श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नम:
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श्रीरंगनाच्चियार (पेरिय पिराट्टीयार) – श्रीरंगम
श्रीरामानुज स्वामीजी – श्रीरंगम
चूर्णिका 2:
अवतारिका (भूमिका)
प्रथम चूर्णिका में, श्रीरामानुज स्वामीजी ने सर्वप्रथम श्रीजी द्वारा आश्रय प्रदान करने के सामर्थ्य और कही और आश्रय न पाने की स्वयं की असमर्थता को दर्शाया; तदन्तर वे श्रीजी के चरण कमलों में शरणागति निवेदन करते हैं। श्रीजी उनसे उनकी अभिलाषा पूछती है तब वे निवेदन करते हैं कि वे कैंकर्य में सम्मिलित होना चाहते हैं (दिव्य दंपत्ति की सेवा) और शरणागति में सम्पूर्ण विश्वास रखना चाहते हैं (हमारे पूर्वाचार्यों द्वारा इसे महाविश्वास कहा गया है)। जब कोई मनुष्य भगवान के चरण कमलों में शरणागति करता है, इसका अभिप्राय होता है कि वह कैंकर्य सेवा की प्राप्ति भी चाहता है। फिर भी, भगवान के चरण कमलों में शरणागति करने वाले शरणागत से यह अपेक्षित है कि उसे भगवत कैंकर्य की उत्कट अभिलाषा हो और शरणागति में अटूट विश्वास हो। क्या इसका आशय यह है कि पहले श्रीरामानुज स्वामीजी में यह दो गुण निहित नहीं थे (कैंकर्य की उत्कट चाहत और शरणागति में विश्वास)? (शरणागति करने के पश्चाद) परिणाम की तुलना में, अर्थात मोक्ष प्राप्त कर कैंकर्य करने में, हमें यही विचार करना चाहिए कि उस लक्ष्य तक पहुँचाने वाला कोई तत्व हमारे अंदर नहीं है। और यही सत्य भी है। और हमारे पूर्वाचार्यों ने भी नैच्यानुसंधान के फलस्वरूप सदा यही विचार किया है कि श्रीवैकुंठ पहुँचने के लिए उनमें कुछ भी सात्विक, सद्गुण नहीं है।
आईये अब हम द्वितीय चूर्णिका को देखते हैं:
चूर्णिका
पारमार्थिक भगवच्चरणारविंद युगल ऐकांतिकात्यन्तिक परभक्ति परज्ञान परमभक्तिकृत परिपूर्णानवरत नित्य विशदतम अनन्यप्रयोजन अनवाधिकातिशयप्रिय भगवदनुभवजनित अनवाधिकातिशय प्रीतिकारित अशेषावस्थोचित अशेषशेषतैकरीतिरुप नित्य कैंकर्य प्राप्त्यपेक्षया, पारमार्थिकी भगवच्चरणारविंद शरणागति: यथावस्तिथा अविरतास्तु मे II
शब्दार्थ
पारमार्थिक – सम्पूर्ण सत्य; वह जो परम पुरुषार्थ (सबसे उत्तम पुरुषार्थ) को अर्थ प्रदान करता है।
भगवान – 6 आवश्यक दिव्य गुणों को धारण करने वाले हैं (जिन्हें चूर्णिका 1 में देखा जा सकता है)
चरण – दिव्य चरण
अरविंद – कमल
युगल – दो
ऐकांतिक – इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं (एकं – एक; अन्तम – अंत); तिरुवड़ी (चरणों) के प्रति भक्ति और इसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं।
आत्यन्तिक – वह जिसका कोई अंत नहीं है (अन्तम – अंत; अत्यन्तं – अनंत)
