शरणागति गद्य – चूर्णिका 5 – भाग 5

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नम:

शरणागति गद्य

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namperumal-thiruvadiश्रीरंगनाथ भगवान के चरणकमल

आईये अब हम इस चूर्णिका के अंतिम भाग को जानते है-

अनालोचित विशेष अशेषलोक शरण्य ! प्रणतार्तिहर ! आश्रित वात्सल्यैक जलधे ! अनवरत विधित निखिल भूत जात याथात्म्य ! अशेष चराचरभूत निखिल नियम निरत ! अशेष चिदचिद्वस्तु शेषीभूत ! निखिल जगदाधार ! अखिल जगत् स्वामिन् ! अस्मत् स्वामिन् ! सत्यकाम ! सत्यसंकल्प ! श्रीमन्नारायण ! अशरण्यशरण्य ! अनन्य शरण: त्वत् पादारविंद युगलं शरणं अहं प्रपद्ये II अत्र द्वयं II

अनालोचित विशेष अशेष लोक शरण्य – सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में विशेष योग्यता से निरपेक्ष सभी प्राणियों के लिए मात्र भगवान ही शरणागतों के आश्रय है । वे यह विचार नहीं करते कि वह प्राणी किसी उच्च कुल में जन्मा अथवा धनवान या वेद / शास्त्र में निपुण है या नहीं । रामावतार में विभीषण भगवान की शरण में शरणागत होने के लिए आते है तब सुग्रीव द्वारा यह कहने पर कि भगवान को विभीषण को स्वीकार नहीं करना चाहिए, भगवान श्रीराम उनसे कहते है कि वे सभी को स्वीकार करते है फिर चाहे उनमें कोई भी दोष हो। श्री रामायण में एक श्लोक है, जिसे श्रीराम चरम श्लोक कहा जाता है, जिसमें भगवान कहते है कि “सभी शरणागतों की रक्षा करना, उनका संकल्प है”।

प्रणतार्तिहर प्रणत अर्थात् वे जो उनके शरणागत होते है । आर्ति अर्थात् भगवान के श्रीचरणों में सदा रहने की अतीव चाहना करनेवाले । हर अर्थात् हटाने/दूर करनेवाले । इसप्रकार, भगवान् अपने आश्रितों की आर्तता को दूर करके अपनी शरण में सभी को अपनाते है ।

आश्रित वात्सल्यैक जलधे – जैसा की हम पूर्व में देख चुके है, वात्सल्य अर्थात् अपने आश्रितों के दोषों को भी उनके सद्गुण जानना जैसे एक गाय अपने नए जन्मे बछड़े के शरीर की सभी गंद को चाटकर साफ करती है और उसे साफ़ बनाती है। जलधि अर्थात् सिन्धु । अपने आश्रितों पर भगवान् का जो वात्सल्य है वह सिन्धु के समान अपार है ।

अनवरतविधित निखिल भूतजात याथात्म्य – निखिल अर्थात् सभी। भूत अर्थात सभी तत्व । जात अर्थात प्रकार । अनवरत अर्थात् निरन्तर/ सतत (बिना रोक के); विधित अर्थात विभिन्न । याथात्म्य अर्थात सच्चा स्वरुप । वे सभी तत्वों के चरम सत्य को जानते है। भगवान के समक्ष जाने के लिए हमें यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि “मैं अच्छा प्राणी नहीं अथवा मुझ में अनंत दोष है” क्यूंकि वे पहले से ही हमारे विषय में सब जानते है।

अशेष चराचरभूत निखिल नियम निरतअशेष अर्थात् कुछ भी छोड़े बिना; चराचरभूत अर्थात् सभी चल और अचल तत्व; निखिल अर्थात् सभी; नियमन् अर्थात संचालित/ नियंत्रण करने का सामर्थ्य; निरत अर्थात संलग्न होना । भगवान् सभी तत्वों को सभी समय संचालित और नियंत्रित करने का सामर्थ्य रखते है । वे किसी भी तत्व को यह कहकर नहीं त्याग सकते कि वह उनके नियंत्रण में नहीं है। श्रीरामानुज स्वामीजी यहाँ दर्शाते है कि यह संसार और वे स्वयं दोनों ही भगवान के आधीन है। तो क्या वह श्रीरामानुज स्वामीजी और संसार के मध्य की डोर को काट नहीं सकते?

