछले पाशुर में वर्णित अपनी दीनता से कैसे नम्माळ्वार अपनी अकारण करुणा बरसाते इनमें बदलाव लाकर भक्त बनाकर अपनाया, इसके लिए वह आळ्वार संत को धन्यवाद दे रहे है।
नम्बिनॅ पिऱर् नन्पोरुळ् तन्नैयुम्
नम्बिनॅ मडवारैयुम् मुन्नेलाम्
सेम् पोन् माडत् तुक्कुरुगूर् नम्बिक्कु
अन्बनाय् अडियॅ सदिर्त्तॅ इन्ऱे
मधुरकवि आळ्वार कह रहे है, में भी पहले दूसरों की तरह धन और भोगों का लालची था, स्वर्ण महलों से सज्जित तिरुक्कुरुगूर् के नायक की सेवा पाकर, उनकी शरण में आने से में भी श्रेष्ठ हो गया, उनका सेवक हो गया।
षष्ठम पाशुर:
इस पाशुर में मधुरकवि आळ्वार पूछने पर की, आप में इतनी श्रेष्ठता कैसे आ गयी , कह रहे है संत नम्माळ्वार की अनुकम्पा और अनुग्रह से आ गयी , अब इस श्रेष्ठता से निचे गिरना असंभव है।
इन्ऱु तोट्टुम् एळुमैयुम् एम्पिरान्
निन्ऱु तन् इन्ऱु पुगळ् एत्त अरुळिनान्
कुन्ऱ माडत् तिरुक्कुरुगूर् नम्बि
एन्ऱुम् एन्नै इगळ्वु इलन् काण्मिने
तिरुक्कुरुगूर् के नायक संत नम्माळ्वार जो मेरे स्वामी है, उन्होंने मुझ पर कृपा अनुग्रह कर इस काबिल बनाया, इस लिए में उन्ही के गुणगान करता हूँ ,आप देखिये वह कभी मुझे मझधार नहीं छोड़ेंगे।
सप्तम पाशुर:
इस सप्तम पाशुर में मधुरकवि आळ्वार कह रहे है की, संत नम्माळ्वार की दया के पात्र बनकर, वह उन सबको, जो किसी न किसी रूप से पीड़ित है, उन सभी को जो अब तक संत के सम्मुख नहीं आये, जिनपर संत की कृपा नहीं हुयी, उन सबको नम्माळ्वार की महानता बतलाकर उन सबको भी, हर तरह से समृद्ध हो सके ऐसा करूँगा।
कण्डु कोण्डु एन्नैक् कारिमाऱप् पिरान्
पण्डै वविनै पाऱ्ऱि अरुळिनान्
एण् तिसैयुम् अऱिय इयम्बुगेन्
ओण् तमिळ् सडगोपन् अरुळैये
नम्माळ्वार्, जो कारिमाऱन्, नाम से भी जाने जाते है , जो पोऱ्कारि के पुत्र है अपना अनुग्रह बरसाते हुये अपने संरक्षण में लेकर, अपनी सेवा में लेकर मेरे जन्म जन्मांतर के पापों को मिटा दिया। आळ्वार संत की इस करुण महानता का और इनके द्वारा रचित दिव्य तमिल पाशुरों का अष्ट दिशाओं में, मै सभी को बतलाऊंगा।
अष्टम पाशुर:
इस अष्टम पाशुर में, मधुरकवि आळ्वार कह रहे है की, संत नम्माळ्वार की करुणा स्वयं भगवान की करुणा से भी ज्यादा है, कह रहे है की आळ्वार संत द्वारा रचित तिरुवाय्मौली स्वयं भगवान द्वारा कही गयी श्रीमद्भगवद गीता से ज्यादा कारुणिक है।
अरुळ् कोण्डाडुम् अडियवर् इन्बुऱ
अरुळिनान् अव्वरुमऱैयिन् पोरुळ्
अरुळ् कोण्डु आयिरम् इन् तमिळ् पाडिनान्
अरुळ् कण्डीर् इव् वुलगिनिल् मिक्कदे
भागवतों और भगवद गुणानु रागियों के प्रसन्न चित्तार्थ, नम्माळ्वार ने वेदों के तत्व सार को (तिरुवाय्मौली) सहस्त्रगीति में समझाया है, नम्माळ्वार की यह कृति भागवतों पर भगवान कि करुणा से भी ज्यादा ही है।