परभक्ति – भगवान के साथ सदा रहने की बढती चाहत
परज्ञान – भगवान के दिव्य दर्शन करने की योग्यता
परमभक्ति – भगवान तक पहुँचना
कृत – वह जो किया गया है
परिपूर्ण – सम्पूर्ण
अनवरत – सतत/ निरंतर (बिना किसी बाधा के)
नित्य – स्थायी
विषदतम – परमभक्ति द्वारा अनुभव करना
अनन्य प्रयोजन – मात्र भगवान को ही अंतिम परिणाम मानना और कुछ नहीं
अनवधिक – कभी कम न होने वाला (और असीमित)
अतिशय – अद्भुत
प्रिय – प्रेमपूर्वक
भगवद – भगवान का
अनुभव – अनुभूति
जनित – द्वारा जन्मा
अनवधिक – कभी कम न होने वाला
अतिशय – अद्भुत
प्रीति – गहरा प्रेम
कारित – किया जाने वाला
अशेष – बिना त्यागे
अवस्थोचित – सभी स्थिति में प्रासंगिक
शेषतैकरतिरुप – अपने स्वामी के शेष (भृत्य) के रूप में प्रेमपूर्वक कैंकर्य का प्रतीक
नित्य कैंकर्य प्राप्ति – स्थायी कैंकर्य की प्राप्ति
अपेक्षय – अपेक्षित; इच्छित
पारमार्थिकी – सच्चा
भगवच् चरणारविन्द – भगवान के कमल के समान चरण
शरणागति – आश्रय
यथावस्थिता – जिस किसी स्थिति में जो हो
अविरत – बिना रुकावट या विराम के
अस्तु मे – मेरी नियति हो
विस्तृत व्याख्यान
पारमार्थिका – अर्थम् का अभिप्राय –प्रयोजन (परिणाम) और सत्य दोनों हैं। जब इसका उपयोग परभक्ति के विशेषण के रूप में होता है तब पारमार्थिक भक्ति, अकारणत्व (निर्हेतुकत्व) को दर्शाता है। अन्य शब्दों में, यदि भक्ति भगवान की कृपा से प्राप्त होती है, उसे सिद्ध भक्ति कहते हैं, अर्थात वह भक्ति जो स्वतः ही, हमारी ओर से बिना किसी प्रयास के ही हमें प्राप्त हुई है। वही दूसरी ओर जब हम भक्ति प्राप्त करने हेतु स्व-प्रयासों की सहायता लेते हैं, उसे साधन भक्ति कहते हैं, वह भक्ति जो हमारे प्रयासों से जनित है।
जब हम पारमार्थिका को चरणारविन्दम (चरण कमल) के विशेषण के रूप में देखते हैं (पारमार्थिका चरणारविंदम), इससे प्रयोजन तिरुवड़ी अर्थात चरण कमलों को प्राप्त कर, उन चरणारविंदों के नित्य कैंकर्य करने का बोध प्राप्त होता है।
भगवच् चरण अरविंद – यहाँ भगवान शब्द का प्रयोग चरण कमलों की श्रेष्ठता को दर्शाने के लिए किया गया है। यह उस मधुरता का सूचक है, जो भगवान के दिव्य गुणों के कारण उनके चरण कमलों से जुडी है। क्यूंकि उनके गुण आनंददाई है, वे परमभक्ति की ओर अग्रसर करते हैं, जो इस आनंद की चाहत को और बढाती है। चरण अरविंद – चरण कमल भगवान के सम्पूर्ण दिव्य विग्रह के सूचक है और इसलिए आनंददाई है।
युगल – चरण कमलों से जनित आनंद/ प्रसन्नता
ऐकांतिक – केवल एक ही परिणाम/ प्रयोजन है; अन्य कोई प्रयोजन नहीं है अर्थात इसके अतिरिक्त और कुछ भी देखने के लिए नहीं है।
आत्यन्तिक – मात्र भगवान पर केन्द्रित; अन्य कही भक्ति नहीं होना।