अशेष चिदचिद्वस्तु शेषीभूतचित और अचित, अर्थात् चल और अचल क्रमशः। शेषी अर्थात स्वामी/नाथ। वे सभी जगत् के स्वामी और नाथ है। यहाँ श्रीरामानुज स्वामीजी जो दर्शाना चाहते है वह यह कि जब भगवान् ही मेरे के स्वामी है, तब क्या उन तक पहुँचने के लिए जो आवश्यकता है वे स्वयं पूर्ण नहीं करेंगे?

निखिल जगदाधार – वे सभी जगत् के आधारभूत है। वे उनके भी रक्षक है, जो दोषों में निवृत्त है। आप ही मेरे अस्तित्व के आधार है और आप ही मेरी रक्षा करे, ऐसा श्रीरामानुज स्वामीजी कहते है।

अखिल जगत् स्वामिन् – वे समस्त ब्रह्माण्ड के स्वामी है। वे हमारे दोषों को दूर कर हमारे ह्रदय में ये इच्छा जागृत करते है कि शरणागति मार्ग को अपनाकर हम उन तक पहुँच सके।

अस्मत् स्वामिन् – सिर्फ यही स्मरण करना कि भगवान ब्रह्माण्ड के स्वामी है, पर्याप्त नहीं है। मुझे यह स्वीकार करना होगा और उन्हें बताना होगा कि वो ही दास के भी स्वामी है। श्रीरामानुज स्वामीजी यह दर्शाने के लिए कि भगवान की ही प्रेरणा से मैं उन तक पहुंचा और शरणागति की, वे विशेष रूप से कहते है आप मेरे भी स्वामी है।

सत्यकाम – यह तृतीय बार है जब यह शब्द- सत्यकाम और इसके अगला शब्द – सत्यसंकल्प का उल्लेख किया गया है। परंतु हर अवसर पर यह शब्द भिन्न अर्थ और संदर्भ में प्रयोग किया जाता है। प्रथम बार जब श्रीरामानुज स्वामीजी ने भगवान के दिव्य गुणों के वर्णन हेतु इस शब्द का उपयोग किया था, तब इसका भावार्थ आश्रितों द्वारा इच्छित सद्गुणों को धारण करनेवाले भगवान् से था। द्वितीय संदर्भ में, यह भगवान की नित्य और लीला विभूतियों में जीवात्माओं को संचालित करने की इच्छा को प्रकट करता है। यहाँ (तृतीय बार), यह दर्शाता है कि भगवान ही है जिनकी कोई अभिलाषा अपूर्ण नहीं है। वे सभी इच्छाओं की पूर्णता से पूरी तरह से तृप्त है। दैनिक प्रार्थना (तिरुआराधन) और अनुष्ठानों में हम उन्हें जो भी अर्पण करते है, वे उसी से प्रसन्न हो जाते है। ऐसा कुछ भी नहीं है जो उनके समक्ष नहीं है जिसे मैं अर्पण कर उन्हें संतुष्ट कर सकता हूँ।

सत्यसंकल्प – प्रथम बार में इस शब्द का प्रयोग उनके गुणानुवाद की युति में हुआ था, अर्थात् उन दुर्लभ वस्तुओं की रचना के सामर्थ्य से है जो कभी व्यर्थ नहीं होती। द्वितीय बार में इसका अर्थ था कि जब भी भगवान् किसी को मोक्ष (श्रीवैकुण्ठ) प्रदान करने का निर्णय करते है, वे बिना किसी बाधा के उसे पूर्ण करते है। यहाँ पर इस शब्द का अर्थ है वह योग्यता जिसके द्वारा विसंगत तत्वों को आपस में साथ रखा जाता है । वे जीवात्मा को श्रीवैकुण्ठ पहुंचाते है और उसे सभी नित्यसुरियों में संयुक्त करते है और फिर वे सभी जीवात्मा का प्रसन्नता से स्वागत करते है ।

सकलेतर विलक्षण – सभी अन्य तत्वों में श्रेष्ठ । वे स्वरुप और गुणों के संदर्भ में सभी से श्रेष्ठ है। उनके यह गुण और स्वरूप भी उनके आश्रितों के आनंद हेतु है और स्वयं भगवान् के लिए नहीं । वे सभी के रक्षक  है । यह गुण तभी पूर्ण है जब उनके गुणों का आनंद सभी प्राप्त करे । एक प्राणी की रक्षा ना हो पाए तो भगवान उसे गंभीरता से लेते है । इसलिए श्रीरामानुज स्वामीजी कहते है कि चूँकि वे इस संसार में रहते हुए भगवान के दिव्य गुणों का आनंद नहीं ले पा रहे, तो भगवान् भी परिपूर्ण अनुभव नहीं करते होंगे।

