श्री:
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद्वरवर मुनये नमः
श्लोक २३
महति श्रीमति द्वारे गोपुरं चतुराननम् ।
प्रणिपत्य शनैरन्तः प्रविशिन्तं भजामि तम् ॥ २३
शब्दार्थ –
श्रीमति – पर्याप्त मात्रा मे धनसंपत्ति,
महति – ज़्यादा विशाल / विस्तीर्ण,
द्वारे – मन्दिर के दुर्ग के मार्ग पर,
चतुराननम् गोपुरम् – नान्मुगन मन्दिर का दुर्ग (गोपुर),
प्रणिपत्य – मनसा, वाचा, कर्मणा ( मन, वाक, कर्म) से अर्चित (प्रणिपात करते हुए) ,
शनैः – धीरे धीरे (उन दिव्य आंखों को नम्रतापूर्वक घुमाते है जो इस दिव्य भव्य मन्दिर के दुर्ग की सुन्दरता का आनन्द लिये),
प्रविशन्तम् – प्रवेश करते है ,
तम् – ऐसे वरवरमुनि,
भजामि – की पूजा करता हूँ |
भावार्थ (टिप्पणि) –
यहाँ श्रीमति और महति दोनो शब्द प्रसिद्ध नान्मुगन मन्दिर के प्रवेश द्वार की विशेषता और परिशिष्टता को व्यक्त करते है । इसी द्वार से प्रवेश कर, ब्रम्हा और अन्य देवतान्तर विशेष धन-संपत्ति को प्राप्त करते है । हलांकि भगवान श्रीरंगनाथ के भक्तों की भीड के बावज़ूद वहाँ इतना जगह अश्वय है जिसका प्रयोग किया जा सकता है । यह उस जगह की विशालता को दर्शाता है । इस दुर्ग का नाम चतुराननम् – नान्मुगन गोपुर है । प्रणिपत्य शब्द दण्डवत प्रणाम की विचार धारणा, उच्च स्वर मे बोलना, और शारीरिक रूप से दण्डवत प्रणाम करना (मन, वाक, कर्म से दण्डवत प्रणाम) को दर्शाता है ।
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