परभक्ति – भगवान से प्रेम ऐसा है कि उनके साथ होने पर सदा आनंद है और उनसे वियोग सदा ही दुःख जनित है।
परज्ञान – परभक्ति की अवस्था भगवान के दर्शनलाभ में पुष्पित होती है। इस प्रकार इसे दर्शन साक्षातकारं भी कहा जाता है अर्थात भगवान के सच्चे दर्शन की दृष्टि।
परमभक्ति – यह परभक्ति की अंतिम अवस्था है, जहाँ भगवान से एक क्षण भी दूर रहना असंभव है। वियोग होने पर जीवन समाप्त हो जाता है। श्रीरामानुज स्वामीजी सर्वप्रथम ज्ञान के लिए प्रार्थना करते है, तदन्तर भक्ति हेतु; इन दोनों के साथ, भगवान उन्हें उस अवस्था तक ले जाते हैं जो भक्ति योगि को प्राप्त होती है, जिससे वह परमभक्ति प्राप्त करता है, वो भी भक्ति योगी द्वारा किये जाने वाले प्रयासों के बिना ही। इसके अतिरिक्त, श्रीरामानुज स्वामीजी आगे बतायी गयी अवस्था की चाहत भी करते हैं।
कृत – परभक्ति, परज्ञान, परमभक्ति से जनित
परिपूर्ण – यहाँ इसका अभिप्राय है – भगवान के स्वरुप, रूप, गुण, विभव सभी का एक ही समय में, संपूर्णतः, बिना किसी रूकावट, के प्रत्यक्ष अनुभव दर्शन करने का सामर्थ्य। हमारे शरीर की सिमित ज्ञानेन्द्रियों द्वारा, इन अपरिमित स्वरुप वाले गुणों के आनंद के विषय के बारे में सोचना भी असंभव है। केवल परभक्ति, परज्ञान और परमभक्ति की प्राप्ति के पश्चाद ही, हम भगवान के इन गुणों का आनंद प्राप्त कर सकते हैं।
अनवरत– भगवान के गुणों को सदा अनवरत, बिना रुकावट अनुभव करना और आनंद प्राप्त करना।
नित्य – स्थायी; उस समय तक जब तक आत्मा रहती है (क्यूंकि आत्मा अनित्य है, क्षीण नहीं होती, इसीलिए अनुभव भी सदा विद्यमान रहेगा)।
विषाद तम– अनुभव अथवा अनुभूति की तृतीय अवस्था। प्रथम अवस्था विषद है, जो परभक्ति द्वारा प्राप्त होती है। द्वितीय अवस्था विषदतर है, जो परज्ञान के द्वारा प्राप्त की जाती है और अंततः, परमभक्ति द्वारा।
अनन्य प्रयोजन – भगवान के गुणों की अनुभूति और आनंद प्राप्त करना, बदले में कुछ भी चाहे बिना। यहाँ तक कि अनुभूति से जनित प्रीति अथवा प्रीति से जनित कैंकर्य भी नहीं। भगवान की अनुभूति केवल अनुभव योग्य ही होना चाहिए, इसमें और कोई प्रयोजन नहीं होना चाहिए।
अनवधिक अतिशय प्रिय – भगवान के प्रति प्रेम की अनुभूति जो अनवरत है, कभी कम नहीं होती, अद्भुत है
भगवदनुभव – वह अनुभव जो आत्मा को अपने अंतिम शरीर (जिसमें शरणागति निवेदन किया गया था) के त्यागने के पश्चाद, अर्चिरादीगति (वह मार्ग जो आत्मा को १२ विभिन्न संसारों से लेकर, विरजा नदी पार श्रीवैकुंठ तक पहुँचाता है) द्वारा परमपद (श्रीवैकुंठ) पहुँचने पर प्राप्त होती है। भगवदनुभव जो हम लीला विभूति में प्राप्त करते हैं, वह सीमित है यद्यपि नित्य विभूति में यह अनुभव असीमित है।