अर्थी कल्पक – आश्रितों की अभिलाषा को पूर्ण करनेवाले, विशेष रूप से “स्वयं” । वे वामन बनकर महाबली चक्रवर्ती से दान याचना कर तीनों लोकों को पुनः प्राप्त करने गए जिन्हें इंद्र ने महाबली को दिया था । जब वे अपने अनुयायियों की संतुष्टि हेतु याचन की हद तक भी जा सकते है, तब क्या वे उन प्राणियों को मोक्ष प्रदान नहीं करेंगे जो उनसे मोक्ष के याचना करते है ?

आपत सखा – विपदा के समय में मित्र, अर्थात सहायक । यद्यपि रक्षा के समय माता- पिता और संबंधियों के द्वार भी बंद हो जाते है, परंतु भगवान ऐसा कभी नहीं करते (काकासुर की कथा) ।

श्रीमन्श्रीदेवीजी के स्वामी। यहाँ जिस संदर्भ को श्रीरामानुज स्वामीजी प्रदर्शित कर रहे है वह यह है कि यद्यपि भगवान हमारी त्रुटियों/ अपराधों के कारण हमसे क्रोधित हो सकते है, परंतु श्रीअम्माजी (श्रीदेवीजी) पुरुष्कार भूतै के रूप में हमारी सिफारिश करती है और भगवान से हमारी विनती की पूर्ति कराती है। इसलिए श्रीमन् 

नारायणश्रीदेवीजी के “पुरुष्कार भूतै” रूप से पूर्व, जब भगवान ने ब्रह्माण्ड की रचना की क्या तब वह हमारे रक्षक नहीं थे? – श्रीरामानुज स्वामीजी हमें भगवान् के उस रूप के विषय में स्मरण कराते है।

अशरण्य शरण्य – उन प्राणियों को भी आश्रय प्रदान करते है जिनकी रक्षा के लिए अन्य कोई साधन नहीं है। क्या उनके समान कोई है?- श्रीरामानुज स्वामीजी कहते है।

अनन्यशरणोहम् – अब मेरे पास कोई अन्य आश्रय नहीं है।

त्वत् पादारविंद युगलं शरणं अहं प्रपद्ये – त्वत – आपके; पाद – चरण; अरविंदम – कमल समान (श्री चरणों की उपमा कमल से यह दर्शाने के लिए की गयी है कि वे मधुर है और सेवा करके उनकी मधुरता का आनंद प्राप्त किया जा सकता है) ; युगलं – जोड़ी; शरणं – समर्पित/ साष्टांग; प्रपद्ये – मान्सिक स्मरण। यहाँ श्रीरामानुज स्वामीजी कहते है कि वे स्वयं को भगवान के युगल कमल के समान कोमल श्रीचरणों में समर्पित करते है और द्वय महामंत्र का सदा जाप करते है (द्वय महामंत्र के विषय में अधिक जानकारी के लिए पाठकों से निवेदन है कि वे सद्गुरु आचार्य की शरण ले)

शरणागति मात्र एक बाह्य क्रिया अथवा प्रार्थना मात्र नहीं है। अपितु यह एक मान्सिक क्रिया है जिसके द्वारा शरणागति करने वाला प्राणी यह निश्चित प्रकार से स्वीकार करता है कि भगवान ही उसके रक्षक है और भगवान से विनती करता है कि उसे अपनी शरण में लेकर उसे भगवान और अम्माजी का नित्य अनंत अत्यंत आनंददायी दासत्व प्रदान करे।

अत्र द्वयं यह प्रकट करता है कि हमें इस समय में द्वय महामंत्र का जप करते रहना चाहिए (अनुकर्णीय रूप से, इस मंत्र का जप धीमे स्वर में ही किया जाना चाहिए, उतना कि वाचक उसका श्रवण कर सके)।

इसके साथ ही चूर्णिका 5 यहाँ समाप्त होती है। अगले अंक में हम चूर्णिका 6 को देखेंगे।

हिंदी अनुवाद- अडियेन भगवती रामानुजदासी

आधार – http://divyaprabandham.koyil.org/index.php/2015/12/saranagathi-gadhyam-5-part-5/

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