श्री:
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद्वरवर मुनये नमः
श्लोक २८
ततः स्वचरणाम्भोजस्पर्शसंपन्नसौरभैः ।
पावनेर्थिनस्तीर्थैभावयन्तम् भजामि तं ॥ २८॥
शब्दार्थ –
ततः – इस प्रकार से दिव्यप्रबन्ध के सारांश को समझाकर,
स्वचरणाम्भोजस्पर्शसम्पन्नसौरभैः – उनके सुगन्धित चरणों के सत्संग मे,
पावनैः – शुद्ध (पवित्र),
तीर्थैः – उपभोग हेतु दिया जाने वाला श्रीपादतीर्थ,
अर्थिनः – शिष्यों ने श्रीपादतीर्थ देने की प्रार्थना किये,
भावयन्तम् – (जो) सुधारती है या जिससे उत्थान होता है,
तम् – ऐसे श्री वरवरमुनि,
भजामि – का नमन करता हूँ ।
भावार्थ (टिप्पणि) –
इस श्लोक मे, श्री वरवरमुनि, श्री दिव्यप्रबन्धों का सारांश समझाकर, अपने अर्थी शिष्यों द्वारा प्रार्थना किये जाने पर, तत्पश्चात उन्होने उपभोग हेतु अपने श्रीपादतीर्थ का वितरन किया । क्योंकि उस समय मे श्रीरामानुजाचार्य तो स्वयम् तो जीवित नही थे परन्तु वरवरमुनि (जो उनके पुनरावतार है) को लगा – की अगर मै अपने शिष्यों के उत्थापन हेतु अपना श्रीपादतीर्थ का वितरन करूँ तो यह गलत नही होगा । शिष्यों ने भी यही अर्थी की थी याने उनसे प्रार्थना किये कि वो अपने श्रीपादतीर्थ का वितरन करे । यहाँ गौर देने वालि बात यह है की उनके चरणकमल कमल के फूल जैसे है और इन्ही चरणकमलों के सत्संग से तीर्थ अत्यन्त परिमलता और शुद्धता को ग्रहण करता है माने अत्यन्त परिमल और शुद्धता प्राप्त करता है । तीर्थैः शब्द का बहुवचन मे प्रयोग यह निर्दिष्ट करता है की श्रीपादतीर्थ तीन बार दिया गया था । स्मृति कहता है – त्रीः पिबेत् । जिसका अर्थ है श्रीपादतीर्थ तीन बार ग्रहण करना चाहिये । कही कही लिखा है श्रीपादतीर्थ केवल दो बार दिया जाता है और इसका प्रमाण ऊशन स्मृति मे है । कहा जाता है की भागवतों का श्रीपादतीर्थ को ग्रहण करने से शुद्धता और पवित्रता प्राप्त होती है । और यह सोम रस के पीने के बराबर है । शास्त्र दोनों प्रकार के श्रीपादतीर्थ (दो या तीन बार ग्रहण करने) के प्रमाणों को स्वीकार करता है और हमे अपने सांप्रदाय के अनुसार इसका अनुष्ठान करना चाहिये । भारद्वाज संहिता मे कहा गया है – एक आचार्य से उपदेश प्राप्त करने हेतु एक शिष्य को अपने आचार्य का श्रीपादतीर्थ को ग्रहण करना चाहिये और यही सांप्रदाय की रीती है जो उपदेश पाने के नियम के अन्तर्गत है । अतः आखरी श्लोक मे, सर्वप्रथम दिव्यप्रबन्धों के सारतम रहस्यों का प्रचार-प्रसार का उल्लेखन है और तत्पश्चात क्रमानुसार श्रीपादतीर्थ शब्द का प्रयोग किया गया है । पूर्णतः उपदेश के आन्तरिक अर्थों मे निमग्न एरुम्बियप्पा ने अन्ततः “नमामि” शब्द का प्रयोग किया है । अब अपने आचार्य के श्रीपादतीर्थ को ग्रहण कर पूर्ण रूप से अनुकूलित भक्ति भाव से उन्होने “भजामि” शब्द का उपयोग किया है । यहा विशेष ध्यान दिया जाना चाहिये कि श्री वरवरमुनि (जो वासनारहित अभिलाषारहित है) ने कभी भी किसी से भी उम्मीद नही रखा और उनके प्रति किसी को कुछ करने की भी ज़रूरत नही थी ।
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