जनित अनवधिक अतिशय प्रीति कारित – भगवदनुभव से प्रीति उत्पन्न होती है, प्रीति – गहरा प्रेम जो सदा उमड़ता हुआ और अद्भुत है।
अशेष अवस्थोचित – किसी को भी त्यागे बिना, सभी अवस्थाओं में, वही कार्य करना जो वे चाहते हैं|
अशेषशेषतैकरतिरूप – जिस प्रकार अनंताल्वान (आदि शेषजी) बहुतेरे कैंकर्य किया करते थे, सभी कैंकर्य करना अपने आप में ही आत्मा के प्रेम का रूप हो जाता है|
नित्य – कैंकर्य एक या दो बार नहीं अपितु सदैव/ नित्य के लिए है; स्थायी। एक बार श्रीवैकुंठ पहुंचे के पश्चाद आत्मा दोबारा अगले जन्म के लिए पृथ्वी पर नहीं आती। इसलिए यह कैंकर्य सदा, नित्य ही वहां उपलब्ध है।
कैंकर्य प्राप्ति अपेक्षया – ऐसे कैंकर्य करने को सदा चाहना
पारमार्थिकी – ऐसे कैंकर्य में कुशलता और पूर्ण रूप से संयुक्त होना
भगवत – जो 6 गुणों को धारण करते हैं, अपने चरण कमलों में शरण/ आश्रय प्रदान करते हैं, बदले में कुछ भी अपेक्षा न करते हुए
चरण अरविन्द – शरणागति के साधन को प्रदर्शित करते हैं
शरणागति– उनके आश्रित होकर रहना इस प्रकार से की केवल वे ही इसके लिए सर्वोत्तम हैं
यथावस्थिता – यथा स्थिति अर्थात धारण न करने योग्य (लौकिक सुखों की चाहना) सभी को त्यागकर, आश्रित होने को जो सर्वोत्तम है अर्थात भगवान के चरण कमल को पकड़े। क्यूंकि यह रहस्य है, यहाँ यह प्रदर्शित नहीं करते कि शरणागति किस प्रकार की जाती है।
अविरस्तास्तु मे – यही मेरी नियति हो, बिना किसी विराम अथवा रूकावट के; अर्थात उनके चरण कमल प्राप्त कर, कैंकर्य सेवा का अवसर प्राप्त करना, यह सभी सदा के लिए बिना विराम के मुझे प्राप्त हो।
अब हम तृतीय और चतुर्थ चूर्णिका की और अग्रसर होंगे, जो बहुत ही छोटी है। यह दोनों ही श्रीरामानुज स्वामीजी की प्रथम दो चूर्णिकाओं के प्रत्युत्तर में श्रीजी द्वारा कही गयी है।
3 चूर्णिका:
चूर्णिका
अस्तु ते II
विस्तृत व्याख्यान
(आपके विषय में) ऐसा ही हो !
4 चूर्णिका:
चूर्णिका
थयैव सर्वं संपतस्यते II
विस्तृत व्याख्यान
आपने जो भी प्रार्थना की है, परमभक्ति से प्रारंभ कर, कैंकर्य सेवा करने पर्यंत, सभी बीच की अवस्थाओं जैसे परमज्ञान, परमभक्ति आदि सहित, सभी आपको प्राप्त हो!
इसके साथ हम शरणागति गद्य के प्रथम भाग को पूर्ण किया, जहाँ श्रीरामानुज स्वामीजी सर्वप्रथम भगवान के चरणों में शरणागति न करते हुए, श्रीजी के चरणों में शरणागति करते है क्यूंकि वे पुरुष्कार भूता रूप में भगवान से हमें अपनाने की सिफारिश करती है। अगले भाग में वे भगवान के चरणों में शरणागति निवेदन करेंगे। यह हम चूर्णिका-5 से देखेंगे।
– अडियेन भगवती रामानुजदासी
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