नवम पाशुर:
इस पाशुर में मधुरकवि आळ्वार कहते है की, नम्माळ्वार ने इनकी दीनता को अनदेखा कर, वेदों के सार का ज्ञान इन्हे दिया, और बतलाया की मानव को सदा भगवान के सेवकों का सेवक बन कर रहना चाहिये, इसके लिये में सदा सदा के लिये आळ्वार संत का ऋणी हूँ।
मिक्क वेदियर् वेदत्तिम् उट्पोरुळ्
निऱ्कप् पाडि एन् नेन्जुळ् निऱुत्तिनान्
तक्क सीर्च् चटकोपन् नम्बिक्कु आट्
पुक्क कादल् अडिमैप् पयन् अन्ऱे
नम्माळ्वार् ने मुझे वेदों का सार बतलाया है, जिनका सिर्फ महानतम विद्वानों के द्वारा ही पठन होता है, आळ्वार संत की यह कृपा मेरे मन में सदा के लिये घर कर गयी, इससे मुझे यह नम्माळ्वार का विशिष्ट सेवक होने का आभास हो रहा है।
दशम पाशुर:
इस दशम पाशुर में मधुरकवि आळ्वार कहते है की नम्माळ्वार ने उन पर इतनी विशिष्ट कृपा की है, जिसका ऋण वह जीवन भर नहीं उतार सकते ।
इस कारण नम्माळ्वार के चरणों में अति प्रगाढ़ प्रेम उत्पन्न हो गया।
पयन् अन्ऱु आगिलुम् पान्गु अल्लर् आगिलुम्
सेयल् नन्ऱागत् तिरुत्तिप् पणि कोळ्वान्
कुयिल् निन्ऱु आर् पोयिल् सूळ् कुरुगूर् नम्बि
मुयल्गिन्ऱेन् उन् तन् मोय् कळऱ्कु अन्बैये
ओह, नम्माळ्वार आप उस तिरुक्कुरुगूर् में विराजते है, जो चहुँ और से वनो से घेरा हुवा है, उन वनों में कोयल की कुक गुंजायमान हो रही है, आप इस जग के लोगों को अकारण निस्वार्थ भाव में उचित ज्ञान देकर, निर्देश देकर भगवान की सेवा में लगा रहे हो, ऐसे निस्वार्थ संत के प्रति मेरा मोह बढ़ रहा है।
एकादश पाशुर:
इस एकादश पाशुर में मधुरकवि आळ्वार कह रहे है, जो कोई भी इन प्रबंध पाशुरों को कंठस्थ कर नित्य पठन करले, निश्चय ही वह श्रीवैकुण्ठ को प्राप्त करेगा, क्योंकि श्रीवैकुण्ठ नम्माळ्वार (विष्क्सेनजी के अवतार) के सञ्चालन में है। इसका लक्षित सार यह है की, आळ्वार तिरुनगरि में भगवान आदिनाथार पेरुमाल है और नम्माळ्वार इस तिरुकुरुगुर के नायक है, जबकि श्रीवैकुण्ठ का संरक्षण संचालन तो सिर्फ नम्माळ्वार के हाथ में है।
अन्बन् तन्नै अडैन्दवर्गट्कु एल्लाम्
अन्बन् तेन् कुरुगूर् नगर् नम्बिक्कु
अन्बनाय् मदुरकवि सोन्न सोल्
नम्बुवार् पदि वैकुन्दम् काण्मिने
अपने भक्तो भागवतों के प्रति पेरुमाळ को अत्यधिक स्नेह होता है, नम्माळ्वार को भी पेरुमाळ के भक्तों से प्रेम होता है, पर में मधुरकवि, सिर्फ नम्माळ्वार से प्रेम करता हूँ।
मेरे द्वारा रचित यह प्रबंध पाशुरों का जो भी पठन करेगा वह श्रीवैकुण्ठ में वास करेगा।
अडियेन श्याम सुन्दर रामानुज दास
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