पूर्वदिनचर्या – श्लोक – २४

श्री:
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद्वरवर मुनये नमः

परिचय

श्लोक २३                                                                                                   श्लोक २५

श्लोक २४

देवी गोदा यतिपतिशठद्वेषिणौ रङ्गश्रृङ्गं सेनानाथो विहगवृषभश्श्रीनिधिस्सिन्धुकन्या
भूमानिलागुरुजनवृतः पूरुषश्चेत्यमीषामग्रे नित्यम् वरवरमुनेर्ङ्घ्रियुग्मम् प्रपद्ये २४

शब्दार्थ

देवी गोदा                  – गोदा अम्मा जी,
यतिपतिशठद्वेषिणौ   – श्री यतिराज जी (रामानुजाचार्य/एम्पेरुमानार) और श्री शठकोप सुरी जी (श्री नम्माळ्वार), रङ्गश्रृङ्गम्              – मन्दिर का विमान (श्रीरङ्ग मन्दिर का सबसे ऊपरी भाग),
सेननाथाः                 – श्री विवक्सेन जी (सेनै मुदयिलार),
विहगवृषभहः            – श्री गरुड जी (पक्षियों के राजा),
श्रीनिधि                   – श्री महालक्ष्मी अम्मा जी का निज बहुमूल्य निधि यानि साक्षात श्रीरङ्ग भगवान,
सिन्धु कन्या            – श्रीरङ्ग नाच्चियार (क्षीर सागर जी की पुत्री श्रीरङ्गवल्ली अम्मा जी),
भूमानीलगुरुजनवृतः – श्री भूमी पिराट्टि, पेरिय पिराट्टि, नीला देवी, नम्माळ्वार और अन्य नित्य सूरियों से घिरे हुए,
पूरुषश्च                   – श्री परमपद के प्रमुख अधिकारि,
इति अमीषम् अग्रे     – ऐसे महापुरुषों के सम्मुख (समक्ष),
वरवरमुनेः               – श्री मणवाळमामुनि,
अन्घ्रियुग्मम्           – चरणकमल,
नित्यम्                   – प्रतिदिन,
प्रपद्ये                    – पूजा करता हूँ

भावार्थ (टिप्पणि) –

नान्मुगन कोट्टै के प्रवेश द्वार से प्रवेश करते हुए, श्री मणवाळमामुनि दक्षिणावर्त दिशा से होते हुए सर्वप्रथम श्री गोदा अम्माजी, फिर बारि बारि मे श्री रामानुज, श्री नम्माळ्वार, श्रीरङ्गविमान, सेनैमुदलियार, गरुडाळ्वार, भूमि पिराट्टि, नीला देवी, नम्माळ्वार और अन्य आळ्वारों के साथ, अन्त मे परमपदनाथ की सन्निधि से होते हुए परमपदनाथ जी का दर्शन इस क्रमानुसार किया करते थे ।  एरुम्बियप्पा इन शिलाविग्रहों की पूजा करने के बजाय केवल श्री वरवरमुनि की पूजा करते थे । इधर यह प्रश्न उठता है कि – ऐसा उन्होने क्यों किया ? वे कहते है , मै अपने आचार्य श्री वरवरमुनि की उपासना करता हूँ, क्योंकि सर्व प्रथम आचार्य जी इन सभी शिला विग्रहों याने भगवान और भगवद्-संबन्धियों का दर्शन कर आये,अतः उनकी पूजा करना श्रेय और यथेष्ट है । क्योंकि वे आचार्य परन्तर थे इसी कारण वह केवल अपने श्री आचार्य की उपासना किया करते थे । श्री भारद्वाज के अनुसार, भगवान श्रीमन्नारायण (एम्पेरुमान) की अर्चारूप मे सेवा अत्यन्त अत्यधिक भक्ति और प्रेम भावना से करनी चाहिये । साथ मे उनके सभी पार्षदों, भक्तों, आचार्य-गण, निज सामग्री, इत्यादि सहित उनकी उपासना करनी चाहिये । इसी के अनुसार श्री वरवरमुनि ने क्रमानुसार भगवान के सभी पार्षदों और भगवद्-सम्बन्धियों के साथ भगवान का मंगलाशासन किया । श्री वरवरमुनि ने श्रीरङ्गनाथ भगवान के साथ श्री आण्डाल (गोदा), सेनैमुदळियार गरुडाळ्वार इत्यादि का मंगलाशासन किया । गोदा अम्मा जी (श्री भूमि पिराट्टि) की अवतार है, जिन्होने अपने आप को एक भक्त, शिष्य, दासि इत्यादि के रूप मे प्रस्तुत कर श्री वराह भगवान के शरणागत हुई (अहम् शिष्यश्च दासी भक्त पुरुषोत्तमा) । भू , नीळा, पेरिय पिराट्टि जो श्रीरङ्गनाच्चियार से जाने जाते है इत्यादि ये सभी भगवान की पत्नियों के दर्जा मे आती है । अतः श्री वरवरमुनि श्रीरङ्गनाथ भगवान का मंगलाशासन करते समय, उनकी पत्नियाँ, पार्षद, आचार्यगण, और अन्य भक्तों की अराधना करते थे । एरुम्बियप्पा ऐसे श्री वरवरमुनि की पूजा सबके समक्ष किया करते थे ।

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