श्री:
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद्वरवर मुनये नमः
श्लोक २९
आराध्य श्रीनिधिम् पश्चादानुयागम् विधाय च ।
प्रसादपात्रं माम् कृत्वा पश्यन्तं भावयामि तं ॥ २९॥
शब्दार्थ –
पश्चात् – तत्पश्चात माध्याह्निक नित्यकर्मानुष्ठानों को सम्पूर्ण कर,
श्रीनिधिम् – अपने आराध्य अर्चारूपि अरंगनगरप्पन् भगवान,
आराध्य – की आराधना (अत्यन्त विद्धि-श्रद्धा पूर्वक किये),
अनुयागम् विधाय – भगवान को समर्पित प्रसाद को ग्रहण (किये),
माम् – मुझे (जबकी मै अप्रवृत होकर प्रसाद की ओर नही देख रहा था),
प्रसादपात्रम् कृत्वा – (ऐसे मुझको) उन्होने शेष प्रसाद का पात्र दिया और उनके दिव्य शेष प्रसाद को ग्रहण करने के तत्पश्चात,
पश्यन्ताम् – जो मुझको कृपापूर्वक देख रहे है,
तम् – ऐसे श्री वरवरमुनि,
भावयामि – का मै ध्यान सदा करूंगा ।
भावार्थ (टिप्पणि) –
इस श्लोक मे आराध्य का अर्थ है परीपूर्णरूप से खुद की संतुष्टि से की गई भगवान की पूजा । शान्डिल्य स्मृति कहता है – जिस प्रकार एक राजा या राजकुमार को, अपने सुशील अतिथियों को, और मदमस्त हाथी को खुश करते है उसी प्रकार भगवान की पूजा प्रेम-भक्ति और भय से करना चाहिये । आगे, जिस प्रकार एक पतिव्रता स्त्री (पत्नी) अपने पती की सेवा करती है, एक माँ अपने शिशु की सेवा करती है, एक शिष्य अपने गुरु की सेवा करता है, और वह जिसने मन्त्रोपदेश पाकर मन्त्र की उपासना जिस प्रकार करता है, थीक उसी प्रकार भगवान की सेवा करनी चाहिये । इसी कथानुसार श्री वरवरमुनि अपने आराध्य भगवान की पूजा करते थे । अनुयागम् का अर्थ है – भगवान की विधि अनुसार पूजा करना जिसके बाद भगवान के प्रसाद को ग्रहण करना । श्री भारद्वाज मुनि कहते है कि सबों को परिषेचन (पीने का पानि को छिडककर) करने के तत्पश्चात आहार ग्रहण करना चाहिये और भगवान जो प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान है उनकी ओर से अन्न को इन उपरोक्त पांच रूपों मे ग्रहण करना चाहिये । श्री शाण्डिल्य ऋषि कहते है – सबों को भगवान की पूजा करनी चाहिये जो सबों के हृदय मे परमात्मा के रूप मे विराजमान है और तीर्थ ग्रहण करते वक्त “ओम् प्राणाय स्वाहा” मन्त्र से अपने मुह मे ग्रहण करना चाहिये और इस प्रकार अपने मुह मे यज्ञ करना चाहिये । तत्पश्चात बिना भागते हुए भगवान का ध्यान करते हुए, और बिना किसी शिकायत के (जैसे नमक कम, मिर्ची ज़्यादा, ज़्यादा इमली इत्यादि विचारों को त्यागकर) भगवद्-प्रसाद को ग्रहण करण चाहिये । इसके अतिरिक्त श्री शान्डिल्य के अनुसार भगवत्-प्रसाद के निम्नलिमित विशेषताये जैसे स्वच्छता, सीमित मात्रा मे उपलब्ध, स्वाद, दिल से स्वीकृत, शुद्ध देसी घी का चिपचिपाहट, देखने मे रमणीय, और कम गर्म इत्यादि का रसास्वादन करना चाहिये । अनुयागम् विधय च शब्द मे ‘च’ माने श्री वरवरमुनि खुद प्रसाद ग्रहण करने से पहले उपस्थित सभी श्रीवैष्णवों के लिये प्रसाद का प्रबन्ध करते थे और फिर प्रसाद खाते थे । यहाँ विशेष ध्यान दिया जाना चाहिये की एरुम्बियप्पा के वरवरमुनि-काव्य के अनुसार पहले वह श्री वैष्णवों को स्वच्छ, शुद्ध, रमणीय, अत्यन्त रुचीदायक, मनमोहक, अत्यन्त मधुर, महकीला, कोमल, मुँह मे पानि लाने वाला, और अत्यन्त शुद्ध मनस से भगवान् को समर्पित प्रसाद को खिलाकार तत्पश्चात स्वयम् खाते थे । अतः प्रसाद का वितरण केवल उपस्थित श्रीवैष्णवों के लिये इति भावना से करके, और इससे अपने आप को सन्तुष्ट कर वरवरमुनि प्रसाद ग्रहण करते थे । कहा जाता है कि पूर्व घटना मे एरुम्बियप्पा ने श्री वरवरमुनि के शेषप्रसाद का तिरसकार किया क्योंकि यह प्रथा है कि किसी को भी एक संयासि का शेष ग्रहण नही करना चाहिये और संयासि के प्रात्र मे प्रसाद ग्रहण करना भी अनुचित है । एरुम्बियप्पा ने अपने अनैतिक व्यवहार से यह किया और इस घटना मे उन्होने अपने आप को सही किया । पश्यन्ताम् भावयामि शब्द का अर्थ है – मै ऐसे श्री वरवरमुनि को भजता हूँ जो मेरी ओर देख रहे है । इसके साथ साथ यह भी अर्थ दर्शाता है कि श्री वरवरमुनि को एरुम्बियप्पा के व्यवहार ने आश्चर्यचकित और मन्त्रमुग्ध कर दिया और सोच रहे है यह कैसा परिवर्तन है कि जिसने पूर्व मेरे शेष का तिरस्कार किया और अभी अत्यन्तानन्द भाव से खा रहे है । अतः श्रीमान् एरुम्बियप्पा जी कहते है मै ऐसे औदार्य और उदार स्वभाव के श्री वरवरमुनि को भजता हूँ जिन्होने मुझे सही किया और मेरी गलतियों को सुधारा । अन्त मे, शास्त्रानुसार संयासि के शेष का तिरसकार की क्रिया केवल अवैष्णव संयासि पर लागू होती है परन्तु श्रीवैष्णव संयासि पर नही ।
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